बुधवार, 9 मार्च 2022

चुनाव आयोग और अमेरिकी डॉलर

         पराजयोन्मुख नेताओं को चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर संदेह होता है, वे मानते हैं कि ईवीएम बेवफ़ा होती हैं और चुनाव आयोग उनकी शिकायतों पर कार्यवाही नहीं करता । आम जनता मानती है कि चुनाव-प्रचार के समय नियमों का उल्लंघन करने वाले नेताओं के विरुद्ध चुनाव आयोग कभी भी कठोर दण्डात्मक कार्यवाही नहीं करता, जिसके परिणामस्वरूप चुनाव एक पाखण्ड बन कर रहा गया है ।

मोतीहारी वाले मिसिर जी चुनाव आयोग के साथ-साथ माननीय सर्वोच्च न्यायालय की सत्य-निष्ठा पर भी प्रश्न खड़े करते हैं । चुनावी प्रक्रिया की पारदर्शिता को बनाये रखने में चुनाव आयोग की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । चुनाव-प्रचार के समय पश्चिमी बंगाल में हुयी अभूतपूर्व हिंसा ने चुनाव आयोग की भूमिका और दायित्व पर भी प्रश्न खड़े किये हैं । मिसिर जी मानते हैं कि चुनाव प्रचार के समय, सरकार बनने पर फ़्री में दी जाने वाली चीजों और ऋणमुंचन का वादा करना विशुद्ध रूप से मतदाता को रिश्वत देने का वादा करना है । इस रिश्वत में व्यय होने वाली भारी-भरकम धनराशि की व्यवस्था कहाँ से की जाती है? माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आज तक इस आपराधिक परम्परा पर कभी कोई संज्ञान क्यों नहीं लिया? जिन परम्पराओं से लोकतंत्र का अस्तित्व ही संकटग्रस्त हो जाय ऐसी गम्भीर समस्याओं के लिये भी न्यायालय को जनहितयाचिका की प्रतीक्षा क्यों रहती है?     

लोकतंत्र को निरंकुश और अराजक तंत्र में डूब जाने से बचाने के लिये इन प्रश्नों के उत्तर भारत के हर नागरिक को खोजने ही चाहिये ।

डॉलर की दादागीरी

वैश्विक बाजार में अमेरिकी डॉलर की दादागीरी चलती रही है किंतु अब अमेरिका द्वारा रूस पर लगाये गये व्यापारिक और आर्थिक प्रतिबंधों ने दुनिया को बा-ख़बर कर दिया है कि इसका विकल्प खोजे जाने की आवश्यकता है । द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आई औद्योगिक क्रांति की आँधी में उड़ने को बेताब सारे देश इस बात से बेख़बर बने रहे कि उन्होंने धीरे-धीरे अपनी-अपनी मुद्रायें डॉलर के आगे समर्पित कर दी हैं । अमेरिकी डॉलर के हाथों में दुनिया भर की मुद्राओं की नकेल यूँ ही नहीं आ गयी, सच्चाई यह है कि हम सबने नकेल सौंप दी ।

अमेरिका ने रूस पर प्रतिबंधों की बौछार कर डाली है, किंतु वैश्वीकरण का तकाजा उसे ऐसा करने नहीं देगा, कुछ दिनों की मनमानी के बाद सबकी अक्ल ठिकाने आने वाली है । विश्व वह फेफड़ा है जिसे उद्योग की प्राणवायु चाहिये । बिना आदान-प्रदान के किसी उद्योग को चला पाने की कल्पना नहीं की जा सकती, सबके सूत्र एक-दूसरे से जुड़े हुये हैं । यूक्रेन-रूस के विनाशकारी युद्ध ने हमें बहुत कुछ सीखने का अवसर दिया है ।

जब मुद्रा नहीं थी, व्यापार तब भी था । जब डॉलर नहीं होगा, व्यापार तब भी होगा । हमें वस्तु-विनिमय की प्राचीनतम पद्धति को प्रचलन में लाना होगा, साथ ही कम से कम तीन मुद्राओं को विश्वव्यापार में डॉलर के समकक्ष खड़ा करना होगा । हर चीज का मूल्यांकन डॉलर से ही तय क्यों होनी चाहिये!

1 टिप्पणी:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.