यह तब की बात है जब होली के रंगों में धूल, कीचड़, गाड़ियों से निकला हुआ काला मोबाइल ऑयल और अन्य विषाक्त रसायनों को सम्मिलित नहीं किया गया था । सीधे-साधे लोग किनारा करते गये और किसी प्रतिरोध के अभाव में रंग को बदरंग करने वाली इन चीजों ने होली के रंगों के बीच अपना आतंकपूर्ण स्थान बना लिया, ठीक उन अपराधियों की तरह जिन्होंने राजनीति में भी अपना आतंकपूर्ण स्थान बना लिया है । होली के अच्छे रंग इन बदरंगों से डरने लगे और हुड़दंगियों से भयभीत लोगों ने होली में रंग खेलने से स्वयं को विरत कर लिया, ठीक राजनीति में रुचि रखने वाले उन अच्छे लोगों की तरह जिन्होंने अपराधी राजनीतिज्ञों के भय से राजनीति से स्वयं को विरत कर लिया है । रमइया को विद्रोही बनाने वाले घटकों में गाँव में प्रवेश कर चुकी इस बदरंगी होली का भी एक स्थान है ।
उसे राजकपूर
की फ़िल्म श्री चारसौबीस का गाना “रमइया वस्तावइया मैंने दिल तुझको दिया” पसंद था और
प्रायः गुनगुनाया करता । धीरे-धीरे गाँव के लोग उसे रमइया वस्तावइया नाम से पुकारने
लगे । एक दिन उत्तर प्रदेश के गाँव से निकलकर रमइया वस्तावइया बम्बई गया तो फिर कभी
गाँव नहीं आ सका । यूपी के गाँवों में ऐसा भी होता है, एक भाई
यदि बाहर चला जाय तो दूसरा उसकी सम्पत्ति पर अधिकार कर लेता है और फिर उसे गाँव में
कभी झाँकने तक नहीं देता । यूँ, कुछ लोग झाँकने का प्रयास करते
भी हैं, किंतु वही जो लाठी-पोंगे का सामना करने से नहीं डरते
।
तेलुगु में
रमइया वस्तावइया का अर्थ है “राम तुम कब आओगे” । दिन, महीना,
साल बीतते गये पर रमइया वापस अपने गाँव नहीं जा सका । इस बीच बम्बई का
नाम बदलकर मुम्बई हो गया और धारावी पहले से और भी अधिक गंदी हो गयी । उसे गाँव की याद
आती तो सोचता, कितना कुछ बदल गया है, गाँव
में भी बहुत कुछ बदल गया होगा । क्या पता, अब बहुतों ने होली
खेलना ही बंद कर दिया हो! क्या पता, अब संवत भी बंद हो गयी हो!
दोपहर तक
रंग खेलने के बाद शाम को सभी लोग नहा-धोकर और नये कपड़े पहनकर गाँव में एक स्थान पर
एकत्र होते जहाँ उन पर कन्नौज का देशी इत्र और गुलाब-जल छिड़का जाता, और नारियल
के चूरे के साथ पान का बीड़ा भी दिया जाता । बच्चे भी उस दिन पान खाते, वह भी बड़े-बूढ़े लोगों के सामने ही, उस दिन कोई उन्हें
मना नहीं करता । यह सब चल रहा होता कि तभी काशी हिन्दूविश्वविद्यालय वाला पंचांग लेकर
पंडित जी प्रकट होते और फिर नवसंवत्सर की ज्योतिषीय भविष्यवाणी की जाती । इसके बाद
सभा विसर्जित होती और समानवय लोग एक-दूसरे के गले मिलते जबकि छोटे लोग अपने से बड़ों
के चरण-स्पर्श किया करते । यही परम्परा थी, पता नहीं अब भी होगी
या नहीं, कितना कुछ तो बदल गया है । इण्डिया के गाँवों में जो
थोड़ा-बहुत भारत हुआ करता था, शायद अब वह भी नहीं बचा होगा । कैसे
बचेगा! ब्रिटिश पराधीनता से स्वतंत्रता तो मिली पर स्वाधीनता नहीं मिल सकी । सच्चे
का मुँह काला, झूठे का चमकीला । मोतीहारी वाले मिसिर जी कहते
हैं – “घोर कलजुग आ गऽइल बा हो, साँची कहे बाला के यू-ट्यूब,
फ़ेसबुक, ट्विटर पर ताला लागि जाला आ ससुरा झुट्ठा
सिब्बलवा अदालत म आतंकी के पच्छ म बहस कऽरता त केहू थूकतो नइ खे”।
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