रविवार, 13 जुलाई 2025

दो कवितायें समसामयिक

 १. पहचान-क्रांति


सावन के महीने में
शिवमंदिर के सामने दमोह में
मांस की दुकान खोलने का विरोध करने पर
कार से कुचल कर मार डाला
अकील ने राकेश को ।

सावन के महीने में
दुकानदार ने
फलों के रस में थूका 
फिर ग्राहक को दे दिया ।

सावन के महीने में
हिंदू देवी-देवताओं के नाम पर खोले
उन्होंने अपने ढाबे
छिपाकर अपनी पहचान
बाँधकर हाथ में कलावा
लगाकर माथे पर तिलक
....यही तो अल-तकिया है
जो तुम्हें भोगना ही होगा ।

सावन के महीने में
योगी बाबा ने कहा
उजागर करनी होगी
अपनी सही पहचान
सुनकर
कूद पड़े धर्मनिरपेक्षवादी
कहने लगे
बाबा स्वतंत्रता का शत्रु है
समाज को बाँटता है
भाईचारे को समाप्त करता है
बाबा हटाओ, हमें मुख्यमंत्री वनाओ ! 

२.
छुआछूत-क्रांति

वरदान को अभिषाप मान बैठे
और अभिषाप को वरदान 
तुमने ब्राह्मणों को कोसा
मनुस्मृति को जलाया
सनातन धर्म को गालियाँ दीं
...कि इन्होंने बाँट दिया समाज ।
तुमने एक क्रांतिपथ बनाया
छुआछूत मिटाया ।
जो लोटा-डोर लेकर चला करते थे
सत्तू भी घर से ले जाया करते थे 
वे होटेल में भोजन करने लगे
जन्मदिन पर
एक-दूसरे का जूठा केक खाने लगे
एक साथ बैठने-सोने लगे
छुआछूत मिट गया
पर समाज में द्वेष बढ़ता ही रहा
संक्रामक रोग भी बढ़ते ही गये ।
लोग आधुनिक हो गये थे
इसलिये हर बात की उपेक्षा करते रहे 
फिर एक दिन आया कोरोना
उसने सिखाया
जीना है
तो एक-दूसरे से छह हाथ दूर रहो
होटेल से दूर रहो
बाजार के भोजन से दूर रहो
और
सबसे बड़ी सीख यह, कि
छुआछूत को सम्मान देते चलो ।

कोरोना की सीख सबने मानी
उन सामाजिक क्रांतिकारियों ने भी
जो नहीं मानते थे कुछ भी ।
फिर एक दिन कोरोना चला गया
हमने भी उसकी सीख को भुला दिया
अब एक बार फिर
आ गये कुछ लोग
देने हमें नयी सीख
बेचते हुये थूकभावित 
खाद्य-पेय पदार्थ ।
तुम उनका विरोध करते हो
कोरोना का विरोध क्यों नहीं किया ?
शल्यकक्ष में कभी
ओटी कल्चर का विरोध क्यों नहीं किया ?
हम जानते हैं
तुम नहीं सुधरोगे 
जब तक कोड़ा न पड़े कोरोना का
तुम आधुनिक बने रहोगे
पत्थर से सिर टकराते रहोगे  ।

आओ! पुरानी पगडंडियाँ खोजें
उन्हें फिर से व्यवहारयोग्य बनायें ।

शनिवार, 12 जुलाई 2025

प्रगतिशीलता

बौद्धिक मोलस्काओ !

आओ, पट खोलो, बाहर झाँको

धूप को अत्याचारी कहकर

कब तक छिपे रहोगे 

अँधेरों के गले

कब तक चिपके रहोगे

दुनिया मार्क्स से पहले भी थी

आज भी है, आगे भी रहेगी ।

आज कार्ल मार्क्स नहीं हैं,

उनके गुरु फ़्रेडरिक हेगेल नहीं हैं

लेनिन, स्टालिन और माओजेदांग भी नहीं हैं

पर तुम हो, हम हैं ...और हैं ऊबड़-खाबड़ पथ ।

दशरथ माँझी ने चीर कर पर्वत का वक्ष

बना दिया सुपथ

और मड़ियम हिड़मा ने

ले लिये प्राण

न जाने कितने निर्दोषों के

यह कैसी प्रगतिशीलता है!

यह कैसी क्रांति है!

जो पथ नहीं बनाती, बस प्राण लेती है । 

 

स्वतंत्रता कितनी स्वतंत्र

             स्वतंत्रता जब देश की शांति और सर्वहारा की प्रगति के लिये बाधक बन जाय तो ऐसी स्वतंत्रता पर कठोर अंकुश की आवश्यकता होती है अन्यथा उसके कारण होने वाले विप्लव और विध्वंस को रोका नहीं जा सकता । इसकी गम्भीरता को रेखांकित करता यह कथन विचारणीय है –

“अभिव्यक्ति को मर्यादित और अनुशासित होना ही चाहिये, स्वतंत्रता की रक्षा के लिये इन स्थितियों का होना अपरिहार्य है अन्यथा निरंकुश और स्वेच्छाचारी अभिव्यक्ति सुव्यवस्था और शांति के लिये अभिषाप हो जाती है । सत्ता और उसके तंत्र को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि नागरिकों की शांति भंग न हो और समाज बहुमुखी विकास की ओर निर्बाध अग्रसर होता रहे” । – मोतीहारी वाले मिसिर जी

प्रेम, छल और राक्षस

कुर्बानी के लिये लाये गये पशु से किये जाने वाले पारम्परिक प्रेम में कितना प्रेम है और कितना छल, यह जानना उस मानसिकता को समझने के लिये आवश्यक है जो उन्हें भारत से तो प्रेम करने के लिए प्रेरित करता है पर भारत माता की जय बोलने और भारतीय संस्कृति को धर्मविरुद्ध मानता है । यह वही मानसिकता है जो दुनिया भर में लूट-पाट, राज्यारोहण, अनधिकृत भूविस्तार और अतिक्रमण के लिये कुख्यात रही है । जिनके लिये संविधान से ऊपर अपने पंथिक विचार और भारत से ऊपर फ़िलिस्तीन एवं पाकिस्तान हैं, वे भारत के लिये कितना उत्सर्ग कर सकेंगे इसका अनुमान लगा सकना कठिन नहीं है ।

किसी के समीप आने के दो उद्देश्य हो सकते हैं – एक है भौतिक उपभोगिता का लक्ष्य और दूसरा है उत्सर्गमूलक प्रेम ।

शक, हूण, यवन से लेकर फिरंगियों और फिर तुर्कों, अरबों और मंगोलों तक हर कोई भारत के समीप आया, उनका लक्ष्य भारत से प्रेम करना नहीं प्रत्युत भारत की सम्पदा का उपभोग करना था । आज जो लोग प्रगतिवाद, धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता की आड़ में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों और सभ्यता पर निरंतर प्रहार पर प्रहार करते जा रहे हैं वे भारत से कितना प्रेम करते हैं इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । वास्तव में ये लोग उन तुर्कों, मंगोलों और यूरोपियंस से भी अधिक घातक और छली हैं जिन्होंने हमें पराधीन किया । वे सब शत्रु के रूप में आये, मित्र के रूप में नहीं । उन्होंने छल से आक्रमण तो किये पर मित्रता और प्रेम के मिथ्या प्रदर्शन नहीं किये । 

माइक लेकर चीखने वाले जो अतिबुद्धिजीवी और नेता भारतीय संस्कृति और सभ्यता का विरोध करते नहीं थकते और अरबी सभ्यता एवं चीनी सत्ता के प्रशंसक हैं वे भारत से कितना प्रेम कर सकते हैं, विचार करके देखियेगा ।

राक्षस के लक्षण – बहुलता (संख्यावृद्धि में क्षिप्रता एवं दक्षता), क्षिप्र उपस्थिति, रक्त एवं मांसप्रियता, रूपपरिवर्तन की क्षमता (Mutation), आक्रामकता, अवसरवादिता, विखण्डन (Division), विघटन (Disintegration), अंधकार प्रियता और छिपने में दक्षता आदि लक्षणों से राक्षस को पहचाना जा सकता है । इनमें विषाणु, जीवाणु, फंगस और रावण से लेकर हर विध्वंसक जीव को सम्मिलित किया जा सकता है ...तदैव पहचान होते ही उनसे अपनी अपनी सुरक्षा का उपाय भी कर लेना चाहिये ।