बौद्धिक
मोलस्काओ !
आओ, पट खोलो, बाहर झाँको
धूप को
अत्याचारी कहकर
कब तक छिपे
रहोगे
अँधेरों के
गले
कब तक चिपके
रहोगे
दुनिया
मार्क्स से पहले भी थी
आज भी है, आगे भी
रहेगी ।
आज कार्ल
मार्क्स नहीं हैं,
उनके गुरु
फ़्रेडरिक हेगेल नहीं हैं
लेनिन, स्टालिन और
माओजेदांग भी नहीं हैं
पर तुम हो, हम हैं
...और हैं ऊबड़-खाबड़ पथ ।
दशरथ माँझी
ने चीर कर पर्वत का वक्ष
बना दिया
सुपथ
और मड़ियम
हिड़मा ने
ले लिये
प्राण
न जाने
कितने निर्दोषों के
यह कैसी
प्रगतिशीलता है!
यह कैसी
क्रांति है!
जो पथ नहीं
बनाती, बस प्राण लेती है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.