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गुरुवार, 30 जून 2022

 क्या युद्धों के बिना काम नहीं चल सकता?

युद्ध सत्ता की आवश्यकता है, सत्ता दबंगों की आवश्यकता है। सत्ता के लिए दबंग आपस में विवाद करते हैं और अपने अनुयायियों को आपस में रक्तपात के लिए विवश कर देते हैं। आम आदमी के बीच से आया सैनिक युद्ध में मारा जाता है और विजयश्री दबंग के नाम लिख दी जाती है।

युद्ध वर्चस्व और सत्ता का माध्यम है। संकुचित और असहिष्णु विचारधाराएँ इसे और भी उग्र बना देती हैं। वर्चस्व प्राप्ति के सभी अनुचित उपायों को न्यायसंगत ठहराने के लिए बंधनों और हठों की कुछ कठोर दीवारें बना दी जाती हैं जिन्हें धर्म कहा जाने लगा जबकि उनमें धर्म जैसा कुछ भी नहीं होता। सत्ता का हथियार बनने वाली जनता के बीच बड़ी धूर्ततापूर्वक यह प्रचार किया जाता है कि सभी धर्म शांति और प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं। किसी ने कभी नहीं पूछा कि तब इन धर्मों में वह क्या होता है जो एक धर्मानुयायी को दूसरे धर्मानुयायियों की क्रूरतापूर्वक हत्या के लिए संकल्पित और उत्तेजित कर देता है

कई महाद्वीपों में जब मनुष्यकृत धर्म नहीं थे और कबीलों में विभक्त समाज की अपनी-अपनी परम्पराएँ थीं तब उन सभी पर एक साथ शासन कर पाना दुष्कर था। उन्हें धर्म की मालाएँ पहनायीं गयीं, और एक मंच पर लाने का प्रयास किया गया। कई समुदायों पर शासन करने का यह तरीका वर्चस्वप्रिय दबंगों में बहुत लोकप्रिय हुआ।

जिन्हें धर्म कहा जाता है वे प्रायः एशिया में गढ़े जाते रहे और योरोप, अमेरिका एवं अफ़्रीकी देशों में फैलाये जाते रहे। जहाँ तपती हुयी रेत थी, जहाँ कुछ उपजाया नहीं जा सकता था, वहाँ धर्म की खेती की जाने लगी। एक, दो, तीन, चार....एक के बाद एक कई धर्मों की फसलें उपजायी जाने लगीं।

जब मनुष्यकृत धर्म नहीं थे तब युद्ध के लिए सेना का गठन भी इतना आसान नहीं था। धर्मों के गढ़े जाने के बाद कोई भी उन्मादी सैनिक बन कर सत्ता के लिए स्वेच्छा से हथियार बन जाता है। मध्यकाल में बहुत से युद्ध इसी तरह लड़े और जीते जाते रहे। लूटमार से प्राप्त धन का एक हिस्सा सैनिकों का वेतन होता था और लूटी गयीं स्त्रियाँ उनके भोग का साधन। धर्म के नाम पर यह सब होता रहा। मध्यकाल को दोहराये जाने की तड़प फिर से दिखायी देने लगी है।  मनुष्यकृत धर्म वास्तव में अफीम है जिसका नशा आदमी को क्रूर और हत्यारा बना देता है। मैं ऐसे किसी भी धर्म को स्वीकार नहीं कर सकता जिसका नामकरण तुमने किया है। धर्म न तो स्वीकार किया जा सकता है और न अस्वीकार।

मैं जब भी नदी के पास गया मैंने उसे सात्विक और धार्मिक पाया। हिमाच्छादित पर्वत शिखर, सुवासित हवा, विविध वृक्ष, बुग्यालों में उगी हरी घास, चहचहाते हुये पक्षी, बछड़े को जन्म देती हुयी गाय... सबको मैंने सात्विक और धार्मिक पाया है। मैंने उन सबसे पूछा तुम सब इतने शांत, आकर्षक और रचनाशील हो, तुम्हारा धर्म क्या है, मुझे भी बताओ। वे सब कुछ नहीं बोले, मुस्करा भर दिए।   

बुधवार, 17 नवंबर 2010

फतवे से आगे की मधुशाला........

आज देव उठानी का पर्व है और बकरीद भी .....
सभी को मंगलकामनाओं के साथ शुरू करते हैं उत्तर मधुशाला का वह भाग जो लखनऊ के काजी साहब नें मधुशाला के ख़िलाफ़ फ़तवा ज़ारी करके मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया ......उन्हें तहे दिल से शुक्रिया ....बड़ी विनम्रता के साथ समर्पित हैं काजी साहब को ये रुबाइयां -

सभी धर्म ग्रंथों को जीकर  
सार सुनाती मधुशाला /
फ़तवा वही सुनाते जिनको 
समझ न आती "मधुशाला" // २१

बाह्य कलेवर में भटका जो 
पी न सकेगा वो हाला /
भीतर नेक उतर जो देखे 
पा जाएगा "मधुशाला" // २२

धर्म-धर्म की रट करते सब 
मर्म समझ ना कोई पाया /
कर्म संभालो अपने-अपने,
होगी मधुमय कड़वी हाला // २३

छोडो कटु  भाषा फ़तवे की
बोलो   प्रेम पगी भाषा /
खुली नज़र से देखो तो जग 
चलती-फिरती मधुशाला // २४

टूटा मन , ले टूटी आशा 
जो भी आ जाए मधुशाला /
सबको अपने-अपने रंग की 
मिल ही जाती थोड़ी हाला // २५

पाखण्ड नहीं है यहाँ लेश भी 
भग्न हृदय हो, मन हो साँचा /
तनिक लीक से हटकर आओ /
तुम्हें बुलाती है मधुशाला // २६

मान मिला कब जग से हमको,
सदा ही तरसी है "मधुशाला" /
नफ़रत कर लो कितनी भी, पर
भूल सकोगे ना ये हाला // २७

कितने ही रंगों की हाला 
देख भ्रमित है पीने वाला /
सच्चे मन से खोजे जो भी 
पा जाता है असली हाला // 28