पार
करना था सागर
नापते
रहे पगडंडियाँ
सरिता
के तीर
जो
बनायी थीं कभी
सात
समन्दर पार के लोगों ने ।
हर
पगडंडी से
फूटती
जा रही हैं
कुछ और
पगडंडियाँ ।
हम
चुनते रहे बीज
रास्ते
के खरपतवारों से ।
झोली
भरती गयी
भार
बढ़ता गया
पैर
बोझिल होते गये
अब,
और चला
नहीं जाता ।
इस बीच
जो मिला
मुरझाता
गया
आते ही
हाथ में,
जो नहीं
मिला
वह था
आनन्द ।
मन
नहीं हो
सका कभी निर्मल
आनन्द
आता भी तो कैसे !
बीत गये
दिन,
वर्ष और युग...
नहीं
आया तो बस
एक
स्वर्णिम क्षण !
यात्रा
अभी शेष है ...
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जवाब देंहटाएंयात्रा कभी खत्म नहीं होती
जवाब देंहटाएंमन पर है आनंद - जो कभी पूरी तरह निर्मल नहीं होता
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-08-2017) को गये भगवान छुट्टी पर, कहाँ घंटा बजाते हो; चर्चामंच 2685 पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'