गुरुवार, 17 अगस्त 2017

सैनिक की शाम



थपक-थपक थपकियाँ
सुला रहीं हैं गा के आज
काल की लोरियाँ ।

सरहद पे शाम ना हुयी 
दर्द मुझको है यही
गली-गली में खिंच रहीं
ये सरहदें न मिट रहीं
हैं मिट रहीं जवानियाँ ।  

बस्तर के शाल वन में पावस
की शाम है सजी   
गा रही झड़ी-झड़ी
बूंद-बूंद नाचती   
छपर छपर छपकियाँ
सुना रही है लोरियाँ ।
जगे हैं साज पात से
बूंद के निपात से
बज उठे हैं कपोल
बूंद ने दीं थपकियाँ
थपक-थपक थपकियाँ ।  

आ भी जाओ प्रियतमा!
क्या ख़ूब है सजा समां
रह-रह के तड़तड़ा रहा
साज फिर सुना रहा
बूंद-बूंद रिस रहा
रक्त, बिद्ध देह से
धंसी हैं गात गोलियाँ
हो गयीं हैं सभी  
प्रस्थान की तैयारियाँ ।
थपक-थपक थपकियाँ
सुला रहीं हैं गा के आज
काल की लोरियाँ ।
  
पावस में थी खिली कली
अंक में भरी भरी 
याद आ रही हैं फिर  
कली की किलकारियाँ
किसी कली को कभी
न हों कोई दुश्वारियाँ
कि आऊँगा मैं बार बार
कहने वन्दे मातरम्
प्राणदायिनी धरा
देह धारिणी धरा
मातरम् मातरम्
वन्दे मातरम् ! 

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