भोजन, मैथुन,
वस्त्र और आवास की आवश्यकता की तीव्रता और इनकी उपलब्धि एवं वंचनाओं की अनुभूतियों
की सीमाओं को देखा है किसी ने !
चीखें
जब गूँजती हैं तो राष्ट्र की सीमायें उन्हें रोक नहीं पातीं । पीड़ा के सागर में जब
ज्वार उठता है तो सूखा तट भी सूखा नहीं रह पाता ।
आकाश की
तरह धरती भी असीमित होना चाहती थी पर नहीं हो सकी । राष्ट्र एक विश्व होना चाहता
था पर नहीं हो सका । धरती आकाश नहीं हो सकती, राष्ट्र भी विश्व नहीं हो सकता,
दोनों की अपनी-अपनी विवशतायें हैं ।
सीमित
को असीमित और असीमित को सीमित करने की अदम्य इच्छा ने कई रंगमंच सृजित कर दिये हैं
जहाँ असंख्य अंकों वाले नाटक खेले जा रहे हैं । चीनियों ने लाल वस्त्र-विन्यास में
और अरब ने हरे वस्त्र-विन्यास में सीमित को असीमित और असीमित को सीमित करने का
बीड़ा उठा लिया है ।
मध्य
एशिया में बारूद के विषाक्त धुंये के बीच नितम्बोदर नृत्य हो रहा है । नृत्य
व्यापक होता जा रहा है, मृत्यु का भी और लास्य का भी । ऐसी ही व्यापकता
देहमण्डियों में भी है... पीड़ा के अथाह सागर के बीच डूबता-उतराता लास्य नृत्य ।
देहमण्डियों
का पीड़ा सागर महासागरों से भी बड़ा है... राष्ट्रों की सभी सीमाओं से परे... व्यापक
।
कुछ
प्राणियों में रागकाम की अदम्य लालसा उन्हें क्रूर युद्ध में झोंक देती है । आनन्द
की प्राप्ति के लिये रक्त-संघर्ष का वरण... अद्भुत् है ।
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