कोई कुतरे दाँत से, कोई चबाये दाढ़ से.
कोई सूखे से पिए, और कोई खाए बाढ़ से.
कोई खुल के नोचते , कोई खसोटे आड़ से.
लूट चारो ओर है, क्यों डरना मारधाड़ से.
मेरे पिछले लेख- "मैं अधार्मिक और नास्तिक हूँ" पर दिल्ली से आनंदजी ने अपनी टिप्पणी में उच्च शिक्षितों द्वारा उत्कोच की परम्परा पर चिंता व्यक्त की थी. आनंद की चिंता ने हमारी शिक्षा व्यवस्था पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती. यह विचारणीय और चिंतनीय भी है कि जो विद्यार्थी कठिन परिश्रम से विद्याध्ययन करता है और भारतीय प्रशासनिक या राज्यप्रशासनिक सेवाओं की प्रतिष्ठापूर्ण कड़ी प्रतिस्पर्धा से होता हुआ .....जब सेवा में आता है तो उच्चाधिकारी बनते ही दोनों हाथों से देश को लूटने में लग जाता है. आखिर त्रुटि कहाँ रह गयी हमारी शिक्षा में ?आनंदजी का प्रश्न यही था.
यह तो तय है कि ये उच्चाधिकारीगण कुशाग्र बुद्धि के स्वामी होते हैं. तो क्या कुशाग्र बुद्धि का होना और विवेकशील होना दोनों भिन्न-भिन्न गुण हैं ? कम से कम मंत्रालय के किसी सचिव या सेना के किसी उच्चाधिकारी द्वारा आज अपनी उत्कोच-पिपासा का इस तरह किया जा रहा निर्लज्ज प्रदर्शन तो यही प्रमाणित करता है.
विचित्र लगता है यह संयोग .....उच्च शिक्षा, उच्च पद, निर्लज्जता की सीमाओं को लांघती धनलिप्सा, नैतिक पतन और सुसभ्य होने का भारी-भरकम लबादा. कहीं कोई ताल-मेल बैठता नहीं दिखाई देता. स्पष्ट है कि शिक्षा हमें इंसान बना पाने में सफल नहीं हो पा रही है.....नैतिक मूल्य स्थापित कर पाने में सफल नहीं हो पा रही है. यही तो समस्या है ...आधुनिक युग की विराट समस्या. किन्तु इस विराट समस्या से निपटने का किंचित भी प्रयास कहीं दिखाई नहीं देता. बल्कि इस समस्या को बढाने में ही लग गए हैं हम लोग.
अभी परीक्षाओं का मौसम चल रहा है. समाचार आ रहे हैं कि कुछ गाँवों में तो पालकों ने नक़ल कराने के लिए बाकायदा मोर्चाबंदी कर रखी है, प्रशासन पंगु है उनके सामने. ग्रामीणों की यह भीड़ हिंसक होती है, छापा मारने गए अधिकारियों के साथ मार-पीट करना आम होता जा रहा है . भारत गाँवों में बसता है ...और गाँवों में अनैतिकता की पराकाष्ठाएं देखने को मिल रही हैं. त्रुटि कहाँ है ...और कैसे रोका जाय इसे ?
वस्तुतः, अब हम विद्याध्ययन नहीं करते, ज्ञान की सूचनाएं भर एकत्र करते हैं ...परीक्षाओं में मूल्यांकन भी इन्हीं सूचनाओं का होता है, जीवन मूल्यों का नहीं. यह एक यंत्रवत प्रक्रिया है जिसके निश्चित लाभों की ओर सबका ध्यान लगा हुआ है. हमने जीवन को तो सीखा ही नहीं .....मूल्यों को तो सीखा ही नहीं ......हमारा लक्ष्य भी तो ज्ञानार्जन कर परमार्थ करना नहीं था. भौतिक उपलब्धियों के चुम्बक ने सबको खींच रखा है .....कोई इसके मोह से छूट नहीं पा रहा. ऐसा भी नहीं कि हमें अच्छे-बुरे का पता न हो .....सब कुछ पता है ..पर जो कुछ पता है उसमें दृढ़ता नहीं है ...आस्था नहीं है. जनरल सर्जरी के हमारे एक प्राध्यापक महोदय चेन स्मोकर थे, गले के कैंसर से उनकी इहलीला समाप्त हुयी. क्या उन्हें कुछ बताये जाने की आवश्यकता थी ? आस्था का संकट यहाँ भी था. सूचना थी पर आस्था नहीं थी, जो पढ़ा था उसमें निष्ठा नहीं थी.
तो हम कह सकते हैं कि आज का विकसित समाज संस्कारहीन है... और इसलिए हर अनैतिक व्यापार में लिप्त है. आज आप देखिये, लगभग हर पालक अपने बच्चों से अधिक से अधिक अंक लाने की अपेक्षा करता है और इसके लिए बच्चों पर कितना मानसिक दबाव पड़ता है यह बताने की आवश्यकता नहीं. हम बच्चों को बचपन से ही सब्जबाग दिखाना शुरू कर देते हैं .......हवाई किलों की ऊंची-ऊंची दीवारों में बच्चों का कोमल बचपन दफ़न हो जाता है. हमने कभी उन्हें मनुष्य बनने के लिए नहीं कहा.....जीवन के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं की. सहज आनंद के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं की.
.........तो हमने चाहा ही नहीं कभी कि हम एक अच्छे समाज की नीव डालें. परिणाम हमारे सामने है. निश्चित ही हमारी शिक्षा प्रणाली जितनी दोषपूर्ण है उससे कम दोषपूर्ण हमारी मानसिकता नहीं है.....बल्कि उससे कहीं अधिक ही है.
मैं प्रायः लोगों से कहता हूँ कि उच्च शिक्षा पा लेने पर भी हमें अपने जीवन के बारे में कुछ भी नहीं पता. हमें यह नहीं पता कि हमारी दिनचर्या...रात्रिचर्या कैसी हो, हम क्या खाएं क्या न खाएं, क्या करें क्या न करें. कुल मिलाकर जीवन के वास्तविक तत्व से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं हम.... और इसका परिणाम है विभिन्न शारीरिक और मानसिक व्याधियां. हम सब दवाइयों के सहारे जी रहे हैं ........जीवन को कैसे भी ढो रहे हैं ....बस ढोए चले जा रहे हैं. धन लूट रहे हैं - कहीं से भी ....कैसे भी. क्या करेंगे उस धन का जब डायबिटीज के कारण इतनी पाबंदियाँ लगी हुयी हैं ? भोजन को पचाने के लिए दवाइयों का सहारा, रात में नींद के लिए दवाइयों का सहारा ...सुबह मल विसर्जन के लिए फिर दवाइयों की शरण ? यह क्या है.... हम कैसा जीवन जी रहे हैं ? जी भी रहे हैं या केवल ढो रहे हैं ...क्यों ढो रहे हैं ....किसलिए ढो रहे हैं ...........पता ही नहीं....सब कुछ पता है पर यही नहीं पता. जो पता होना चाहिए उसे छोड़कर बाकी सब कुछ पता है. यहाँ पर हमें विकास, सभ्यता और संस्कृति की आधुनिक मान्यताओं पर फिर से विचार करना होगा. ...मंथन करना होगा.
सारांश यह कि हमें जीवन की अपनी प्राथमिकताएं सुनिश्चित करनी होंगी. लक्ष्य तय करना होगा. संचित सूचनाओं में दृढ आस्था उत्पन्न करनी होगी. विवेक तभी क्रियाशील हो पायेगा अन्यथा वह केवल सूचना भर रहेगा. धूम्रपान से कैंसर होता है, झूठ बोलना पाप है, हिंसा अनैतिक कृत्य है, शोषण निंदनीय है .....ये विवेकपूर्ण सूचनाएं पीढी-दर-पीढी हस्तांतरित होती रहेंगी ......और अर्थहीन उपदेशों की परम्परा यूँ ही चलती रहेगी .
और अब देखिये तथाकथित शिक्षितों की अनास्था का एक प्रचलित तर्क जिसे वे अपने अनैतिक कार्यों को सामाजिक स्वीकृति दिलाने के लिए देते हैं - -
उत्कोच की भी शक्ति देखो
पङ्गुं हि लङ्घयते गिरिं.
गैंग्रीन हो गयी सत्पथ गमन से
तब मैं क्यों वन्दहुं तं हरिं ?