मंगलवार, 29 मार्च 2011

आखिर त्रुटि कहाँ रह गयी.......



कोई कुतरे दाँत से, कोई चबाये दाढ़ से.
कोई सूखे से पिए, और कोई खाए बाढ़ से. 
कोई खुल के नोचते , कोई  खसोटे आड़ से. 
लूट चारो ओर है,  क्यों डरना मारधाड़ से. 



       मेरे पिछले लेख-  "मैं अधार्मिक और नास्तिक हूँ" पर दिल्ली से  आनंदजी ने अपनी टिप्पणी में उच्च शिक्षितों द्वारा उत्कोच की परम्परा पर चिंता व्यक्त की थी. आनंद की चिंता ने हमारी शिक्षा व्यवस्था पर एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती. यह विचारणीय और चिंतनीय भी है कि जो विद्यार्थी कठिन परिश्रम से विद्याध्ययन करता है और भारतीय प्रशासनिक या राज्यप्रशासनिक सेवाओं की प्रतिष्ठापूर्ण कड़ी प्रतिस्पर्धा से होता हुआ .....जब सेवा में आता है तो उच्चाधिकारी बनते ही दोनों हाथों से देश को लूटने में लग जाता है. आखिर त्रुटि कहाँ रह गयी हमारी शिक्षा में ?आनंदजी का प्रश्न ही था. 
     यह तो तय है कि ये उच्चाधिकारीगण कुशाग्र बुद्धि के स्वामी होते हैं. तो क्या कुशाग्र बुद्धि का होना और विवेकशील होना दोनों भिन्न-भिन्न गुण हैं ? कम से कम मंत्रालय के किसी सचिव या सेना के किसी उच्चाधिकारी द्वारा आज अपनी उत्कोच-पिपासा का इस तरह किया जा  रहा निर्लज्ज प्रदर्शन तो यही प्रमाणित करता है. 
       विचित्र लगता है यह संयोग .....उच्च शिक्षा, उच्च पद, निर्लज्जता की सीमाओं को लांघती धनलिप्सा, नैतिक पतन और सुसभ्य होने का भारी-भरकम लबादा. कहीं कोई ताल-मेल बैठता नहीं दिखाई देता. स्पष्ट है कि शिक्षा हमें इंसान बना पाने में सफल नहीं हो पा रही है.....नैतिक मूल्य स्थापित कर पाने में सफल नहीं हो पा रही है. यही तो समस्या है ...आधुनिक युग की विराट समस्या. किन्तु इस विराट समस्या से निपटने का किंचित भी प्रयास कहीं दिखाई नहीं देता. बल्कि इस समस्या को बढाने में ही लग गए हैं हम लोग. 
      अभी परीक्षाओं का मौसम चल रहा है. समाचार आ रहे हैं कि कुछ गाँवों में तो पालकों ने नक़ल कराने के लिए बाकायदा मोर्चाबंदी कर रखी है, प्रशासन पंगु है उनके सामने. ग्रामीणों की यह भीड़ हिंसक होती है, छापा मारने गए अधिकारियों के साथ मार-पीट करना आम होता जा रहा है . भारत गाँवों में बसता है ...और गाँवों में अनैतिकता की पराकाष्ठाएं देखने को मिल रही हैं. त्रुटि कहाँ है ...और कैसे रोका जाय इसे ?
      वस्तुतः, अब हम विद्याध्ययन नहीं करते, ज्ञान की सूचनाएं भर एकत्र करते हैं ...परीक्षाओं में मूल्यांकन भी इन्हीं सूचनाओं का होता है, जीवन मूल्यों का नहीं. यह एक यंत्रवत प्रक्रिया है जिसके निश्चित लाभों की ओर सबका ध्यान लगा हुआ है. हमने जीवन को तो सीखा ही नहीं .....मूल्यों को तो सीखा ही नहीं ......हमारा लक्ष्य भी तो ज्ञानार्जन कर परमार्थ करना नहीं था. भौतिक उपलब्धियों के चुम्बक ने सबको खींच रखा है .....कोई इसके मोह से छूट नहीं पा रहा. ऐसा भी नहीं कि हमें अच्छे-बुरे का पता न हो .....सब कुछ पता है ..पर जो कुछ पता है उसमें दृढ़ता नहीं है ...आस्था नहीं है. जनरल सर्जरी के हमारे एक प्राध्यापक महोदय चेन स्मोकर थे, गले के कैंसर से उनकी इहलीला समाप्त हुयी. क्या उन्हें कुछ बताये जाने की आवश्यकता थी ? आस्था का संकट यहाँ भी था. सूचना थी पर आस्था नहीं थी, जो पढ़ा था उसमें निष्ठा नहीं थी. 
     तो हम कह सकते हैं कि आज का विकसित समाज संस्कारहीन है... और इसलिए हर अनैतिक व्यापार में लिप्त है. आज आप देखिये, लगभग हर पालक अपने बच्चों से अधिक से अधिक अंक लाने की अपेक्षा करता है और इसके लिए बच्चों पर कितना मानसिक दबाव पड़ता है यह बताने की आवश्यकता नहीं. हम बच्चों को बचपन से ही सब्जबाग दिखाना शुरू कर देते हैं .......हवाई किलों की ऊंची-ऊंची दीवारों में बच्चों का कोमल बचपन दफ़न हो जाता है. हमने कभी उन्हें मनुष्य बनने के लिए नहीं कहा.....जीवन के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं की. सहज आनंद के बारे में कभी कोई चर्चा नहीं की. 
         .........तो हमने चाहा ही नहीं कभी कि हम एक अच्छे समाज की नीव डालें. परिणाम हमारे सामने है. निश्चित ही हमारी शिक्षा प्रणाली जितनी दोषपूर्ण है उससे कम दोषपूर्ण हमारी मानसिकता नहीं है.....बल्कि उससे कहीं अधिक ही है. 
      मैं प्रायः लोगों से कहता हूँ कि उच्च शिक्षा पा लेने पर भी हमें अपने जीवन के बारे में कुछ भी नहीं पता. हमें यह नहीं पता कि हमारी दिनचर्या...रात्रिचर्या कैसी हो, हम क्या खाएं क्या न खाएं, क्या करें क्या न करें. कुल मिलाकर जीवन के वास्तविक तत्व से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं हम.... और इसका परिणाम है विभिन्न शारीरिक और मानसिक व्याधियां. हम सब दवाइयों के सहारे जी रहे हैं ........जीवन को कैसे भी ढो रहे हैं ....बस ढोए चले जा रहे हैं. धन लूट रहे हैं - कहीं से भी ....कैसे भी. क्या करेंगे उस धन का जब डायबिटीज के कारण इतनी पाबंदियाँ लगी हुयी हैं ? भोजन को पचाने के लिए दवाइयों का सहारा, रात में नींद के लिए दवाइयों का सहारा  ...सुबह मल विसर्जन के लिए फिर दवाइयों की शरण ? यह क्या है.... हम कैसा जीवन जी रहे हैं ?  जी भी रहे हैं या केवल ढो रहे हैं  ...क्यों ढो रहे हैं ....किसलिए ढो रहे हैं  ...........पता ही नहीं....सब कुछ पता है पर यही नहीं पता. जो पता होना चाहिए उसे छोड़कर बाकी सब कुछ पता है.  यहाँ पर हमें विकास, सभ्यता और संस्कृति की आधुनिक मान्यताओं पर फिर से विचार करना होगा. ...मंथन करना होगा.
      सारांश यह कि हमें जीवन की अपनी प्राथमिकताएं सुनिश्चित करनी होंगी. लक्ष्य तय करना होगा. संचित सूचनाओं में दृढ आस्था उत्पन्न करनी होगी. विवेक तभी क्रियाशील हो पायेगा अन्यथा वह केवल सूचना भर रहेगा. धूम्रपान से कैंसर होता है, झूठ बोलना पाप है, हिंसा अनैतिक कृत्य है, शोषण निंदनीय है .....ये  विवेकपूर्ण सूचनाएं पीढी-दर-पीढी हस्तांतरित होती रहेंगी  ......और अर्थहीन उपदेशों की परम्परा यूँ ही चलती रहेगी . 
      और अब देखिये तथाकथित शिक्षितों की अनास्था का एक प्रचलित तर्क जिसे वे अपने अनैतिक कार्यों को सामाजिक स्वीकृति दिलाने के लिए देते हैं  - -

उत्कोच की भी शक्ति देखो
पङ्गुं हि लङ्घयते गिरिं.  
गैंग्रीन हो गयी सत्पथ गमन से 
तब मैं क्यों वन्दहुं  तं हरिं ?                              

सोमवार, 28 मार्च 2011

ब्लागिंग और साहित्य



        जंगल में किसी के घर बच्चा हुआ, शेर ने सुना तो ऐलान कर दिया कि बच्चे तो सिर्फ शेर के घर में ही पैदा हो सकते हैं और किसी को यह हक है ही नहीं. खबरिया ने कहा- हुज़ूर किसी नए प्राणी के रोने की आवाज़ तो हमने भी सुनी है. शेर ने स्पष्ट घोषणा कर दी  - किन्तु यदि किसी के घर कुछ पैदा हुआ भी है तो  न तो हम उसे  पैदा होने की श्रेणी में रख सकते हैं और न किसी प्राणी की श्रेणी में. जंगल के लोग हैरान-परेशान ....राजा ने तो हमारे अस्तित्व को ही नकार दिया है . कुछ लोगों ने भुनभुना कर कहा ..वाह ऐसा कैसे हो सकता है ! हम भी बच्चे पैदा कर सकते हैं , हमारी बच्चे पैदा करने की घटना को भी "प्रसव " की श्रेणी में लिया जाना चाहिए . और हमें  एक प्राणी की तरह सम्मान मिलना ही चाहिए . पूरे जंगल में अस्तित्व रक्षा का प्रश्न एक बड़ा इश्यू बन गया. 
      नया ज़माना .....नयी तकनीक ........नयी समस्याएं ....नए विमर्श..... नए अस्तित्व ...सब कुछ नया-नया. उठा-पटक चालू आहे. पुराने और नए में एक मौन संघर्ष छिड़ गया है. सुस्थापित और नवागत में स्थापना की ज़द्दोज़हद हो रही है. भारतीय रेल के तृतीय श्रेणी के डिब्बे में भीड़ है. रेल एक स्टेशन पर रुकती है. प्लेटफार्म पर जाने वालों की भीड़ है. बाहर वाले अन्दर घुसना चाहते हैं अन्दर वाले किसी को घुसने नहीं देना चाहते. उन्हें खीझ हो रही है यह रेल आखिर रुकती ही क्यों है कहीं, सीधे चली क्यों नहीं चलती. पर ऐसा संभव नहीं है इसलिए ज़द्दोज़हद चालू आहे.    
     इधर भी मंथन चालू आहे.  इस मंथन से निश्चित ही कुछ नया निकलने वाला है. और जो भी निकलेगा, अच्छा ही होगा. बात है साहित्य और ब्लागिंग की. किसका अस्तित्व है और  किसका नहीं ? कौन साहित्य है और कौन नहीं है ? और अंत में ब्लागिंग को साहित्य का दर्ज़ा दिलाने की ज़द्दोज़हद. शायद नेट न आया होता तो यह विमर्श भी न हुआ होता. तो हम कह सकते हैं कि नेट की सर्वसुलभता ने लेखन / बतकही के नए द्वार खोल दिए हैं. अब बात साहित्य की आ जाती है कि क्या बतकही को साहित्य माना जाय ? 
      एक समारोह में इसी से मिलता-जुलता एक प्रश्न किसी ने उठाया था, क्या क्षेत्रीय बोलियों को भाषा का दर्ज़ा दिया जा सकता है? 
   मेरा तो मत है कि ब्लोगिंग एक खुला रंग मंच है जहाँ  रंग कर्मी और दर्शक आमने-सामने होते हैं, जबकि साहित्य वह रजत पटल है जहाँ लेखक और पाठक के बीच एक निश्चित दूरी होती है. निश्चित ही, ब्लागिंग ......."एक स्तरीय ब्लागिंग" ........रंगमंच की तरह अपनी अलग कठिनाइयों और शर्तों के साथ जीती है. साहित्य की रचना और प्रस्तुतीकरण उतनी दुरूह तो नहीं पर व्ययसाध्य अवश्य है ....समय, बुद्धि, धैर्य, धन ...सबका व्यय. 
    पर यहाँ मेरा स्पष्ट संकेत इस ओर भी है कि रजत पटल को लगभग सारे अच्छे कलाकार रंगमंच से ही मिले  हैं. कारण सीधा सा है, रंग कर्मी को अपने प्रदर्शन में बहुत सावधान रहना होता है ..वहां रीटेक की कोई गुंजाइश नहीं. जो एक बार सामने आ गया वह बन्दूक की गोली की तरह अब वापस नहीं जाएगा. रजत पटल के लिए अभिनय करना रंगमंच के अभिनय की अपेक्षा सरल है. 
     खेत और खलिहान के बीच की लड़ाई को मैं एक व्यर्थ की लड़ाई मानता हूँ.  ब्लागिंग एक उर्वर खेत की तरह है जिसमें कुछ भी बोया जा सकता है ....यह बात अलग है कि जो बोया गया है वह कितना उपादेय और कालजयी है ? यहाँ जुताई-बोवाई और निराई-गुडाई से लेकर फसल की गहाई तक की व्यवस्था है. जो जैसा बोयेगा वह वैसा ही काटेगा. यहाँ अफीम की खेती भी है और गेहूं और गुलाब की भी. पर इतना तय है कि इस बदलते परिदृश्य में परिभाषाएं कुछ तो बदलेंगी ही. बदलते ज़माने के साथ लोगों ने समझौता किया और बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में राजनीति के रिहर्सल के लिए नए बछड़ों को छात्र-संघ के चुनाव में कुदा दिया गया. अब लोग सारे तिकड़म सीखकर राजनीति में कदम रखते हैं . अब उन्हें चुनाव के हथकंडों में कुछ भी नयापन नहीं लगता. कहीं ऐसा न हो कि आने वाले समय में साहित्य सृजन के अभिलाषियों को रिहर्सल के लिए पहले ब्लागिंग में उतरना पड़े. बहरहाल, ब्लागिंग को साहित्य के एक नए आयाम की उर्वर भूमि मानने में कोई हर्ज़ नहीं है. और आने वाले समय में इसी ब्लागिंग के खेत से कालजयी साहित्यकार जन्म लेने वाले हैं इसमें कोई संशय नहीं है.  
   चलते-चलते एक बात और, साहित्य सृजन का क्षेत्र भी अब खुली प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार हो गया है. ज़ाहिर है कि प्रतिस्पर्धाओं से गुणात्मकता में चार चाँद लगते ही हैं. प्राचीन भारतीय कालजयी साहित्य जब रचा गया तब .आम आदमी  की सहभागिता  वाला लोक साहित्य (उस ज़माने की ब्लागिंग कह सकते हैं आप) भी खूब प्रचलित था ....आज वैसा कालजयी साहित्य कहाँ मिलता है ! लोकगीत तो लगभग समाप्त ही हो गए हैं अब. कालजयी साहित्य को पोषण कहाँ से मिलेगा ? पर अब आज की आधुनिक ब्लागिंग से प्रकाश की एक किरण दिखाई दे रही है मुझे. शर्त यह है कि सर्जक अपनी भूमिका और प्राथमिकताएं तय कर अपनी श्रेष्ठता के साथ मैदान में उतरे.  

रविवार, 27 मार्च 2011

बह रही है आज भी वह धार ...




लौट जाओ 
बस यहीं होकर...... .
पर्वतों ने कर दिया उद्घोष


वे इस तरह अकड़े खड़े थे
गर्व से यूँ कह रहे थे 
रोक लूंगा मैं 
हवाओं की बहार
जाने न दूँगा
मैं किसी को पार.

मुस्कराई धरती 
धर दिया फिर चीर कर सीना 
अकड़ते पर्वतों का. 
झर-झरा कर झर पड़ी प्रेयसी ब्रह्माण्ड की 
और फिर झरने लगी एक 
प्रेम की सरिता..... 
चूर करती पर्वतों के गर्व को 
धकेलती..........बुहारती ..... 
प्रेम से वह पत्थरों को
बढ़ गयी ....बढ़ती गयी होकर 
वह पर्वतों से ...और भी आगे.
घमंडी पर्वतों के पार ..
बह रही है आज भी वह धार ...


सीख कर निर्बंध सरिता से सबक 
चूम कर उसके मुहाने को 
पवन ने भी राह पकड़ी 
चोटियों की 
हो गया फिर पार 
उठकर और भी ऊंचा 
प्रेम उसके संग ज़ो था ... 
रह गया पर्वत अकड़ता 
हो गया नीचा...और भी नीचा . 


गुरुवार, 24 मार्च 2011

मन तो कंटिया में उलझा था भगवान् कैसे मिलते ?


         स दिन न जाने कितनों को भगवान के दर्शन हो गए होंगे. कितना शुभ अवसर था ! पर मैं वंचित रह गया. ......हमेशा की तरह, पापी जो ठहरा .....मेरा मन तो दो कंटियों में उलझा हुआ था .....दिव्य उपदेश का प्रभाव पड़ता कैसे मन पर ? चंचल जो ठहरा.....विषय वासनाओं में उलझा हुआ .....और मन को भी उसी दिन उलझना था कंटियों में ....किसी और दिन नहीं उलझ सकता था . मुझे खीझ हुयी. लोग ठीक ही कहते हैं पक्का नास्तिक हूँ मैं ...मेरे जैसे प्राणी को मोक्ष नहीं मिल सकता कभी (सच्ची बात तो यह है कि मुझे मोक्ष के लिए फुरसत ही नहीं है अभी. मेरी सूची के हिसाब से मुझे अभी २-४ बार जन्म और लेना पडेगा ...तब निपट पायेंगें सारे काम. उसके बाद ही सोच पायेंगे मोक्ष के बारे में )   
     सामने सुसज्जित मंच पर आध्यात्मिक ज्ञान से सराबोर वक्ताओं ने अपने-अपने अनुभव सुनाये कि कैसे उन्हें ईश्वर प्राप्त हो चुका है ......और अब श्रोताओं को भी इस अवसर का लाभ उठा ही लेना चाहिए. बड़ा ही दिव्य वातावरण बन गया था . मैं आँख बंद किये उपदेश सुनने का प्रयास कर रहा था....पर आँखें बंद होकर भी कंटियों को ही देख रही थीं. ईश्वर को देख ही नहीं पा रही थीं. मैं कंटियों से जितना मन हटाने का प्रयास करता मन उतना ही उन्हीं में उलझता जाता. 
        हमारे शहर के सबसे बड़े आध्यात्मिक पुरुष द्वारा आयोजित ईश्वर-दर्शन के कार्यक्रम में मैं भी आमंत्रित था. बड़े ही उच्च विचार हैं उनके. स्वयं तो उन्हें ईश्वर की प्राप्ति हो चुकी है ...अब परोपकार की भावना से हम जैसे  अज्ञानी  लोगों के लिए भी प्रयास रत थे. चूंकि वे मेरे पड़ोसी हैं और उन्हें इसके लिए मेरे अहाते की आवश्यकता थी ......और प्रकाश के लिए बिजली के कनेक्शन की भी ...तो मुझे भी पड़ोसी धर्म निभाना ही था. पड़ोसी धर्म में उनके कार्यक्रम में शामिल होना भी शामिल था. पर न जाने क्यों अचानक आध्यात्मिक पुरुष ने बिजली हमारे यहाँ से न लेकर परम्परागत तरीके से लेना अधिक उचित समझा. और फिर जैसी कि हम धार्मिक लोगों की परम्परा है ...ऐसे कार्यक्रमों के लिए गली के खम्भे से गुजरते बिजली के तारों में कंटिया फंसाकर विद्युत् का उपभोग कर लिया जाता है ......उन्होंने भी परम्परा का निर्वाह किया. कार्यक्रम में पार्षद साहब भी मंचासीन थे. चोरी की बिजली के प्रकाश में आध्यात्मिक कार्यक्रम संपन्न होता रहा ...और मेरा पापी मन उन बेजुबान ...नाचीज़ सी कंटियों में उलझा रहा. 
       सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर प्रलय तक की आध्यात्मिक प्रक्रिया लोगों को बतायी गयी. आह्वान किया गया कि ईश्वर के दर्शन करने ...ज्ञान प्राप्त करने का अवसर आ चुका है, ज़ल्दी से कर लो....कहीं कोई चूक न हो जाए . कलयुग अपने चरम पर है .....विनाश लीला आसन्न है ..... ईश्वर अवतार ले चुके हैं ...प्रमाण में गीता के श्लोक का वाचन किया गया ...वही श्लोक जो महाभारत टी.वी. सीरियल की कृपा से भारत के बच्चे-बच्चे की ज़बान पर है ..."यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ....." 
         मुझे  ऐसा प्रतीत हुआ जैसे ईश्वर के दर्शन और चरम ज्ञान पाने वालों की अपेक्षा  दर्शन कराने और चरम ज्ञान प्रदान वाले लोग ज्यादा अधीर हो रहे हैं .....ज्ञान उनकी थैली में से जैसे छलका जा रहा था ......कोई पिपासु दिख ही नहीं रहा ......लेलो ..लेलो ...अरे कोई तो लेलो इस ज्ञान को ...देखो व्यर्थ ही छलका जा रहा है. हम तो पी चुके जितना पीना था ...अब आप लोग भी पी लो.  अरे मेरे पापी भाइयो और बहनों ......   ईश्वर का साक्षात कर लो .....मेरे पास है मार्ग ...बड़ी कठोर साधना से प्राप्त किया है इस मार्ग को .....आपलोगों के लिए ही तो कंटिया डालकर बिजली की चोरी करने का पाप भी कर रहे हैं ताकि इसके प्रकाश में परम प्रकाश भी प्राप्त हो जाय आप सबको. हाय-हाय कोई है ही नहीं क्या जो सत्य के इस छलकते प्रकाश को गपच ले और अपना जीवन धन्य कर ले. 
      उस भरे-पूरे पंडाल में बिजली का प्रकाश था .....लोग जैसे प्रकाश में नहाए जा रहे थे .....पंडाल वही था पर मेरे सामने तो अन्धेरा फैला था ...घोर अन्धेरा.  मुझे उन आध्यात्मिक लोगों के जीवन में प्रकाश की एक निर्मल किरण की तलाश थी जो मिल ही नहीं रही थी पता नहीं कहाँ खो गयी थी ....एक अदद किरण का सवाल था ....मगर वह गायब थी जैसे गधे के सर से सींग. मैं किससे पूछूं ....कहाँ जाऊं ....कहाँ खोजूं ...? .......छलकते हुए ज्ञान में प्रकाश की एक अदद किरण नहीं मिल पा रही थी. उफ ! ऐसी आध्यात्मिकता से तो अनाध्यात्मिकता ही भली ......शायद मैं एक बार फिर नास्तिक हो गया हूँ.   
      

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

मैं अधार्मिक और नास्तिक हूँ.



कुछ लोग, जिन्हें यह विश्वास है कि वे मुझे जानते हैं, यह बड़े विश्वास से कहते हैं कि मैं एक कुलीन ब्राह्मण कुलोत्पन्न होकर भी अधार्मिक और नास्तिक हूँ....इसलिए किसी कलंक से कम नहीं हूँ. मैं उनकी इस धारणा और विचारों पर मुस्कराता हूँ......और चुप रहता हूँ. कभी किसी ने मुझे धार्मिक स्थलों में जाते नहीं देखा ...कोई धार्मिक कर्मकांड करते नहीं देखा ....धार्मिक और आस्तिक होने के कोई लोकमान्य चिन्ह या लक्षण उन्हें मेरे अन्दर दिखाई नहीं दिए कभी........मैं इसीलिये चुप रहता हूँ और मुस्कराता हूँ .....प्रतिवाद नहीं करता कभी. पर मुझे लगता है कि धर्म जैसे धार्मिक, रोचक और विवादास्पद विषय पर सामूहिक चिंतन किया जाना चाहिए     
         "धर्म" ......आज के सन्दर्भों में कहा जाय तो एक बड़ा ही गरिमामय शब्द ...जो है तो प्रकाशवान पर किसी को  दिखाई कुछ नहीं पड़ता  .....या जो है तो भ्रमों का निदान पर जाने कैसे उसकी छत्र-छाया में ही पनपते रहते हैं भ्रमों के जाल  ....या भवसागर में तैरते जहाज के उस पंछी का एक मात्र आश्रय जो किसी और आश्रय की निरंतर खोज में है  . ....या एक लगाम जो पहले से सुनिश्चित मार्ग पर चलने को बाध्य करती तो है पर भटकने के भरपूर अवसरों से मुक्त भी नहीं  ......या एक ऐसा आचरण जो उपदेशों में प्रशस्त तो है पर जिसका पालन आवश्यक नहीं समझा जाता  ........या एक ऐसी आवश्यकता जो आवश्यक तो है पर पूरी होती नहीं कभी ........या एक ऐसा पवित्र ग्रन्थ जो सबके पास होना तो चाहिए पर पारायण आवश्यक नहीं समझा जाता ......या एक ऐसा अनुशासन जिसका कोई नियंत्रण नहीं है अपने अनुयायियों पर .....या एक ऐसा बंधन जिसने बाँट कर रख दिया है विश्व मानव को .... .या अहिंसा की पताका लिए हिंसा का कारण बनता एक आडम्बर............या एक ऐसा कारण जिसकी आड़ में लादे जा सकते हैं युद्ध .......या एक ऐसा भाव जो उन्माद भर देता है अच्छे-अच्छों में....या मानवीयता की आड़ में अमानवीयता का तांडव करने की एक सुविधा ..........
 ...तो अविवादित होते हुए भी विवादित हो गया है "धर्म" क्योंकि दावा तो समाधान का होता है पर हाथ आता है वितंडा. 
     वह धर्म निकृष्ट है ... यह धर्म श्रेष्ठ है, ...  उसको त्याग दो ...इसकी शरण में आ जाओ, ...वहाँ कष्ट ही कष्ट हैं ...यहाँ सुख ही सुख है,.....वहाँ विषमता है ....यहाँ समानता है, वहाँ दलित हैं ...यहाँ सब उच्च हैं, वहाँ अभाव है ...यहाँ भाव है .....बहुत से कारण हैं कि उस धर्म को त्याग कर इस धर्म को अपना लो. आनंद ही आनंद हो जाएगा.
     सच ही तो, क्या दिया हमें इस धर्म ने ? लोगों को विश्वास हो गया कि धर्मांतरण से हमारे कष्ट दूर हो जायेंगे ...समानता आ जायेगी......सम्मान बढ़ जाएगा. कुछ लोगों ने धर्म का परित्याग कर दिया ....परित्याग कर दिया उस धर्म का जिसका कभी पालन कर ही नहीं पाए वे. समझ ही नहीं पाए धर्म को . देख ही नहीं सके प्रकाश को ....दौड़ पड़े उसे पकड़ने के लिए जिसके बारे में कुछ भी सुनिश्चित नहीं था...जिसके बारे में कुछ भी पता नहीं था....अंधी गली में दौड़ पड़े प्रकाश की खोज में.    
     फिर एक दिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पहुंचा दलित ईसाईयों को आरक्षण दिए जाने  का प्रकरण. मुस्लिम दलितों की भी बात उठी. लोगों को यह स्मरण ही नहीं रहा कि इससे उठने के लिए ही तो किया था धर्मांतरण. समानता की बात मिथ्या थी. सम्मान की बात में छलावा था. धर्म त्यागने के बाद भी वह दलित ही बना रहा. अशिक्षा, निर्धनता, पाखण्ड, रूढ़ियाँ, किसी से भी मुक्ति नहीं मिल सकी .  भारत के न्यायालय ने यह नहीं पूछा कि जब दलित होकर ही आरक्षण चाहिए तो पहले वाले धर्म को त्यागने का क्या लाभ ? जिन कारणों से मुक्ति के लिए धर्म का परित्याग किया गया उनसे तो मुक्ति नहीं मिल सकी तो पहले वाले समाज की व्यवस्था का केवल लाभ लेने की आवश्यकता क्यों आ पडी ?  
     धर्म बदल गया पर धर्म की अंधेरी छाया बनी ही रही. प्रकाश नहीं मिला ..क्यों कि प्रकाश की खोज की ही नहीं गयी थी .....सुविधाओं की खोज की गयी थी, सम्मान की खोज की गयी थी...पर वह भी तो नहीं मिला...सही मार्ग और सही उपाय के अभाव में मिलता कैसे ? ....तो अब न्यायालय से याचना की जा रही है कि हमें आगे बढ़ने के लिए सुविधा चाहिए ....उस अधिकार के लिए माँग की जा रही है जिसे अपने हर नागरिक को उपलब्ध कराना शासन का उत्तरदायित्व तो है किन्तु जिसे वह पूरा नहीं कर सका. क्यों नहीं कर सका, यह कूटनीतिक व्यवस्था है. और फिर क्या केवल दलितों को ही आवश्यकता है मौलिक अधिकारों की ? अदलित वंचितों का क्या होगा ? भारत का हर असमर्थ अपने मौलिक अधिकारों से वंचित है. अदलित भी यदि असमर्थ है तो वंचित है...... तो अब इन अदलित असमर्थों की स्थिति और भी दयनीय है. क्योंकि इन्हें तो आरक्षण की सुविधा की पात्रता भी नहीं. 
      एक ओर कुछ दलितों की चिंता की जा रही है ...दूसरी ओर नए  दलितों की दूसरी फसल तैयार की जा रही है ...तो यह श्रंखला चलती रहेगी. और यह राजनीति की सामाजिक व्यवस्था है. धर्म का यहाँ कोई हस्तक्षेप नहीं....हो भी नहीं सकता ....क्योंकि धर्म तो व्यष्टि से समष्टि का आचरण है. इस आचरण के सुधर जाने पर कोई अभाव नहीं रहता. किन्तु इस धर्म को समझना होगा....इसके स्वरूप को समझना होगा. यह धर्म वह धर्म नहीं है जो अपने किसी नाम से जाना जाय. इसे अनाम ही रहने दिया जाय इसी में भलाई है....क्योंकि नाम विवाद का कारण बन जाता है. नाम एक सीमा रेखा खींच देता है....सीमा के उस पार कुछ नहीं का निषेध घोषित हो जाता है.
       जो धर्म परिवर्तन की बात करते हैं .....या इस उद्देश्य से प्रचार-प्रसार करते हैं .....और लोगों को प्रेरित करते हैं धर्म परिवर्तन के लिए वे पाखंडी हैं और पूरी तरह अधार्मिक हैं .यह मेरी स्पष्ट घोषणा है कि ऐसे लोग मानवता और राष्ट्र के शत्रु हैं. और ...जो एक धर्म का त्याग कर दूसरे धर्म को अपनाने जा रहे हैं वे धर्म के मर्म को समझ ही नहीं सके ...समझ पाते तो त्यागने और अपनाने की बात ही नहीं होती......धर्म के विषय में पूरी तरह भटके हुए लोग हैं ये ...इन्होंने तो धर्म को भौतिक उपलब्धियों का कोई चमत्कारी साधन भर मान लिया है. धर्म आचरण न होकर साधन हो गया है इनके लिए. इसलिए इनका धर्म अवसरवादी और अधार्मिक है. कोई कहता है, एक आयातित धर्म के बारे में कि इसको जानो ..इसको मानो ...इससे भारत की सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा ...क्योंकि यह दुनिया का सबसे अच्छा धर्म है. उन्हें नहीं मालूम कि उनका आयातित धर्म तो देशज है जो भारत के लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ हो ही नहीं सकता. 
      एक विद्यार्थी ने जिज्ञासा की - जब मनुष्य की मौलिक आवश्यकताएं कम-ओ-बेश एक समान हैं तो फिर धर्मों में इतनी भिन्नता क्यों? ...या फिर धर्म हमारी मौलिक आवश्यकता है ही नहीं ? ...यदि हम इसे सामाजिक आचार संहिता मानें तो एक ही समाज में रहने वाले सभी लोगों का आचरण एक ही संहिता से नियंत्रित क्यों न हो ? जब हम किसी धर्म विशेष में आस्था की बात करते हैं तो पृथकत्व भाव की बात करते हैं. और फिर यह आस्था आध्यात्म के प्रति होनी चाहिए न कि धर्म के प्रति ? 
     धर्म किसके लिए ? समाज और राष्ट्र के लिए या ईश्वर की प्राप्ति के लिए ? और यदि यह ईश्वर की प्राप्ति के लिए ही है तो फिर समाज और देश के आचरण के लिए क्या है जो लोगों को अन्दर से अनुशासित रख सके ?
     मुझे लगता है कि भोजन, वस्त्र, आवास आदि की तरह ही समाज और धर्म भी मनुष्य की मौलिक आवश्यकताएं हैं. भोजन, वस्त्र, आवास आदि की सबके लिए उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए समाज की ......और समाज की सुव्यवस्था के लिए धर्माचार की आवश्यकता होती है. इसलिए एक ही देश के विभिन्न समुदायों में धर्माचार की भिन्नता यदि सहिष्णुता से सुवासित नहीं है और अन्यों के जीवन को प्रभावित करने का कारण बनती है तो यह सामाजिक सुव्यवस्था के लिए घातक है. फिर शासन की बात आती है ....कि यदि समाज की सुव्यवस्था के लिए धर्म है तो शासन किसके प्रति उत्तरदायी है .....फिर उसका औचित्य ही क्या ? यहाँ यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि "धर्म" समाज के आत्मानुशासन के लिए उत्तरदायी है जबकि  "शासन" समाज की अन्य भौतिक आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायी है. शासन यदि शरीर है तो उसे आत्मा के लिए धर्म की आवश्यकता होगी. धर्म-विहीन राजनीति के कारण ही तो भ्रष्टाचार का कैंसर इस देश को खाए जा रहा है. सत्तासीन लोग यदि धर्माचरण करने वाले होते तो उनके आचरण विवादास्पद न होते. राजनीति पर धर्म का अंकुश न होने के कारण ही राजनीति दिशाविहीन है. यदि भारत का शासन सर्व कल्याणकारी व्यवस्था दे पाने में असफल रहा है तो उसके कारणों पर चिंतन किया जाना चाहिए. इस चिंतन की दिशा में यदि भारत के गौरवशाली अतीत की व्यवस्था के कारणों और भारतीय परिवेश को भी ध्यान में रखा जाय तो समाधान में सुविधा होगी. 
     धर्म एक अनिवार्य एवं समान सामाजिक और दैशिक आचरण है जबकि आध्यात्म नितांत वैयक्तिक चिंतन है .....वह आचरण नहीं है.....यह बात अलग है कि आध्यात्म से आचरण को संबल मिलता है. दुर्भाग्य से धर्म और आध्यात्म का फ्यूजन कर दिया गया है. लोग भ्रमित हो रहे हैं. आध्यात्म के स्थान पर धर्म में आस्था की बात कर रहे हैं जोकि है ही नहीं ..जो है वह कट्टरता है ..आस्था नहीं. 
    सामाजिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के कई प्रकार के सम्बन्ध अपने परिवेश में विकसित हुए हैं. आज हमारे सम्बन्ध मनुष्येतर प्राणियों, प्रकृति, पृथिवी और यहाँ तक कि ब्रह्माण्ड से और भी विस्तृत हुए   हैं.... इस विस्तार में संबंधों के नए आयाम विकसित हुए हैं. यही कारण है कि आज का मनुष्य कई प्रकार के आचरण करता है ....दूसरे शब्दों में कहें तो हर व्यक्ति एक साथ कई धर्मों के पालन का प्रयास करता देखा जाता है. एक धर्म तो वह जो मनुष्य मात्र के लिए अपरिहार्य है .....जिसमें भिन्नता हो ही नहीं सकती.....यह सार्वभौमिक मानव धर्म है ...सनातन है ..अपरिवर्तनीय है ...हर देश-काल के लिए समान है. करुणा, प्रेम, दया आदि उदात्त मानवीय आचरण इसी धर्म के अंतर्गत आते हैं. दूसरा धर्म देशज है जो किसी देश विशेष की परिस्थितिजन्य आवश्यकताओं के कारण प्रस्फुटित होकर विकसित होता है.  हिन्दू धर्म व उसके विभिन्न पंथ, इस्लाम धर्म व उसके विभिन्न पंथ, इसाई धर्म व उसके विभिन्न पंथ   आदि इसी प्रकार के देशज धर्म हैं. फिर इसके बाद की श्रेणी के धर्मों को लोग जान ही नहीं पाते ...या कहिये कि उसकी गंभीरता के प्रति उदासीन रहते हैं और बस अपनाए चले जाते हैं. ये आवश्यकतानुसार परिस्थितिजन्य विभिन्न अनाम धर्म हैं जिन्हें हम चाहे-अनचाहे बनाते-बिगाड़ते रहते हैं, अपनी आवश्यकता के अनुसार इनकी व्याख्या करते रहते हैं. धर्मों को लेकर जो टकराव या वैषम्यतायें हैं वे इसीलिये हैं कि लोगों ने देशज धर्म में अन्य वैयक्तिक धर्मों का फ्यूजन कर दिया है. वैयक्तिक धर्म में निजी स्वार्थों का सार होता है. राजनीति ने देशज धर्मों का सर्वाधिक अहित किया है. एक देश ....एक संस्कृति के लिए एकाधिक धर्म हो ही नहीं सकते..... होंगे तो उनके पालन की भिन्नताओं के कारण विवाद होंगे ..तनाव होंगे. भारत में कुछ विदेशी धर्मों ने आकर बड़ी गरिमा के साथ अपने धर्म के अस्तित्व को बनाए रखा किन्तु उन्हें भारत के देशज धर्माचार का पालन करना पडा. पारसी धर्म इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. धर्म को जब हम अपनी आध्यात्मिक आस्थाओं-मान्यताओं के साथ हठ पूर्वक जोड़ देते हैं और यह जुड़ाव असहिष्णुता की सीमा तक जा पहुँचता है तो टकराव स्वाभाविक है. इस टकराव में राजनीतिक स्वार्थों की भूमिका अहम् होती है. ऐसा धर्म जब राजनीतिज्ञों के हाथों की कठपुतली बन जाता है तो वह विकृत होकर उन्माद का चोला धारण करता है. 
       इजरायल और भारत विश्व के ऐसे अनूठे देश हैं जहां धर्मों का उद्भव, विकास, विकार और पतन का इतिहास रचा जाता रहा है. यदि हम इन देशों की भौतिक-भौगोलिक परिस्थितियों पर विचार करें तो इसके कारण स्पष्ट हो जायेंगे. रहन-सहन, वेशभूषा आदि पर इन परिस्थितियों का बहुत प्रभाव पड़ता है. पड़ना भी चाहिए क्योंकि ये स्थानीय आवश्यकताएं हैं उनकी ....पारिस्थितिक अनुकूलन के लिए स्थानीय साधनों...उपायों को अपनाया ही जाना चाहिए. पगड़ी कहीं के लिए आवश्यक हो सकती है पर हर स्थान के लिए नहीं. कहीं बड़े बाल रखने से परेशानी हो सकती है ..कहीं वे आवश्यक हो सकते हैं. सर्कमसीजन हर उस गर्म देश में होना ही चाहिए जहाँ स्नान के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं है .....ये हमारी भौतिक आवश्यकताएं हैं .....इनमें लचीलापन होना चाहिए. इन्हें रूढिगत प्रतीक बना लेने की आवश्यकता नहीं है . देश के अनुरूप आवश्यकताएं बदलती हैं तो इनमें परिवर्तन क्यों नहीं होना चाहिए ? और जिन्होंने विवेकपूर्वक इसे स्वीकार किया है वे अपेक्षाकृत अधिक सफल और सुखी हैं. क्या हमारे देश में इस प्रकार का वातावरण बनाने का कभी प्रयास किया गया कि धर्म के प्रतीकों को परिवर्तनशील बना देने से धर्म और भी सुविधाजनक और अनुकरणीय हो जाता है ? शायद नहीं. 
       तो यह लेख इसी मंथन के लिए है ..और मंथन के बाद एक क्रान्ति के लिए है. एक ऐसी क्राँति के  लिए जिसमें हर भ्रष्टाचारी को अधार्मिक घोषित कर समाज से बहिष्कृत किया जा सके और भ्रष्टाचार से अर्जित उसकी सम्पूर्ण चल-अचल सम्पति को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जा सके. भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा दंडनीय अपराध घोषित करवा सकने में जिस दिन सफल हो गए हम ...समझ लेना कि हम सब धार्मिक हो गए हैं.            

बुधवार, 16 मार्च 2011

आज जी है मेरा



आज होली में मैं कुछ बहकने लगा 
मन मेरा पल्लवी सा थिरकने लगा //
दोष मौसम का या पुष्प की गंध का 
अंग-अंग ही लता का महकने लगा //
लाँघ कर देहरी लाज की आज आँचल 
वक्ष पर उनके शिशु सा मचलने लगा //
जाने क्यों चल पड़ी आज पागल हवा 
कुछ फिसलने लगा कुछ धड़कने लगा //
कुछ निरंकुश हुआ कुछ हठीला हुआ 
उनका आँचल मुझे उड़के छूने लगा //
कनखियों से छुआ नेक सा ही तभी 
लाज का रंग उन पर बरसने लगा //
रंग का पर्व यह प्रेम का पर्व है
ऐसा अवसर कहाँ और मिल पायेगा //
गोरा तन हो न हो, मन है कोरा तेरा 
रंग लूँ जी भर तुझे, आज जी है मेरा //
तोड़ सीमा कहीं, कहीं बंध जाऊँगा 
साथ बंधन लिए कहीं उड़ जाऊँगा //
पंछी मन का मेरे, अब फुदकने लगा 
गीत चुपके से एक गुनगुनाने लगा //

मुझे पता है मैंने भाँग नहीं पी है ...पर सलिल भैया यही कहेंगे -" क्या बात है डाक्टर साहब ! अभिये से पी लिए हो का ....बुझाता के राउरे ऊपर कुल फागुन आ गइल बा ....डाक्टरे रहि ह भाई मरीज़ झं होइ ह " . 
हमेशा चुप रहने वाली हीर मुस्कराकर कहेंगी -"ਓਯ ਹੋ ਯ ......ਆਖਿਰ ਰੰਗ ਚੜ ਹੀ ਗਯਾ ...ਇਸ ਉਮਰ ਮੇਂ" ...अरे वही हीर जिनको मैं डिवाइन सॉन्ग "डायमंड" कहता हूँ . 
उधर मालिनी जी भी धीरे से बोलेंगी - " ક્યા બાત  હૈ ! આજ તો રંગ બિરંગે  લગ  રહે  હૈન  દાકતર  સાહબ "
. ..और फिर वेणु क्यों चुप रहने वाली, बोलेगी -" होता है बाबा ! फागुन है न !"
मगर मेरा सबके लिए एक ही ज़वाब है- "अरे भाई ! यह तो बहुत साल पहले लिखी थी... डायरी से पन्ना उड़के यहाँ आके चिपक गया तो मैं क्या करूँ !" 
होली की सभी को मंगल कामनाएं, हाँ ! पानी कम बहाइयेगा ...ऊ का है के भुइहाँ मं पनिया कम हो गइल बा.....आ जापान के बिस्फोट के गर्मी हईजो आ गइल बा ...त पनिया बचाए के चाहीं नू !      

रविवार, 13 मार्च 2011

गुलमोहर


मेरे खेत की मेड़ पर 
एकाकी ही खड़ा है 
गुलमोहर.
दूर से
बरबस ही खींचता हुआ सा...
आमंत्रण का 
सम्मोहन लिए.
मैंने सोचा
वहाँ होगी 
फूलों की लालिमा में बसी 
प्रीति
और.......... 
शीतल छाँव .
पर ....
अरे यह क्या ..?
गुलमोहर तो दहक रहा है
पत्तों का तो लेश भी नहीं
(शायद झुलस गए होंगे)
छाँव हो भी तो कहाँ से !
उसके नीचे तो बिछी हैं 
झड़े हुए अंगारों की चिंगारियाँ.
पर क्या करूँ अब ?
खिंचता हुआ 
आ तो गया हूँ 
यहाँ.......छलिया  के पास .
............................
प्रेम के छद्म आवरण में 
दहक रहा है गुलमोहर
और मैं 
झुलस रहा हूँ उसकी आँच में .
वापस जाऊँ भी तो कैसे ?
काश !
थोड़ी सी छाँव भी देते तुम 
ताकि तुम्हारे साए में बैठ 
निः शेष कर देता 
अपना सारा जीवन.  


मंगलवार, 8 मार्च 2011

क्या करूँ ?


दर्द के दरिया में मेरा, आशियाना है बना 
जाल ले आये मछेरे, इस हुस्न का अब क्या करूँ ?

हो गयीं दुश्मन रिवाजें, फिर ज़माने की मेरी 
आयतें ख़ुदगर्ज़ हैं, इनको पढ़ कर क्या करूँ ?

इन रिवाज़ों से तलाकें, ले के जी पाया है कौन 
पढ़ लिया कलमा तेरा, अब और पढ़ कर क्या करूँ ?  

इश्क तो हरदम कंवारा, क्या तिज़ारत का असर !       
एक लम्हां जी लिया, इस उम्र का अब क्या करूँ ?


काज़ल चुरा कर आँख से, वो पढ़ गए मेरी ग़ज़ल 
उठ चला लो मैं यहाँ से,ठहर कर अब क्या करूँ ?




मंगलवार, 1 मार्च 2011

समय



उलझी पहेली को सुलझाए 
कौन है जो मुझे राज बताये .

जग से तू या तुझसे जग ये 
ठहरा है या चलता जाये .

राग न माने द्वेष न जाने 
निष्ठुर है तू जग कहता ये  .

कभी तुझे हम ना पहचानें 
कभी हमें तू  ना पहचाने .


व्यापक फिर भी कितना दुर्लभ 
खोजूँ तो भी मिल ना पाए .

पल में मोहित पल में दुविधा
कैसा जादू तू दिखलाये .

कभी कहे मन तू रुक जाये 
कभी कहे तू ज़ल्दी जाये .

कभी बरस बीते कुछ क्षण में 
कभी कोई क्षण बीत न पाए .

कभी जनम तू कभी मरण तू 
कभी मिलन तू कभी विरह है .

कभी तू जय है कभी पराजय 
कभी दिवस तो कभी निशा है .

कभी अँधेरे में दीपक बन 
तू ही सबको राह दिखाए .