मेरे खेत की मेड़ पर
एकाकी ही खड़ा है
गुलमोहर.
दूर से
बरबस ही खींचता हुआ सा...
आमंत्रण का
सम्मोहन लिए.
मैंने सोचा
वहाँ होगी
फूलों की लालिमा में बसी
फूलों की लालिमा में बसी
प्रीति
और..........
शीतल छाँव .
पर ....
अरे यह क्या ..?
गुलमोहर तो दहक रहा है
पत्तों का तो लेश भी नहीं
(शायद झुलस गए होंगे)
छाँव हो भी तो कहाँ से !
उसके नीचे तो बिछी हैं
झड़े हुए अंगारों की चिंगारियाँ.
पर क्या करूँ अब ?
खिंचता हुआ
आ तो गया हूँ
आ तो गया हूँ
यहाँ.......छलिया के पास .
............................
............................
प्रेम के छद्म आवरण में
दहक रहा है गुलमोहर
और मैं
झुलस रहा हूँ उसकी आँच में .
वापस जाऊँ भी तो कैसे ?
काश !
थोड़ी सी छाँव भी देते तुम
ताकि तुम्हारे साए में बैठ
निः शेष कर देता
अपना सारा जीवन.
थोड़ी सी छाँव भी देते तुम
जवाब देंहटाएंताकि तुम्हारे साए में बैठ
निः शेष कर देता
अपना सारा जीवन.
बहुत सुन्दर ....गुलमोहर का पूरा दृश्य अंकित हो गया
छलिया .....?
जवाब देंहटाएं):
बड़े बेरहम होते हैं ये गुलमोहर .....
डॉक्टर साहब! आज तो सुर बदले बदले से हैं.....
):):
डॉक्टर साहब! आप तो दिल के डॉक्टर होते जा रहे हैं.. आपकी हर कविता दिल को छूती है और स्तब्ध कर देती हैं.. शब्दहीन!
जवाब देंहटाएंगुल्मोहर विषय को पकड़ कर कई सारी बातें बतियाती सुंदर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करने भाई कौशलेंद्र जी|
जवाब देंहटाएंBeautifully written !
जवाब देंहटाएंमेरे खेत की मेड़ पर
जवाब देंहटाएंएकाकी ही खड़ा है
गुलमोहर.
दूर से
बरबस ही खींचता हुआ सा...
आमंत्रण का
सम्मोहन लिए.....
सुन्दर प्रतीक ...भावनाओं का बहुत सुंदर चित्रण . ...
बधाई....
हमारे लगे कौनो शब्द नइखे लगा ता ही हमरे मन के भावना तू लिख देले बाड़ा ..
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