कुछ लोग, जिन्हें यह विश्वास है कि वे मुझे जानते हैं, यह बड़े विश्वास से कहते हैं कि मैं एक कुलीन ब्राह्मण कुलोत्पन्न होकर भी अधार्मिक और नास्तिक हूँ....इसलिए किसी कलंक से कम नहीं हूँ. मैं उनकी इस धारणा और विचारों पर मुस्कराता हूँ......और चुप रहता हूँ. कभी किसी ने मुझे धार्मिक स्थलों में जाते नहीं देखा ...कोई धार्मिक कर्मकांड करते नहीं देखा ....धार्मिक और आस्तिक होने के कोई लोकमान्य चिन्ह या लक्षण उन्हें मेरे अन्दर दिखाई नहीं दिए कभी........मैं इसीलिये चुप रहता हूँ और मुस्कराता हूँ .....प्रतिवाद नहीं करता कभी. पर मुझे लगता है कि धर्म जैसे धार्मिक, रोचक और विवादास्पद विषय पर सामूहिक चिंतन किया जाना चाहिए
"धर्म" ......आज के सन्दर्भों में कहा जाय तो एक बड़ा ही गरिमामय शब्द ...जो है तो प्रकाशवान पर किसी को दिखाई कुछ नहीं पड़ता .....या जो है तो भ्रमों का निदान पर जाने कैसे उसकी छत्र-छाया में ही पनपते रहते हैं भ्रमों के जाल ....या भवसागर में तैरते जहाज के उस पंछी का एक मात्र आश्रय जो किसी और आश्रय की निरंतर खोज में है . ....या एक लगाम जो पहले से सुनिश्चित मार्ग पर चलने को बाध्य करती तो है पर भटकने के भरपूर अवसरों से मुक्त भी नहीं ......या एक ऐसा आचरण जो उपदेशों में प्रशस्त तो है पर जिसका पालन आवश्यक नहीं समझा जाता ........या एक ऐसी आवश्यकता जो आवश्यक तो है पर पूरी होती नहीं कभी ........या एक ऐसा पवित्र ग्रन्थ जो सबके पास होना तो चाहिए पर पारायण आवश्यक नहीं समझा जाता ......या एक ऐसा अनुशासन जिसका कोई नियंत्रण नहीं है अपने अनुयायियों पर .....या एक ऐसा बंधन जिसने बाँट कर रख दिया है विश्व मानव को .... .या अहिंसा की पताका लिए हिंसा का कारण बनता एक आडम्बर............या एक ऐसा कारण जिसकी आड़ में लादे जा सकते हैं युद्ध .......या एक ऐसा भाव जो उन्माद भर देता है अच्छे-अच्छों में....या मानवीयता की आड़ में अमानवीयता का तांडव करने की एक सुविधा ..........
...तो अविवादित होते हुए भी विवादित हो गया है "धर्म" क्योंकि दावा तो समाधान का होता है पर हाथ आता है वितंडा.
वह धर्म निकृष्ट है ... यह धर्म श्रेष्ठ है, ... उसको त्याग दो ...इसकी शरण में आ जाओ, ...वहाँ कष्ट ही कष्ट हैं ...यहाँ सुख ही सुख है,.....वहाँ विषमता है ....यहाँ समानता है, वहाँ दलित हैं ...यहाँ सब उच्च हैं, वहाँ अभाव है ...यहाँ भाव है .....बहुत से कारण हैं कि उस धर्म को त्याग कर इस धर्म को अपना लो. आनंद ही आनंद हो जाएगा.
सच ही तो, क्या दिया हमें इस धर्म ने ? लोगों को विश्वास हो गया कि धर्मांतरण से हमारे कष्ट दूर हो जायेंगे ...समानता आ जायेगी......सम्मान बढ़ जाएगा. कुछ लोगों ने धर्म का परित्याग कर दिया ....परित्याग कर दिया उस धर्म का जिसका कभी पालन कर ही नहीं पाए वे. समझ ही नहीं पाए धर्म को . देख ही नहीं सके प्रकाश को ....दौड़ पड़े उसे पकड़ने के लिए जिसके बारे में कुछ भी सुनिश्चित नहीं था...जिसके बारे में कुछ भी पता नहीं था....अंधी गली में दौड़ पड़े प्रकाश की खोज में.
फिर एक दिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पहुंचा दलित ईसाईयों को आरक्षण दिए जाने का प्रकरण. मुस्लिम दलितों की भी बात उठी. लोगों को यह स्मरण ही नहीं रहा कि इससे उठने के लिए ही तो किया था धर्मांतरण. समानता की बात मिथ्या थी. सम्मान की बात में छलावा था. धर्म त्यागने के बाद भी वह दलित ही बना रहा. अशिक्षा, निर्धनता, पाखण्ड, रूढ़ियाँ, किसी से भी मुक्ति नहीं मिल सकी . भारत के न्यायालय ने यह नहीं पूछा कि जब दलित होकर ही आरक्षण चाहिए तो पहले वाले धर्म को त्यागने का क्या लाभ ? जिन कारणों से मुक्ति के लिए धर्म का परित्याग किया गया उनसे तो मुक्ति नहीं मिल सकी तो पहले वाले समाज की व्यवस्था का केवल लाभ लेने की आवश्यकता क्यों आ पडी ?
धर्म बदल गया पर धर्म की अंधेरी छाया बनी ही रही. प्रकाश नहीं मिला ..क्यों कि प्रकाश की खोज की ही नहीं गयी थी .....सुविधाओं की खोज की गयी थी, सम्मान की खोज की गयी थी...पर वह भी तो नहीं मिला...सही मार्ग और सही उपाय के अभाव में मिलता कैसे ? ....तो अब न्यायालय से याचना की जा रही है कि हमें आगे बढ़ने के लिए सुविधा चाहिए ....उस अधिकार के लिए माँग की जा रही है जिसे अपने हर नागरिक को उपलब्ध कराना शासन का उत्तरदायित्व तो है किन्तु जिसे वह पूरा नहीं कर सका. क्यों नहीं कर सका, यह कूटनीतिक व्यवस्था है. और फिर क्या केवल दलितों को ही आवश्यकता है मौलिक अधिकारों की ? अदलित वंचितों का क्या होगा ? भारत का हर असमर्थ अपने मौलिक अधिकारों से वंचित है. अदलित भी यदि असमर्थ है तो वंचित है...... तो अब इन अदलित असमर्थों की स्थिति और भी दयनीय है. क्योंकि इन्हें तो आरक्षण की सुविधा की पात्रता भी नहीं.
एक ओर कुछ दलितों की चिंता की जा रही है ...दूसरी ओर नए दलितों की दूसरी फसल तैयार की जा रही है ...तो यह श्रंखला चलती रहेगी. और यह राजनीति की सामाजिक व्यवस्था है. धर्म का यहाँ कोई हस्तक्षेप नहीं....हो भी नहीं सकता ....क्योंकि धर्म तो व्यष्टि से समष्टि का आचरण है. इस आचरण के सुधर जाने पर कोई अभाव नहीं रहता. किन्तु इस धर्म को समझना होगा....इसके स्वरूप को समझना होगा. यह धर्म वह धर्म नहीं है जो अपने किसी नाम से जाना जाय. इसे अनाम ही रहने दिया जाय इसी में भलाई है....क्योंकि नाम विवाद का कारण बन जाता है. नाम एक सीमा रेखा खींच देता है....सीमा के उस पार कुछ नहीं का निषेध घोषित हो जाता है.
जो धर्म परिवर्तन की बात करते हैं .....या इस उद्देश्य से प्रचार-प्रसार करते हैं .....और लोगों को प्रेरित करते हैं धर्म परिवर्तन के लिए वे पाखंडी हैं और पूरी तरह अधार्मिक हैं .यह मेरी स्पष्ट घोषणा है कि ऐसे लोग मानवता और राष्ट्र के शत्रु हैं. और ...जो एक धर्म का त्याग कर दूसरे धर्म को अपनाने जा रहे हैं वे धर्म के मर्म को समझ ही नहीं सके ...समझ पाते तो त्यागने और अपनाने की बात ही नहीं होती......धर्म के विषय में पूरी तरह भटके हुए लोग हैं ये ...इन्होंने तो धर्म को भौतिक उपलब्धियों का कोई चमत्कारी साधन भर मान लिया है. धर्म आचरण न होकर साधन हो गया है इनके लिए. इसलिए इनका धर्म अवसरवादी और अधार्मिक है. कोई कहता है, एक आयातित धर्म के बारे में कि इसको जानो ..इसको मानो ...इससे भारत की सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा ...क्योंकि यह दुनिया का सबसे अच्छा धर्म है. उन्हें नहीं मालूम कि उनका आयातित धर्म तो देशज है जो भारत के लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ हो ही नहीं सकता.
एक विद्यार्थी ने जिज्ञासा की - जब मनुष्य की मौलिक आवश्यकताएं कम-ओ-बेश एक समान हैं तो फिर धर्मों में इतनी भिन्नता क्यों? ...या फिर धर्म हमारी मौलिक आवश्यकता है ही नहीं ? ...यदि हम इसे सामाजिक आचार संहिता मानें तो एक ही समाज में रहने वाले सभी लोगों का आचरण एक ही संहिता से नियंत्रित क्यों न हो ? जब हम किसी धर्म विशेष में आस्था की बात करते हैं तो पृथकत्व भाव की बात करते हैं. और फिर यह आस्था आध्यात्म के प्रति होनी चाहिए न कि धर्म के प्रति ?
धर्म किसके लिए ? समाज और राष्ट्र के लिए या ईश्वर की प्राप्ति के लिए ? और यदि यह ईश्वर की प्राप्ति के लिए ही है तो फिर समाज और देश के आचरण के लिए क्या है जो लोगों को अन्दर से अनुशासित रख सके ?
मुझे लगता है कि भोजन, वस्त्र, आवास आदि की तरह ही समाज और धर्म भी मनुष्य की मौलिक आवश्यकताएं हैं. भोजन, वस्त्र, आवास आदि की सबके लिए उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए समाज की ......और समाज की सुव्यवस्था के लिए धर्माचार की आवश्यकता होती है. इसलिए एक ही देश के विभिन्न समुदायों में धर्माचार की भिन्नता यदि सहिष्णुता से सुवासित नहीं है और अन्यों के जीवन को प्रभावित करने का कारण बनती है तो यह सामाजिक सुव्यवस्था के लिए घातक है. फिर शासन की बात आती है ....कि यदि समाज की सुव्यवस्था के लिए धर्म है तो शासन किसके प्रति उत्तरदायी है .....फिर उसका औचित्य ही क्या ? यहाँ यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि "धर्म" समाज के आत्मानुशासन के लिए उत्तरदायी है जबकि "शासन" समाज की अन्य भौतिक आवश्यकताओं के प्रति उत्तरदायी है. शासन यदि शरीर है तो उसे आत्मा के लिए धर्म की आवश्यकता होगी. धर्म-विहीन राजनीति के कारण ही तो भ्रष्टाचार का कैंसर इस देश को खाए जा रहा है. सत्तासीन लोग यदि धर्माचरण करने वाले होते तो उनके आचरण विवादास्पद न होते. राजनीति पर धर्म का अंकुश न होने के कारण ही राजनीति दिशाविहीन है. यदि भारत का शासन सर्व कल्याणकारी व्यवस्था दे पाने में असफल रहा है तो उसके कारणों पर चिंतन किया जाना चाहिए. इस चिंतन की दिशा में यदि भारत के गौरवशाली अतीत की व्यवस्था के कारणों और भारतीय परिवेश को भी ध्यान में रखा जाय तो समाधान में सुविधा होगी.
धर्म एक अनिवार्य एवं समान सामाजिक और दैशिक आचरण है जबकि आध्यात्म नितांत वैयक्तिक चिंतन है .....वह आचरण नहीं है.....यह बात अलग है कि आध्यात्म से आचरण को संबल मिलता है. दुर्भाग्य से धर्म और आध्यात्म का फ्यूजन कर दिया गया है. लोग भ्रमित हो रहे हैं. आध्यात्म के स्थान पर धर्म में आस्था की बात कर रहे हैं जोकि है ही नहीं ..जो है वह कट्टरता है ..आस्था नहीं.
सामाजिक विकास के साथ-साथ मनुष्य के कई प्रकार के सम्बन्ध अपने परिवेश में विकसित हुए हैं. आज हमारे सम्बन्ध मनुष्येतर प्राणियों, प्रकृति, पृथिवी और यहाँ तक कि ब्रह्माण्ड से और भी विस्तृत हुए हैं.... इस विस्तार में संबंधों के नए आयाम विकसित हुए हैं. यही कारण है कि आज का मनुष्य कई प्रकार के आचरण करता है ....दूसरे शब्दों में कहें तो हर व्यक्ति एक साथ कई धर्मों के पालन का प्रयास करता देखा जाता है. एक धर्म तो वह जो मनुष्य मात्र के लिए अपरिहार्य है .....जिसमें भिन्नता हो ही नहीं सकती.....यह सार्वभौमिक मानव धर्म है ...सनातन है ..अपरिवर्तनीय है ...हर देश-काल के लिए समान है. करुणा, प्रेम, दया आदि उदात्त मानवीय आचरण इसी धर्म के अंतर्गत आते हैं. दूसरा धर्म देशज है जो किसी देश विशेष की परिस्थितिजन्य आवश्यकताओं के कारण प्रस्फुटित होकर विकसित होता है. हिन्दू धर्म व उसके विभिन्न पंथ, इस्लाम धर्म व उसके विभिन्न पंथ, इसाई धर्म व उसके विभिन्न पंथ आदि इसी प्रकार के देशज धर्म हैं. फिर इसके बाद की श्रेणी के धर्मों को लोग जान ही नहीं पाते ...या कहिये कि उसकी गंभीरता के प्रति उदासीन रहते हैं और बस अपनाए चले जाते हैं. ये आवश्यकतानुसार परिस्थितिजन्य विभिन्न अनाम धर्म हैं जिन्हें हम चाहे-अनचाहे बनाते-बिगाड़ते रहते हैं, अपनी आवश्यकता के अनुसार इनकी व्याख्या करते रहते हैं. धर्मों को लेकर जो टकराव या वैषम्यतायें हैं वे इसीलिये हैं कि लोगों ने देशज धर्म में अन्य वैयक्तिक धर्मों का फ्यूजन कर दिया है. वैयक्तिक धर्म में निजी स्वार्थों का सार होता है. राजनीति ने देशज धर्मों का सर्वाधिक अहित किया है. एक देश ....एक संस्कृति के लिए एकाधिक धर्म हो ही नहीं सकते..... होंगे तो उनके पालन की भिन्नताओं के कारण विवाद होंगे ..तनाव होंगे. भारत में कुछ विदेशी धर्मों ने आकर बड़ी गरिमा के साथ अपने धर्म के अस्तित्व को बनाए रखा किन्तु उन्हें भारत के देशज धर्माचार का पालन करना पडा. पारसी धर्म इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. धर्म को जब हम अपनी आध्यात्मिक आस्थाओं-मान्यताओं के साथ हठ पूर्वक जोड़ देते हैं और यह जुड़ाव असहिष्णुता की सीमा तक जा पहुँचता है तो टकराव स्वाभाविक है. इस टकराव में राजनीतिक स्वार्थों की भूमिका अहम् होती है. ऐसा धर्म जब राजनीतिज्ञों के हाथों की कठपुतली बन जाता है तो वह विकृत होकर उन्माद का चोला धारण करता है.
इजरायल और भारत विश्व के ऐसे अनूठे देश हैं जहां धर्मों का उद्भव, विकास, विकार और पतन का इतिहास रचा जाता रहा है. यदि हम इन देशों की भौतिक-भौगोलिक परिस्थितियों पर विचार करें तो इसके कारण स्पष्ट हो जायेंगे. रहन-सहन, वेशभूषा आदि पर इन परिस्थितियों का बहुत प्रभाव पड़ता है. पड़ना भी चाहिए क्योंकि ये स्थानीय आवश्यकताएं हैं उनकी ....पारिस्थितिक अनुकूलन के लिए स्थानीय साधनों...उपायों को अपनाया ही जाना चाहिए. पगड़ी कहीं के लिए आवश्यक हो सकती है पर हर स्थान के लिए नहीं. कहीं बड़े बाल रखने से परेशानी हो सकती है ..कहीं वे आवश्यक हो सकते हैं. सर्कमसीजन हर उस गर्म देश में होना ही चाहिए जहाँ स्नान के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं है .....ये हमारी भौतिक आवश्यकताएं हैं .....इनमें लचीलापन होना चाहिए. इन्हें रूढिगत प्रतीक बना लेने की आवश्यकता नहीं है . देश के अनुरूप आवश्यकताएं बदलती हैं तो इनमें परिवर्तन क्यों नहीं होना चाहिए ? और जिन्होंने विवेकपूर्वक इसे स्वीकार किया है वे अपेक्षाकृत अधिक सफल और सुखी हैं. क्या हमारे देश में इस प्रकार का वातावरण बनाने का कभी प्रयास किया गया कि धर्म के प्रतीकों को परिवर्तनशील बना देने से धर्म और भी सुविधाजनक और अनुकरणीय हो जाता है ? शायद नहीं.
तो यह लेख इसी मंथन के लिए है ..और मंथन के बाद एक क्रान्ति के लिए है. एक ऐसी क्राँति के लिए जिसमें हर भ्रष्टाचारी को अधार्मिक घोषित कर समाज से बहिष्कृत किया जा सके और भ्रष्टाचार से अर्जित उसकी सम्पूर्ण चल-अचल सम्पति को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित किया जा सके. भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा दंडनीय अपराध घोषित करवा सकने में जिस दिन सफल हो गए हम ...समझ लेना कि हम सब धार्मिक हो गए हैं.
दुर्भाग्य से धर्म और आध्यात्म का फ्यूजन कर दिया गया है. लोग भ्रमित हो रहे हैं. आध्यात्म के स्थान पर धर्म में आस्था की बात कर रहे हैं जोकि है ही नहीं ..जो है वह कट्टरता है ..आस्था नहीं. ...
जवाब देंहटाएंबहुत सही कहा आपने.
बहरहाल, हमारे राजनीतिज्ञों ने तो धर्म की व्याख्या ही बदल कर रख दी है...
अत्यंत तथ्यपरक एवं सारगर्भित लेख के लिये हार्दिक बधाई। !
कौशलेन्द्र जी, आपका यह वैचारिक लेख बहुत ही अर्थपूर्ण मुद्दों को समाहित किए हुए है। दुर्भाग्य यह है कि तथाकथित लोग केवल अपने भगवान, खुदा, God या ऐसे ही अन्य रूप को तो मानते हैं, लेकिन उनकी (भगवान) बात नहीं मानते। ऐसे वैचारिक लेख के लिए आपकी लेखनी और आपके साहस को नमन करता हूँ। आभार।
जवाब देंहटाएंआपको सपरिवार होली की हार्दिक शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंवाह सर। आपने बड़ा ही गहरा विश्लेषण किया है, एक-एक बात खोलकर रख दी है। धर्म शब्द आज सभी प्रकार के भ्रष्टाचार, दुराचार का जस्टीफिकेशन बन गया है। इसे उजागर करने की जरूरत है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सागरर्भित लेख है। आचरण सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। पर बात यहीं आकर रुक जाती है...
आज जो नेता जमीन से उठता है, वही कुछ साल बाद जाकर घोटालों में क्यों लिप्त हो जाता है? जो लड़का रोज 18-18 घंटे रटकर सिविल सर्विस की इम्तहान निकालता है, वही मौका पाकर नोट बटोरने में लग जाता है। कहाँ खोट है, किस स्तर पर कमी रह गई, इस पर भी विचार करने की ज़रूरत है...
- आनंद
शब्दों में ही मूल्यवान जीवन मकड़ी के जाले में फंसे कीट समान हाथ पैर मारते गुजर जाता है! यद्यपि हम बहुत कुछ जान चुके है, फिर भी मौलिक प्रश्न छूट जाता है कि मैं कौन हूँ? चाँद तारे तो अरबों वर्ष चलते चले आ रहे हैं, किन्तु मैं यद्यपि मरना नहीं चाहता, मैं क्यूँ १०० भी पार नहीं क्रर पाता? जानते हैं सब कि यहाँ खाली हाथ आना है और ख़ाली हाथ जाना है,,,इस धरा का धर्म है चलते ही जाना, कोई इसका साथ दे या नहीं,,,ये तब भी अकेले ही चलती थी जब ये आग का गोला ही थी और आज अनंत पशुओं के अतिरिक्त अरबों आदमियों का भार ढोती चल रही है भले ही वो किसी भी धर्म को मानते हों या नास्तिक ही क्यूँ न हो ...
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