शनिवार, 11 जून 2011

क्या करूँ ! सहन नहीं होता .....

 समाधान

बैठक के अध्यक्ष 
बहुत गंभीर दिखे .........
समस्या को 
जीवित बनाए रखने के उपायों पर.   
बैठक का नाम था 
"समस्या उन्मूलन" 

वादे

महत्वपूर्ण होते हैं 
केवल वे 
जो तोड़ दिए जाते हैं 
पूरा करने की 
शुरुआत किये बिना. 

ताकि परम्परा बनी रहे 

घर में 
मालिक की मौजूदगी में  
कोई शरीफ  
चोरी करे ...
झगड़ा करे ...
नंगा नाचे .....नगाड़े बजाये 
और मालिक को पता न चले 
यकीन मानो 
ऐसे मालिक को होना ही चाहिए 
भारत का प्रधानमंत्री    


राजनीति में 


ज़रूरी है 
समझौते करना 
पर कतई ज़रूरी नहीं है 
उन पर अमल करना.


शत्रु-मित्र


राजनीति में कोई शत्रु नहीं होता 
अर्थात मित्र होता है 
राजनीति में कोई मित्र नहीं होता 
अर्थात शत्रु होता हैं 
इन दोनों का अर्थ है 
कि राजनीति में 
कोई किसी का कुछ नहीं होता. 


लोकपाल बिल 


अन्ना के बिना ही 
बना लेंगे वे 
ताकि पलते रहें कुछ लोग 
'लोक' की आँखों में धूल झोंकते हुए .


सरकार 


पहले बाबा की आवभगत
फिर भगाने की जुगत
संग में भक्तों को चपत 
कितना प्रपंची है यह जगत ! 


जनता 


तमाशबीन है 
मामला संगीन है 
उसने कभी गवाही नहीं दी 
( देने के नाम पर वह सिर्फ वोट देती है  )
क्योंकि उसे 
किसी चमत्कार की उम्मीद है..






9 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार है सभी क्षणिकाएँ

    पहले बाबा की आवभगत
    फिर भगाने की जुगत
    संग में भक्तों को चपत
    कितना प्रपंची है यह जगत !

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  2. अभिव्यक्ति की शैली बिहारी तुल्य ... संक्षेप
    नहीं होता है अकारण विस्तार हृत भाव का.
    व्यंजक कटाक्षों की मिली हमको दूसरी खेप.

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  3. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  4. क्षण भर में गहरे कटाक्ष कर गए आप....आभार...

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  5. कटु यथार्थ पर आधारित बेहद धारदार एवं पैनी क्षणिकायें ! हर क्षणिका एक से बढ़ कर एक है ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  6. कौशलेन्द्र जी, अच्छी क्षणिकाएं जो मुझे याद दिला गयीं जब १३ वर्ष की आयु में 'ठंडी सड़क' के किनारे बैठ नैनीताल के ठहरे पानी में एक के बाद एक कंकड़ फेंके और उनसे उठती हुई तरंगों को निहारा... केंद्र-बिंदु से लहरे उठ चारों दिशाओं में वृत्ताकार रूप में कुछ दूर तक जा शांत हो जातीं थीं... पत्थर वजनी हो तो लहरें ऊंची उठती थी और उनकी पहुँच भी अधिक होती थी... और, यदि पत्थर चिकना हो और जोर से सतह को छूते हुए फेंका जाता तो वो कुछ दूर तक किसी तथाकथित योगी समान पानी में चलते प्रतीत होता था :)

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.