दूसरी कोपल कब फ़ूट गयी पता ही नहीं चला, उस समय तो मैं कोमल कोपल के स्पर्श की सुखद अनुभूति में डूबती उतराती रही थी। कोपलें बढ़ती गयीं, और उनके झूमने से जो सुखद बयार बही उसने मुझे एक मोहक स्वप्न लोक में पहुँचा दिया। सम्मोहित सी मैं स्वप्नलोक में भ्रमण करती रही ....दुनिया की रीति-नीति से भिज्ञ होकर भी अनभिज्ञ बनी रही और जब होश में आयी तब तक मैं खजूर से नीम हो चुकी थी। खजूर अब मुझसे खाया नहीं जाता और नीम मुझसे छोड़ा नहीं जाता। उफ़्फ़ ! जाने किस घड़ी में फूटी थी वह कोपल !
रीति है खजूर होने की ...नियति है नीम होने की। नारी की यह कथा किसी त्रासदी से कम है क्या ?
हाँ ! मैं इसे त्रासदी ही कहूँगी। क्यों न कहूँ ? माना कि मीठा है खजूर, पर तीक्ष्ण पत्तियों की चुभन ? इस चुभन को अपनी नियति कैसे मान लूँ .....क्यों मान लूँ मैं ? नीम होने में बुरायी ही क्या है जो उसकी छाँव को छोड़ दूँ ? नीम कड़ुवा है तो क्या, उसने कब बुरा चाहा है किसी का ?
बचपन से सुनती आयी थी, दृष्ट जगत के सारे व्यापार किसी स्वप्न से अधिक कुछ नहीं । मनीषियों के लिये जगत स्वप्न है और मेरे लिये मेरा स्वप्न ही मेरा जगत था । मेरे लिये तो मेरा स्वप्न भी अस्तित्ववान था पर उनके लिये ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या । इन दोनो बातों में अंतर होगा, वे दार्शनिक होंगे। पर मैं तो सांसारिक हूँ और मेरे लिये जो दर्शनीय था वही दृष्टव्य था, और जो दृष्टव्य था वही दर्शन था । मैं, मेरा स्वप्न और मेरा संसार सब एकाकार हो गये थे । इस दर्शन की अवहेलना कैसे कर पाती मैं ?
हाँ ! स्वप्न ही तो देखा था मैंने .....अंतर्जाल की आधुनिक आभासी दुनिया का स्वप्न । वह कविता बन कर आया था ...मुझे हौले से स्पर्श किया था। उसकी हर कविता उतरती चली गयी ...पहले मस्तिष्क में फिर हृदय में। कवितायें अभी भी वहीं बैठी हैं ....वहाँ से हटने का नाम ही नहीं लेतीं । एक दिन साहस किया मैने और उसके चिट्ठे पर एक टिप्पणी लिख अपना हाथ बढ़ा दिया आगे। हाथ बढ़ा तो टिप्पणियों का आदान-प्रदान भी प्रारम्भ हो गया ।
टिप्पणियों का आदान-प्रदान कब चिट्ठियों में रूपांतरित हो गया यह पता ही नहीं चला। अपने सुलझे हुये और उत्कृष्ट विचारों से निश्चल ने मेरे मन-मस्तिष्क में अपनी एक सौम्य और निश्छल छवि निर्मित कर ली थी। वैचारिक साम्यता की नदी के प्रवाह में उतरने में समय नहीं लगा हमें । न जाने कब उसने विचारों की एक पोटली थमा दी थी मुझे। मैं अचम्भित थी ......सम्मोहित थी।
पोटली मुझे मथे जा रही थी ...मथे जा रही थी । विचार ऐसे भी हो सकते हैं ...इतने परिष्कृत .....इतने उदार ...इतने मधुर ...इतने आकर्षक ...इतने ऊर्जावान .....इतने सम्मोहक .......
विचारों की एक पोटली मेरे पास भी थी .....पहले से ही। बचपन से तिनका-तिनका संजोकर बनायी पोटली ससुराल में आकर और भी समृद्ध हो गयी थी.....किंतु कितना अंतर था इन दोनो पोटलियों में ! पहले वाली पोटली लेकर चलने में जो असुविधा थी वह इस नयी पोटली में नहीं थी। इसके साथ मैं मुक्त गगन में उड़ सकती थी ..वह भी अपने स्वयं के अस्तित्व को खोये बिना।
अस्तित्व ! दुनियादारी की सारी माया इसी अस्तित्व को ही लेकर तो है। सभी संघर्षों के मूल इसी अस्तित्व की रक्षा प्रक्रिया में समाये हुये हैं। परम्परा भी यही रही है कि मैं अपना अस्तित्व उनके अस्तित्व में विलीन कर दूँ। करने का प्रयास भी किया किंतु सुमित से विवाह के इतने वर्षों बाद उस दिन सुविधा-असुविधा की तुलनात्मक समीक्षा ने पहाड़ सी एक दुर्गम समस्या खड़ी कर दी थी ।
पता नहीं यह संयोग मेरा दुर्भाग्य था या सौभाग्य कि राष्ट्र और समाज की विकास प्रक्रिया में पुरुष की तरह मैं भी अपनी किंचित सहभागिता सुनिश्चित कर सकने में सफल हो सकी थी। किंतु इस सहभागिता के बाद भी मैं पुरुष की वर्चस्वपूर्ण मानसिकता की शिकार होने से स्वयं को बचा नहीं सकी कभी। सात फेरे लेकर भी मैं सुमित की अर्धांगिनी नहीं बन सकी ...सहचरी नहीं बन सकी । हाँ ! सम्पत्ति अवश्य बन सकी, सम्पत्ति ...जो भोग्या होती है और जिसका एक स्वामी होता है। मन में भोग्या होने का विचार आते ही अन्दर ही अन्दर पीड़ा की एक तीव्र लहर सी उठती थी और मैं पछाड़ खाकर गिर जाती थी । चोट लगती थी तो पीड़ा और भी बढ़ जाती थी ।
निश्चल ने पंख खोलना सिखाया था मुझे ......मैं उड़ना चाहती थी ...जानना चाहती थी कैसा लगता है मुक्त गगन में उड़ान भरते हुये। किंतु मायके से लायी हुयी पोटली को सुमित ने और भी भारी बना दिया था .....उससे मुक्ति कैसे हो पाती ?
मन जहाज के पंछी की तरह विकल था ...विवश था ...मुक्त होने का प्रयास करता था ...फिर वापस आ जाता था। मुझे अपना घूंघट थोड़ा ऊपर खीचना पड़ा । अब लैप-टॉप मेरे सामने था और मैं लैप-टॉप के की-बोर्ड पर अपनी उंगलियाँ रोक नहीं पा रही थी, उंगलियों ने आज्ञा का पालन करना प्रारम्भ किया -
दोपहरी में चढ़ी अटारी
मैं मन हारी
घोंप हृदय में एक कटारी
घूम रही हूँ ...घूम रही हूँ .....
चाँद दूर है सूर्य निकट है
शीतल छाया की आशा में
झुलस रही हूँ ...झुलस रही हूँ ....
उंगलियों ने बटन को दबाया और निश्चल को लिखी पहली चिट्ठी अंतर्जाल की माया ले उड़ी । अब उत्तर की प्रतीक्षा में विकल हो मैं अन्यमनस्क हो उठी थी। निश्चल कहीं अन्यथा न ले ले।
कई दिन हो गये, निश्चल का कोई उत्तर नहीं आया। मन में उठी व्यग्रता भी व्यग्र हो उठी। अब मुझे अपना चिट्ठी लिखना ही बचकाना सा लगने लगा था पर अब क्या हो सकता था, तीर तो छूट चुका था।
परम्परावादी पतिदेव को आधुनिक चीजें लेश भी अच्छी नहीं लगतीं, और मेरा लैप-टॉप तो जैसे उनका शत्रु ही था सो रात में उनके सोने के बाद ही उसे प्यार कर पाती थी। उस दिन जैसे ही खोला तो यंत्रजाल की पत्रमंजूषा में निश्चल के नाम की चिट्ठी देखकर मेरी तो जैसे धड़कन ही बढ़ गयी। खोलने का साहस नहीं हुआ। यंत्रपटल को आवृत कर उठ गयी । सोने का प्रयास किया पर आँखों में नींद कहाँ ? बहुत देर तक शय्या पर छटपटाने के बाद फिर उठ बैठी। पैर यंत्रवत लैप-टॉप की ओर बढ़ते चले गये, किसी तरह यंत्र के पट पुनः अनावृत किये और अंत में पत्रमंजूषा भी .....
की-बोर्ड पर क्लिक करते समय अचानक ही पलकों ने आँखों पर पहरा देना प्रारम्भ कर दिया था, किसी तरह पहरेदारों को भी मनाया । अब आँखें जो पढ़ पा रही थीं वह कुछ यूँ था-
चाँद चाँद है
सूर्य सूर्य है
दोनो के संग क्यों उलझन है ?
शीत-ताप
सब अटल सत्य है
जीवन का पल-पल स्वर्णिम है।
थमी हुयी श्वासों ने अपनी राह पकड़ी.....सशंकित हृदय ने अपनी स्वाभाविक गति पकड़ी...मन शांत हुआ और मैने ईश्वर को कोटि-कोटि धन्यवाद दिया कि निश्चल ने कुछ अन्यथा नहीं समझा।
बाद में मैने अनुभव किया कि इतना होने पर भी सब कुछ स्वाभाविक और सामान्य नहीं था। जहाज का पंछी एक निश्चित् दिशा में उड़ जाने के लिये व्यग्र होता जा रहा था। बचपन की पोटली को सिर से उतार फेकने के लिये मन बेचैन था ।
कॉलेज के दिनों में लड़कों को लेकर किसी भद्र लड़की की मानसिकता बड़ी विचित्र होती है। स्वयं के सजने-संवरने में तो कोई कमी नहीं होती, राह में कोई पलट कर देख ले तो मन "हुँह ....लफ़ंगा कहीं का" की उपाधि वाला एक प्रमाण पत्र देने में लेश भी देर नहीं करता। कोई न देखे तो मन उदास हो उठता है - "सजने-संवरने में इतना समय व्यर्थ ही जाया किया ...कोई देखता तक नहीं"
निश्चल के प्रति आज मेरा भी मन कुछ ऐसा ही हो रहा था- "अच्छा ! तो बड़े साधु बन रहे हैं आप ! किसी स्त्री के हृदय को इतना भी नहीं जान सकते कि वह चाहता क्या है ।"
मैंने अनुभव किया, शायद मैं बहकने लगी थी । मन तो संस्कारित था मेरा पर हृदय ....? वह किसकी मानता है भला ! उफ़्फ़ ! यह कैसा नाता बन गया था निश्चल जी आपसे मेरा । अंतर्जाल की आभासी दुनिया का नाता .....जो स्वयं में कतई आभासी नहीं है। सच ही तो... निश्चल के अस्तित्व ने मेरे मन-प्राण-हृदय को अन्दर तक प्रभावित कर दिया था इस सत्य की उपेक्षा मैं कैसे कर सकती थी भला !
और सुमित ? उनकी याद आते ही पीड़ा और भी गहरी हो उठती थी, रोने-रोने का मन हो आता था मेरा । एक सीधे-सादे किंतु परम्परावादी भद्र पुरुष । बौद्धिक प्रवीणता में निश्चल के सामने कहीं नहीं ठहरते पर इसमें दोष ही क्या उनका ?
तो क्या सुमित के प्रति मेरे प्यार और समर्पण में कुछ न्यूनता होने लगी थी ? क्या निश्चल के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ता जा रहा था ? ओह ! कितना उलझन भरा आत्मावलोकन था यह...कितना पीड़ादायक भी। सुमित! मेरे प्रिय सुमित ! मैं तुम्हें खोना नहीं चाहती ....। और निश्चल ? तुम तो मेरे स्वप्न हो निश्चल ! कोई अपने स्वप्न को कैसे टूट जाने देगा ?
नहीं ......मन का भटकाव है यह। ऐसी ही स्त्रियाँ तो व्यभिचारिणी हो जाती हैं। तो क्या व्यभिचारिणी होने के बीज अंकुरित हो रहे थे मेरे अन्दर। शायद हाँ , तभी तो मैने आज तक कभी निश्चल के बारे में बताया नहीं सुमित को । मुझे डर था कि वे हमारे इस अनाम रिश्ते को स्वीकृति नहीं देंगे कभी। तो क्या यह छल नहीं था ....अपने सर्वस्व से छल ?
अपनी उलझन मुझे संयोगिता के सामने रखनी पड़ी । पहले तो उसने निश्चल को लेकर खूब परिहास किया, जी भर रुलाने के बाद फिर सुझाव दिया, बोली -"पति परमेश्वर नहीं हो सकता रागिनी ! परमेश्वर तो सबका केवल एक ही है। तुम्हारा उत्तरदायित्व उसी परमपिता परमेश्वर के प्रति है । सुमित यदि स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों को केवल एक ही दृष्टि से देख पाते हैं तो उन्हें अपने अन्य किसी रिश्ते के बारे में बताने की आवश्यकता ही क्या है ?भले ही वह पवित्र रिश्ता ही क्यों न हो। अनावश्यक सन्देह तुम्हारे दाम्पत्य सम्बन्धों में आग लगाने के लिये पर्याप्त है। तुम्हें इतना छल करना ही होगा...और सच पूछो तो यह छल है भी नहीं रागिनी ! किसी पुरुष की पत्नी होने के अतिरिक्त क्या स्त्री का और कोई अस्तित्व नहीं होता ? पत्नी होने से पहले तुम एक स्त्री भी हो और तुम्हारा अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व भी है यह मत भूलो। जहाँ तक निश्चल के प्रति तुम्हारे आकर्षण की बात है तो इसमें बुरा ही क्या है ? दोष व्यभिचार में है ...किसी से प्यार करने में नहीं...और यह अच्छी तरह समझ लो कि प्यार "प्यार" होता है उसे व्यभिचार नहीं कहते। और प्यार सदा पवित्र ही होता है।"
विषाद के बादल उस समय तो छट गये पर उमड़-घुमड़ कर फिर आ गये। बचपन के दिये गये संस्कार गहरे होते हैं उनका प्रतिसंस्कार इतना सरल नहीं होता। यह एक प्रकार की शल्य चिकित्सा ही है जिसमें पुराने संस्कारों के स्थान पर नये संस्कार प्रत्यारोपित करने होते हैं, प्रत्यारोपण का पीड़ादायी होना स्वाभाविक है, उसका परिणाम कितना भी सुखद क्यों न हो।
व्यथित हो मैने एक बार फिर निश्चल को चिट्ठी लिख कर अंतर्जाल के हवाले कर दी। इस बार प्रश्न सीधा-सीधा था, मैने लिखा - "हम पिछले छह वर्षों से आपस में विचारों का आदान-प्रदान और पत्र-व्यवहार करते आ रहे हैं, यह बात अभी तक सुमित को नहीं मालूम । मुझे लगता है कि मैं सुमित से छल कर रही हूँ। अपने मन से इस बोझ को उतारना चाहती हूँ पर तब भय है कि मुझे आपको खोना पड़ेगा। ...और मैं आपको खो कर अपने अस्तित्व की हत्या नहीं करना चाहती। क्या करूँ कि पति के प्रति सच्ची निष्ठा भी बनी रहे और आपसे मेरा यह ख़ूबसूरत अनाम रिश्ता भी ?"
निश्चल ने इस बार देर नहीं की, तुरंत उत्तर दिया, -" रागिनी जी ! जहाँ सन्देह की स्थिति निर्मित होने की सम्भावना हो वहाँ आभासी दुनिया के अनाम सम्बन्धों की बलि देना ही श्रेयस्कर है।"
निश्चल ने वही उत्तर दिया था जो किसी सुलझे हुये व्यक्ति को देना चाहिये था। किंतु जब संयोगिता को बताया तो वह बिफर उठी, -"यह छद्मादर्श पुरुषवादी मानसिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं।"
सारी उठा-पटक के बाद भी अंतिम निर्णय मुझे ही करना था। चोर न होते हुये भी पुलिस से छिपते-फिरने की पीड़ा से मुक्ति पाना अब आवश्यक हो गया था मेरे लिये। निश्चल जी को मन ही मन अंतिम बार प्रणाम करते हुये मुझे स्त्री की हत्या के लिये विवश होना पड़ा था । सुमित, जो कि इस युद्ध में प्रत्यक्ष कहीं नहीं थे, जीत चुके थे और मैं सदा के लिये मर चुकी थी।