शनिवार, 7 जुलाई 2012

होकर भी नहीं है


बरगद
अभी भी है
वहीं
जिसकी छाँव में
बैठा करते थे सभी
कभी
    दशकों पहले

वह
और भी सयाना हो गया है
देख-सुनकर वैरागी हो गया है

बरगद
होकर भी नहीं है अब
उसकी छाँव में बैठने का समय
किसी के पास नहीं है अब

वह तो
जीते जी
किसी संत की समाधि बन गया है
क्या पता
कल वहाँ भी खुल जाय
कोई  नई दुकान

बरगद का
होकर भी नहीं होना
परिवार की नयी परिभाषा है
विकास का नया मापदण्ड है
   समाज का एक और विचलन है

आपकी
सारी बातें सच हैं
किंतु यह मान लेने में
क्या हर्ज़ है
कि हमारी आँखों का मोतियाबिन्द
     किसी शल्य चिकित्सक की प्रतीक्षा में है।



    

7 टिप्‍पणियां:

  1. क्या हर्ज़ है
    कि हमारी आँखों का मोतियाबिन्द
    किसी शल्य चिकित्सक की प्रतीक्षा में है।
    आपकी
    सारी बातें सच हैं

    सच को स्वीकार करना आसान नहीं होता |

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  2. कौशलेन्द्र भाई आपकी इस कविता को पढ़कर कल का एक वाकया प्रासंगिक लगा - शेयर करता हूं - कल शाम में कहीं घूमने का मन किया हमने कहा बॉटेनिकल गार्डेन चलते हैं। बच्चों ने पूछा, वहां क्या है? हमने बताया - बरसों पुराना बरगद।
    उसे देख कर क्या होगा -- उनका जवाब था।
    ***
    हम बोल बच्चन उसी बॉटेनिकल गार्डेन के पास के थिएटर में देख कर चले आए।
    ***
    ये बरगद का दर्द समझने वाली पीढ़ी नहीं है। इज़्ज़त कर ले वही बहुत है।
    ***
    बरगद के लिए एक शे’र तो बनता ही है ...
    दरख़्त के घने साए के नीचे मुझे लगा अक्सर
    कोई बुज़ुर्ग मिरे सर पर हाथ रखता है।

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    1. मनोज भइया जी! रउआ ठीक कहतनी। अपसंस्कृति के दौर चल रहल बा। अब बरगद के केहू ना पूछी, घर-घर मं कैक्टस लगाय के परचलन हो गइल बा।

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  3. हम्म.... बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती हुई कविता...

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  4. भैया कौशलेन्द्र सर्वप्रथम आप हमारी अनंत बधाइयाँ स्वीकारे क्योकि आज पहली बार मैं आप का ब्लॉग पढ़ रहा हू और ऐसा लगा जैसे मई अपने घर आ गया हूँ . ये कविता बड़ी बात है आई के परिवार और हालत पर एक करार छठा है . यश्वश्वी भाव.............

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.