सोमवार, 31 दिसंबर 2012

यौन अपराधियों के लिये वरदान है ये ढिठायी


जिस समय ठिठुरती दिल्ली की सड़कों पर दामिनी के साथ हुये कलंकाचरण के विरोध में निश्चेत सत्ता को सचेत करने स्वस्फूर्त जनसमूह का रक्त उबल रहा था ठीक उसी समय भारत के न जाने अन्य कितने भागों में वैसे ही कलंकाचार की कहानियाँ बहुगुणित हो रही थीं। यह घटना उत्तर-बस्तर जिले के आलोर ग्राम की है जहाँ एक आदिवासीमहिला सामूहिक दुष्कर्म की शिकार हुयी। इस घटना के कई दुःखद पक्ष हैं --- 1- आरोपियों में महिला के सगे देवर का सम्मिलित होना, 2- गाँव में सुशासन के लिये जनता का विश्वास जीतकर सुव्यवस्था बनाये रखने के उत्तरदायी सरपंच का दुष्कर्म में सहभागी होना, 3- निर्लज्जता और पारिवारिक शील की धज्जियाँ उड़ाते हुये दो सगे भाइयों का अपने सगे जीजा के साथ मिलकर दुष्कृत्य  में सम्मिलित होना, 4- पुलिस के द्वारा सही रिपोर्ट न लिख कर केवल मारपीट की रिपोर्ट लिखा जाना, 5- जानबूझकर पुलिस द्वारा सरपंच का नाम रिपोर्ट में नहीं लिखना,  6- पुलिस द्वारा पीड़िता को अस्पताल में भर्ती न करवा कर उसे अपने हाल पर मरने के लिये छोड़ देना।

हम इस घटना के सामाजिक-मानसिक पक्षों पर बाद में चर्चा करेंगे। अभी तो पुलिस की ढिठायी की चर्चा अधिक आवश्यक है। ये वो दिन थे जब पूरे देश में पुलिस, प्रशासन और व्यवस्था को जनता रोज कटघरे में खड़ा कर रही थी और दुष्कर्मियों को मृत्युदण्ड देने की माँग करने वालों में राष्ट्र के प्रथम नागरिक की पुत्री भी सम्मिलित हो चुकी थी। ऐसे माहौल में भी इस आदिवासी क्षेत्र की दुस्साहसी पुलिस अपनी अमानवीयता का परचम लहराती रही ; नहीं लिखेंगे सही रिपोर्ट .....बचाते रहेंगे रसूख वालों को .....नहीं पहुँचायेंगे घायल स्त्री को अस्पताल जिसे जो करना हो कर ले हमारा। अद्वितीय है पुलिस की ढिठायी।

घायल महिला को उसके घर वालों ने एक निजी चिकित्सक के अस्पताल में भर्ती किया, जहाँ से दुष्कर्म की वास्तविकता आमजनता के बीच आ सकी। चिकित्सक ने मानवीयता का परिचय देते हुये उसे एक सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में रेफर किया जहाँ के डॉक्टर्स को उसकी गम्भीर स्थिति देखते हुये रायपुर मेडिकल कॉलेज रेफर करना पड़ा।

उल्लेखनीय यह है कि दुष्कर्म के अनंतर घायल हुयी महिला की स्थिति इतनी गम्भीर हो चुकी थी कि डॉक्टर्स को उसे मेडिकल कॉलेज भेजना पड़ा जबकि पुलिस की दृष्टि में यह आपसी मार-पीट का सामान्य मामला था। जो बात, जो दृश्य, जो गम्भीरता किसी आम आदमी को दिखायी दे जाती है वही उस कार्य के लिये उत्तरदायी लोगों को क्यों नहीं दिखायी दे पाती? पुलिस की संवेदनहीनता और अमानवीयता न केवल एक गम्भीर पुलिसिया परम्परा है अपितु अपने पदीय कर्तव्यों की घोर उपेक्षा भी है जिसके लिये उन पर एक पृथक से मुकदमा चलाया जाना चाहिये।

पुलिस चाहे दिल्ली की हो या बस्तर की उसकी कार्यप्रणाली में गज़ब की एकरूपता है। जनता जब तक कोई आन्दोलन नहीं करेगी, .....जब तक हो-हल्ला नहीं होगा, ...जब तक आम नागरिक गुस्से में नहीं आ जायेगा तब तक न तो सही रिपोर्ट लिखी जायेगी और न अपराधियों को पकड़ा जायेगा। इस कठोर सत्य को जान चुकी जनता को दिल्ली के ही समानांतर यहाँ की सड़कों पर उतरना पड़ा तब कहीं सही रिपोर्ट लिखी गयी और सभी आरोपियों को पकड़ा जा सका।

प्रश्न यह है कि यह कैसी व्यवस्था है जिसके शासकीय अधिकारी-कर्मचारी इतने निकम्मे, ढीठ, असत्यभाषी, दुस्साहस की सीमा तक निष्ठाहीन और अमानवीय हो गये हैं? आख़िर व्यवस्था के लिये हर बार जनता को ही क्यों सामने आना पड़ता है?

यह चिंता का विषय है कि यौन दुष्कर्मियों के लिये मृत्युदण्ड का विधान भर बना देना किसी पीड़िता को न्याय दिलाने में कितना सहायक हो सकेगा जबकि अपराधियों को चिन्हित करने और दण्ड दिलाने के लिये उन्हें पकड़ कर न्यायालय तक पहुँचाने वाली व्यवस्था ही पंगु हो गयी हो? सत्ताधीशों की प्रतिबद्धतायें समाज के प्रति कितनी और क्या हैं ? सड़क के खुरदुरे आदमी की ओर से राजप्रासादों में रहने वाले कोमलांगी सत्ताधीशों के लिये यह एक कठोर प्रश्न हो सकता है .....किंतु उत्तर तो उसे देना ही होगा।         

रविवार, 30 दिसंबर 2012

निष्प्राण हुआ सारा समाज

 
रुष्ट हुयी रति
क्रुद्ध कामिनी
कुटिल मदन है
दमित दामिनी।
यह निकृष्ट संसर्ग
न माने प्राणों का उत्सर्ग।
धरा प्रकम्पित,
ब्रह्म अचम्भित
विष्णु लाज से हैं भूलुंठित,
डाल मृत्यु का जाल
हो रहे शिव भी कुंठित।
मानवता हो गयी कलंकित
निष्प्राण हुआ सारा समाज
हो गया न्याय का अंत।
आह! 
तू कहाँ खोज लेता आनन्द ?
वृद्धा हो ..तरुणी हो .....युवती हो ..
किशोरी हो या बच्ची अबोध 
यह नहीं भोग
रे निर्लज्ज!
यह कुभोग दुर्भोग।
कर
छिन्नमना
भग्न देह 
की भंग  
न्याय की आस।
पड़ी अकेली
विवश भोगने
पतितों का सामूहिक संत्रास!
सहमी धरा
भयभीत गगन है
अश्रु
नहीं आँखों से मेरी
रोम-रोम से झरते हैं।
इस सभ्य जगत में
अर्थ खो गये जीने के
प्रतिपल
हम केवल मरते हैं।
ज्ञानयोग की धरती पर होता
सामूहिक दुर्भोग!
क्यों तेरे ही साथ काम का
केवल कलुषित अतियोग।
कुम्भकर्ण है राजा
उपमा किससे दें मंत्री की?
जाग प्रजा ! अब जाग !!
देश को आवश्यकता क्षत्रिय की।

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

यौन अपराध

 



धर छ्द्मवेष
कर हरण
अपयश का भागी बन
जलता लंकेश आज
नगर-नगर पुतला बन।
रखा था सीता को गीता की ही तरह
नहीं लाज लूटी थी
रे क्रूर ! तेरी तरह।

उत्सव सा मनाता तू क्रूरष्ट दुष्कृत्य जिसमें
चीख है पुकार है
अपनों का हाहाकार है।
चीखों में पा लेता आनन्द का चरम तू
अधम से अधम तू
पतित से पतित तू।  
सारे अपशब्द भी
कुंठित हैं बौने बन
जो भी हो दण्ड तेरा
होगा वह बहुत कम।
बेटी के जीवन में  
कैसा अन्धकार है  
मर गयी तो मुक्ति है
बच गयी तो मृत्यु है।
रोज उगता रहे सूरज
पर न अब होगा सबेरा।    
क्षणिक यह काम का उन्माद तेरा  
न मात्र
पल भर संत्रास देता  
यह तो लाड़ली बहन की ....   
दुलारी बेटी की ....   
यावत्जीवेत
पल-पल की हत्या है
माँ के सम्मान की
धधकती चिता है
सामाजिक ढाँचे का भयानक विस्फोट है।

कामी निर्लज्ज कलियुग में क्रूर हुये
अपराधी तो थे ही अब और ढीठ हुये।  
बारबार करते दुष्कृत्य
बताते सबको धता
क्योंकि  
व्यवस्था का महलों में खो गया है पता।
कटा-फटा समाज है
सत्ता चुपचाप है
मिथ्या दिलासा का पुराना आलाप है।
देख-देख  
काम का क्रूरतम यह भाव   
लज्जित हो कामदेव
व्यथित हो कह उठे -
वीभत्स है ...वीभत्स है  
जा  
षंढ हो यह श्राप है। 





सोमवार, 24 दिसंबर 2012

स्त्रियों को शक्ति स्वीकारने वाले देश में स्त्रियों के सम्मान और प्राणरक्षा के लिये आन्दोलन

यह संयोग की ही बात है कि बिहार की साहसी बेटी अनायास ही पूरे भारत की चहेती बेटी बन गयी। आज पूरा देश चिंतित है फ़िजियोथेरेपिस्ट कुमारी दामिनी के लिये ......लोग आन्दोलित हो रहे हैं। भारत की राजधानी में प्रदर्शन हो रहे हैं। प्रदर्शनकारियों के गुस्से का समर्थन कर रही हैं दिल्ली की मुख्य मंत्री और उनके सांसद बेटे। पुलिस अपने परम्परागत तरीके से उत्पीड़न में आनन्द लेने के अवसर से चूकना नहीं चाहती ...ब्रिटिश युग के तरीके आज भी भारत में अस्तित्व में हैं ....यह पूरी दुनिया को देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है। कल सुबह से दिक्षित परिवार के माँ-बेटे के वक्तव्य प्रसारित होते रहे ...कि लोगों का गुस्सा जायज़ है ...कि पुलिस को सब्र से काम लेना चाहिये .....कि कानून में परिवर्तन की ज़रूरत है .....कि वर्तमान कानून लोगों को न्याय दिलाने में समर्थ नहीं है ...। दूसरी ओर इन वक्तव्यों से पूरी तरह निर्लिप्त पुलिस प्रदर्शनकारी लड़के-लड़कियों पर  अपराधियों की तरह लाठियाँ भाँजती रही।

इस बीच पूर्वांचल से समाचार आया कि बलात्कार का विरोध करने वाले एक पत्रकार की हत्या कर दी गयी। मुझे याद है, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में जब होश सम्भाला तो मेरठ की माया त्यागी काण्ड से दहला हुआ दिल आज इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक तक भी शांत होने का नाम नहीं ले रहा। बलात्कार और पुलिसिया उत्पीड़न की घटनाओं का यह सिलसिला स्वतंत्र भारत की एक त्रासदी बन चुका है। बलात्कार की न जाने कितने घटनायें आये दिन होती रहती हैं। पूरे देश में पच्चानवे हज़ार यौनौत्पीड़न के वाद न्यायालयों में लम्बित हैं। अधिकांश घटनाओं में अपराधी बिना सजा पाये मुक्त हो जा रहे हैं। यह जनमानस को उद्वेलित करने के लिये बहुत है।

भारत वह देश है जिसका इतिहास स्त्री सम्मान की वकालत के लिये पूरे विश्व में विख्यात रहा है। प्राचीन भारत की यह वह परम्परा है जिसने पिता की अपेक्षा माँ को समाज में अधिक सम्मान देने की घोषणा की। इसी परम्परा ने कन्याओं को नवरात्रि के दिनों में देवी का प्रतीक स्वीकारते हुये पूज्यनीय बनाया। इसी परम्परा ने आधुनिक विश्व के विकसित देशों से पहले भारत की स्त्रियों को समान अधिकार प्रदान किये। यही वह देश है जहाँ आज भी विश्व के किसी भी देश की अपेक्षा विवाह-विच्छेद के कानून सर्वाधिक कड़े हैं। फिर ऐसा क्यों है कि आज उसी भारत के लोग अपने पड़ोसी की बेटियों के सम्मान के प्रति इतने निस्पृह हो गये हैं। यौन उत्पीड़क निर्भय हो विचरने के लिये स्वतंत्र  हैं। कोई किशोरी जब तक स्कूल से वापस नहीं आ जाती माँ-बाप के दिल बेचैन बने रहने के अभ्यस्त हो गये हैं। स्त्रियाँ अपने पड़ोस में भी जाने से डरने लगी हैं।

निश्चित ही हमारे नैतिक मूल्यों में हुआ पतन इन सारी स्थितियों के लिये उत्तरदायी है। किंतु तब प्रश्न यह उठता है कि समाज में एक सुव्यवस्था बनाये रखने का उत्तरदायित्व किसका है? हम आत्मनियंत्रित समाज की कल्पना भर सकते हैं। किंतु समाज कभी ऐसा हो नहीं पाता। ऐसा हो नहीं पाता इसीलिये किसी शासन/प्रशासन की आवश्यकता होती है। किंतु दुर्भाग्य से हमारा शासन/प्रशासन घोटाला अपसंस्कृति से ग्रस्त हो चुका है, कहीं किसी प्रकाश की कोई किरण नज़र नहीं आती। पूरा देश स्त्री सुरक्षा के लिये चिंतित और आन्दोलित हो रहा है। देश की बेटी दामिनी जीवन और मृत्यु के बीच झूल रही है। एक सप्ताह में उसके छोटे-बड़े कुल नौ ऑप्रेशन हो चुके हैं अभी तक। उसकी आँत को निकलना पड़ा है, उसे नैज़ल फ़ीड भी नहीं दिया जा सकता। वह जीवन रक्षक प्रणाली के सहारे किसी तरह साँसें भर ले पा रही है। दूसरी तरफ़ सरकार के ज़िम्मेदार लोग अभी तक कोई ऐसी पहल कर पाने में असमर्थ रहे हैं जिससे आम जनता शांत हो सके। आज एक सप्ताह से भी अधिक दिन बीत जाने के बाद पूरा देश निराशा में डूबा हुआ है। मुख्यमंत्री के वक्तव्य उन्हें "भीड़ के साथ खड़ी" दिखाते हैं, ऐसा लगता है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री ख़ुद दिल्ली की सल्तनत के तौर-तरीकों के ख़िलाफ़ हैं। तब प्रश्न यह है कि दिल्ली की सल्तनत पर आज क़ाबिज़ है कौन? मुख्यमंत्री इतनी असहाय क्यों हैं? सल्तनत के मातहत अधिकारी अपने हुक्मरानों  के ख़िलाफ़ कैसे जा सकते हैं? यह कैसा शासन-प्रशासन है? या कि सारा ठीकरा पुलिस के सर पर फोड़ कर ख़ुद को बचाने की नाकाम कोशिश की जा रही है?

लोग यौनोत्पीड़कों को मृत्यु दण्ड देने से कम की बात पर तैयार नहीं। पर जरा गम्भीरता से विचार किया जाय तो जनता की यह माँग भावना और उत्तेजना के वशीभूत है। वस्तुतः विचार इस बात पर किया जाना है -

1- कि दर्ज़ होने वाले केसेज में अधिकांश अपराधी मुक्त क्यों हो जाते हैं?

2- निर्णय में इतना विलम्ब क्यों होता है?

3- वर्तमान कानून में क्या ख़ामियाँ हैं?

4- क्या यौनोत्पीड़न के लिये वर्तमान दण्ड व्यवस्था अपर्याप्त है?

5- यौनोत्पीड़न की सभी घटनाओं में से मात्र कुछ घटनाओं की ही रिपोर्ट क्यों दर्ज़ हो पाती है? वास्तविक घटनाओं और दर्ज़ घटनाओं के बीच यह अंतर क्यों है?

दण्डविधान पर चर्चा करने से पहले न्याय तक पहुँचने के मार्ग पर चर्चा करना आवश्यक है। बात शुरू होती है घटना के बाद की न्यायिक प्रक्रियाओं से जो प्रारम्भ होती हैं पुलिस इंवेस्टीगेशन से। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु है जिसकी प्रायः उपेक्षा की जाती है। पुलिस इंवेस्टीगेशन अधिकारी की तकनीकी और कानूनी ज्ञान में दक्षता, साक्ष्य संग्रह में दक्षता और तकनीकी साधनों की उपलब्धता, उसकी ईमानदारी, अपने उत्तरदायित्वों के प्रति निष्ठा, राजनीतिक दबाव ..आदि ऐसे कुछ कारण हैं जिन पर इंवेस्टीगेशन की सत्यता निर्भर करती है। मृत्युदण्ड का कानून बना देना पर्याप्त नहीं, पर्याप्त है दण्ड तक अपराधी को पहुँचाने का मार्ग। इसलिये पुलिस इंवेस्टीगेशन की प्रक्रिया पर सर्वाधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।

आम जनता के सहयोग और उसकी अपनी अंतरात्मा की जागृति की नैतिक बात अभी हम नहीं करेंगे। फाँसी की बात पर विचार करते हैं। किसी स्त्री के साथ यौनोत्पीड़न और क्रूरता एक ऐसा अमानवीय कुकृत्य है जिसकी जघन्यता की तुलना किसी अन्य अपराध से नहीं की जा सकती। मृत्युदण्ड भी इस अपराध के लिये बहुत न्यून दण्ड है। यूँ भी मृत्यु तो भवसागर से मुक्ति का सहज उपलब्ध साधन है ...दण्ड नहीं। इसलिये मृत्युपर्यंत कठोर सश्रम कारावास के साथ-साथ प्रतिवर्ष राष्ट्रीय पर्व के दिनों में बलात्कार के इन सज़ायाफ़्ता लोगों की अपने-अपने जिलों में हथकड़ी-बेड़ी के साथ सार्वजनिक परेड की सज़ा से ही हमें संतोष करना पड़ेगा।   

     

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

मैं आम नहीं कुछ ख़ास नहीं, रुक कर पल भर फिर चल दूँगा

 
 

मैं आम नहीं

जो ओढ़ लूँ

नयी चादर

हर पतझड़ के बाद

और हो जाऊँ ख़ास

कुछ ख़ास लोगों के लिये।

मैं तो पौधा हूँ

नन्हा सा धान का

जो नहीं ओढ़ता

नई-नई चादरें

बस

सौंप कर

  सुनहरी बालियाँ

   हर आम के लिये

   हो जाता हूँ विदा

         सदा के लिये।     

 

 
 

ये कौन मूर्तिकार है.....



ये कौन मूर्तिकार है ......


ये कौन मूर्तिकार है जो अर्थ को है गढ़ रहा

अमूर्त को बना रहा, मूर्त को सजा रहा  


दृष्य में कहाँ धरा जो दृष्टि में है खिल रहा।

ये कौन मूर्तिकार है जो अर्थ को है गढ़ रहा॥

 


ये राग भी विराग भी ये साज को बजा रहा।

ये कौन मूर्तिकार है जो अर्थ को है गढ़ रहा॥


रूप भी विरूप भी ये कैसी सृष्टि रच रहा।

ये कौन मूर्तिकार है जो अर्थ को है गढ़ रहा॥