बुधवार, 30 जनवरी 2013

“भारत में बलात्कार की जाति भी है और धर्म भी” –के.आर.शाह।


यौनदुष्कर्म की निरंतर हो रही घटनाओं से पूरा देश आन्दोलित है। विचारक और चिंतक समस्या और समाधान की दिशा में अपने-अपने दृष्टिकोण से मंथन कर रहे हैं।
रायपुर से प्रकाशित होने वाली भारत की नम्बर -1 सामाजिक समाचार पत्रिका आदिवासी सत्ताके जनवरी 2013 के सम्पादकीय में विद्वान सम्पादक ने भारत में बलात्कार की जाति और धर्म के बारे में लिखते हुये बताया है कि
“ ...धर्म मानव समाज के आचरण में निहित है। जैसा धर्म वैसा आचरण। ...भारतीय जनजातीय समाज में स्त्री, कल भी पुरुष की सम्पत्ति नहीं थी और आज भी नहीं है। अनार्य भारत से आर्य भारत होने के बाद हमारे देश की स्त्रियाँ सदा-सदा के लिये मर्दों की सम्पत्ति बना दी गयीं अर्थात् इसे धर्म सम्मतबना दिया गया। वेदों से लेकर मनुस्मृति तक सारे धर्मशास्त्रों में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में नारी को पुरुष की सम्पत्ति वर्णित किया गया है। श्रृष्टि के रचयिता परब्रह्म ब्रह्मा का अपनी ही पुत्री सरस्वती से किया गया बलात् संग एक चर्चित कथा सर्वविदित है। जो धर्म स्त्री को देवी भी मानता है और उपयोग की वस्तु भी कहता है, ऐसे धर्मावलम्बी देश में कानून के डण्डे से वहाँ निवासरत् लोगों के आचरण को कैसे परिवर्तित किया जा सकता है? .... बलात्कार का ना तो रूप-रंग होता है ना ही कोई चेहरा। लेकिन भारत में बलात्कार की जाति भी होती है और धर्म भी, क्योंकि इसे धार्मिक संरक्षण मिला हुआ है। जो समाज दो हजार सालों से भी अधिक समय से जिस आचार संहिता से बंधा रहकर जीवन यापन करता है, वही उसके आचरण में दृष्टिगोचर होता है। मनुस्मृति को पढ़ लेने से प्रत्येक भारतीय को भारतीय आचरण का मायाजाल समझ में आ जायेगा। इसलिये हम कहते हैं कि वर्तमान दुनिया में भारत इकलौता देश है जहाँ बलात्कार की जाति भी है और धर्म भी"।
सम्पादक जी के अनुसार- "आज भारत में जितना भी साहित्य उपलब्ध है वह सारा का सारा ब्राह्मण साहित्य है जिसे हम वैदिक, देव या आर्य साहित्य कहते, पढ़ते और मानते हैं। आर्य साहित्य व  दर्शन की मुख्य विषयवस्तु राजा, धर्म, जाति, कुल या फिर युद्ध (छल-कपट), सौन्दर्य, विलासिता और स्त्री पर केन्द्रित है। आर्य साहित्य में राजनीति और कूटनीति की आत्मा धर्मप्रधान होकर धर्मसत्ता तक सीमित है। यह प्रमाणित हो चुका है कि भारत मूलतः मूलनिवासियों अनार्यों का भारत था और है। समस्या इतनी सी है कि मूलनिवासियों का साहित्य नष्ट कर दिया गया 
सम्पादक जी ने जिस मनुस्मृति की बात की है उसी मनुस्मृति में लिखा गया है –“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता” एवं “जामियो यानि गेहानि शपंतय प्रतिपूजिता, तानिकृत्या हतानीव विनष्यंति समंततः”। मुझे नहीं पता शाह जी की दृष्टि में इन श्लोकों का अर्थ क्या है?
भारतीय समाज को विखण्डित करने के अनेक प्रयासों में से एक प्रयास भारतीय वैदिक वांग्मय की कूट व्याख्या करना भी है। तत्वज्ञानी इस कूटरचना की उपेक्षा कर सकते हैं किंतु बात इतने से समाप्त नहीं हो जाती। बारम्बार किया गया मिथ्या व्याख्यान अपना कूट प्रभाव डालता है। “आदिवासी सत्ता” नामक पत्रिका के पाठक पूरे देश में हैं, इन पाठकों का अपना एक वर्ग है जिसमें उच्च शिक्षितों से लेकर अपनी पीढ़ी में प्रथम बार शिक्षित लोग भी हैं। इन पाठकों के लिये यह पत्रिका अंतिम सत्य की तरह पूज्य है।
ऐसे वैचारिक कूटाचरण के विरुद्ध सत्य प्रतिपादित करने और प्रचारित करने की आवश्यकता है अन्यथा भारतीय समाज के विखण्डन को रोका नहीं जा सकेगा।             

मंगलवार, 29 जनवरी 2013

विधान ये सड़ा-गला।



धूप के गाँव से 

छाँव माँगने चला 

नर पिशाच हैं खड़े

मैं वेद बांचने चला|

चून के ढेर से 

रेत बीनने चला

सिंह की माद से 

शिकार छीनने चला| 

पाखण्ड है प्रचण्ड 

खण्ड-खण्ड है मनुष्यता 

उठी हुयी खड्ग से 

प्राण माँगने चला| 

"असतो मा सद्गमय"

पोथियों में था पढ़ा 

पापियों से न्याय 

का पहाड़ माँगने चला| 

ज़ख्म कौन दे रहा 

इससे दर्द को है क्या 

क्रूरता से उम्र का 

नाता है क्या भला! 

मर रही है दामिनी 

रोज ही ज़रा-ज़रा 

कैसा है विधान 

दुष्ट भी सुधारगृह चला| 

ज़ख्म रोज़ दे रहा 

न्याय-न्याय रट रहा 

लो, सुधर के फिर नया 

शिकार ढूँढने चला| 

कब नकारती हैं दर्द

उम्र की ये बेड़ियाँ 

क्या जाने दर्द 'दर्द' का 

विधान ये सड़ा-गला|  


शनिवार, 26 जनवरी 2013

गणतंत्रदिवस के कुछ पल ...

 
 

 

 

 

 

बस्तर के हृदय जगदलपुर का लाल बाग.....पूरे बाग की मिट्टी लाल है। यह लालिमा यहाँ की मिट्टी में मिले लौह अयस्क के कारण है। यह लालिमा यहाँ के गिरिवासी-वनवासी देशभक्तों के रक्त के कारण भी है जिन्होंने तीर-धनुष और टंगिया ( छोटी कुल्हाड़ी) से ही नाकों चने बीनने को विवश कर दिया था अंग्रेज़ी सेनाओं को। सच्चे वीरों की इस भूमि को कोटि-कोटि नमन !

   गणतंत्र दिवस, पौष शुक्ल,14, विक्रम संवत् 2069

लाल बाग का एक विहंगम दृष्य

विद्यार्थियों का उत्साह तो देखते ही बनता है।

 

 

बस्तर की गिरि-वनवासी समुदायों की वेशभूषा में आये कलाकार

 
 
अपना जज़्बा ...अपनी अभिव्यक्ति ...
 

बीते वर्षों में हमारे ही कुछ बन्धु बन गये हमारे शत्रु। नक्सली आतंकवाद में जल रहा है बस्तर। सुरक्षा में चारो ओर मुस्तैद हैं हमारे जांबाज़ देशभक्त।

 
 आते जा रहे हैं लोग ....बढ़ती जा रही है भीड़
 
 
कलाकारों का एक दल
 
 
...शाला से आये बाल कलाकारों का एक और दल
 
....
 
अपनी प्रस्तुति के लिये तैयार पारम्परिक वेशभूषा में आये ग्रामवासियों का एक दल ...
 
 
घुंघरुओं की कलात्मक पट्टी
 
 
हम हैं हिन्दुस्तानी ...
 
 
एक वनवासी श्रमिक महिला कृषि उपकरणों के प्रतीकों के साथ
 
 
अपने महापुरुषों की स्मृति में .....उनके जैसा बनने की दिशा में  ...अपने गुरुओं की छत्रछाया में कुछ विशिष्ट बनने का ...कुछ विशिष्ट करने का प्रयास।
 
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 ग्राम्य जीवन का एक दृष्य़ ...

 
 
...और लीजिये, सज गयी झाँकी।
 

अरे! सच्ची-मुच्ची के नहीं ... हम तो स्वांग कर रहे हैं नक्सली का।

मगर वनवासी सचमुच में कब डरे हैं मरने से। मृत्यु तो उत्सव है यहाँ, तभी तो भूमकाल जैसे आन्दोलन हो पाये यहाँ की धरती पर। क्रांतिकारी गुण्डाधुर और गेंदसिंह के किस्से याद हैं न आपको!

 
 
लीजिये, प्रारम्भ हो गया कार्यक्रम ...
 
 
चारो ओर लोग ही लोग, अपनी नन्हीं सी ज़िन्दगी में पहली बार देख रही हूँ इतनी भीड़। समझ में नहीं आता क्या देखूँ और क्या छोड़ूँ ....
 
 

पण्डाल में भीड़ ..पण्डाल के बाहर भीड़ ...सड़क पर भी भीड़ ...क्या सचमुच लोगों में इतना उत्साह है अपने गणतंत्र पर्व के लिये? ख़ुशफ़हमी ही सही, चलो मान लेते हैं कि इस विचित्र देश की धरती पर सब कुछ सम्भव है। ऐसे कार्यक्रम मुझे प्रायः भावुक कर दिया करते हैं। जो भी है जैसा भी है मेरा देश मेरा है। ...कई बार तो मुझे लगता है कि देश अभी लोकतंत्र की प्रसवपीड़ा से गुजर रहा है ....परिणाम् सुखद ही होगा, जब पूरा विश्व देखेगा कि इतनी विविधताओं के बाद भी हम सबसे न्यारे हैं और आगे बढ़ रहे हैं ...

उत्सव समाप्त । चलो, अब घर चलें ......

काश! यह उत्सव जीवन के हर पल में हो।

 

 

 

 

 

 

 


 

 



बुधवार, 23 जनवरी 2013

हिड़िमा रानी


   अठारहवीं शताब्दी के अंत में बस्तर की पराधीनता के जो बीज ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने तैयार किये थे वे उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम कुछ दशकों में नागपुर में बोये गये। इन बीजों का अंकुरण शीघ्र ही होने लगा जिससे तैयार हुयी कंटीली झाड़ियों ने बस्तर के बृहद् भूभाग को कंटकाकीर्ण कर दिया।
    नागपुर के भोसले राजाओं ने जिस तरह से बस्तर को थाली में रखकर कम्पनी बहादुर के सामने परोस दिया था उससे भोमदेव को देवहुती की चिंता होनी स्वाभाविक थी। उसे किसी भी बहाने से अपदस्थ किया जा सकता था या फिर किसी भी मिथ्या अपराध के आरोप में बन्दी। काकतीय महाराजा की गोंड रानी की संतान के रूप में जन्मे थे दोनो, कहने को राजवंशी किंतु अधिकार न के बराबर। अपनी मृत्यु से ठीक पहले महाराजा ने भोमदेव को अपने राज्य के एक वनक्षेत्र का पंचकोसी राजा बना दिया था। काकतीय वंश की गोंड गिरिवासी शाखा महाराजा के प्रति कृतज्ञ हुयी।
    गोंड माता की संतान भोमदेव के रक्त में काकतीय वंश का राजरक्त भी मिला हुआ था, इसलिये उसकी महत्वाकांक्षा थी कि एकलौती बहन देवहुती का विवाह किसी तरह किसी राजवंश में हो जाय। भोमदेव ने उत्तर-पूर्व के कलचुरी वंश के राजघरानों से बात की किंतु जब सफलता नहीं मिली तो उसने उड़ीसा के राजघरानों से सम्पर्क करना प्रारम्भ किया।
     हाल ही में नरबलि के काल्पनिक आरोप के बहाने कम्पनी बहादुर ने भोसलों पर अपने प्रभाव का दुरुपयोग करते हुये बस्तर में अरब सैनिकों को नियुक्त करवा दिया था। उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में भारत के देशी राजाओं पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था, राजा-महाराजा नाम मात्र के राजा-महाराजा रह गये थे। उनकी राजसभाओं में नियुक्त किये गये अंग्रेज अधिकारियों के हाथों ही देशी राजाओं के आपसी स्वार्थों ने सत्ता के सूत्र थमा दिये थे। स्थानीय स्त्रियाँ अरब सैनिकों और अंग्रेजों की पाशविक यौनलिप्सा की शिकार होने के लिये बाध्य थीं, कठपुतली राजा अपनी प्रजा की रक्षा करने में असमर्थ थे। राजा कराधान के साधन के रूप में अंग्रेजों का हित साध रहे थे, और कर देने वाले गिरिवासी अरब सैनिकों, मराठों और अंग्रेजों के पाशविक अत्याचारों से जूझ रहे थे। मुस्लिम सैनिकों के लिये स्त्रियाँ लूट की सामग्री से अधिक और कुछ नहीं हुआ करतीं थीं। महाराजा की मृत्यु के पश्चात् उत्तराधिकारियों के पारस्परिक संघर्ष का लाभ उठाते हुये अरब सैनिकों ने सर्वप्रथम राजमहल की गोण्ड रानियों को बलात उठाना प्रारम्भ कर दिया। राजमहल के किसी अधिकारी को इन निरीह रानियों की लेश भी चिंता नहीं थी। महाराजा के जीवनकाल में भी उन्हें यथोचित सम्मान के योग्य नहीं माना जाता था। पटरानियों के रहने की व्यवस्था पूरी तरह से पृथक हुआ करती थी। गोण्ड रानियों के लिये महल के जिन भागों में व्यवस्था की जाती थी वहाँ पटरानियाँ कभी झाँकने भी नहीं जाती थीं। गोण्ड रानियाँ अपना भोजन भी स्वयं ही पकाती थीं और राजा के दिये अपने बच्चों के साथ राज्य का एक भाग बनी रहती थीं।
     जिस समय अरब सैनिक राजमहल में लूट-मार कर रहे थे, दिवंगत् महाराजा के राजपुत्र उत्तराधिकार के लिये संघर्ष में जूझ रहे थे। उधर, पंचकोसी राजा भोमदेव अपने गाँव में अंग्रेजों के विरुद्ध जनाक्रोश को हवा देने के कार्य में व्यस्त था। इधर, पटरानियों के महल की सुरक्षा बढ़ा दी गयी थी। रानियों के महल की ओर कोई भी नहीं था, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। वनवासी जनता को महत्व देने के उद्देश्य से गिरि-वन प्रांतर के प्रमुखों की लड़कियों को रानी बनाकर महल में रखना राज्य की एक नीति थी, और हिड़िमा रानी थी उसी नीति का एक अंश।
    सैनिकों का एक दल रानीमहल में निर्विरोध प्रवेश कर गया। महल में स्त्रियों के चीखने और रोने की आवाजें सुनायी देने लगीं, किंतु उनकी चीख-पुकार सुनने वाले महाराजा उनसे दूर जा चुके थे, जो पास थे उन्हें यह चीख-पुकार सुनने की न तो कोई आवश्यकता थी और न इसका समय।
   अरब सैनिक अपने साथ जिन तेरह स्त्रियों को उठा कर ले गये उनमें दिवंगत् महाराजा की सभी नौ रानियाँ और उनकी चार किशोर वय बेटियाँ थीं। हिड़िमा रानी उनमें से एक थी। सौभाग्य से हिड़िमा की युवा सुन्दर बेटी देवहुती किसी तरह सैनिकों की दृष्टि में न पड़ने के कारण लूट की सामग्री बनने से बच गयी।
   भोमदेव को जबतक समाचार मिला और वे राजमहल पहुँचे तबतक सब कुछ समाप्त हो चुका था। उसके सौतेले भाइयों ने महल में उससे मिलना भी उचित नहीं समझा। अपनी माँ के बलात् अपहरण से दुःखी भोमदेव मन में अरबों के प्रति क्रोध और अंग्रजों के प्रति घृणा लेकर बहुत दिन तक जंगल में भटकते रहने के बाद वापस चला गया।
    बस्तर पर अप्रत्यक्ष रूप से ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन और भी सुदृढ़ हो चुका था। अरब सैनिक नरबलि के मिथ्या प्रमाण एकत्र करते जा रहे थे जो अंग्रेजी शासन के लिये अकाट्य प्रमाण होने वाले थे। वनवासियों में अंग्रेजों और अरबों के प्रति घृणा और विद्रोह की भावना बढ़ती जा रही थी।
    भोमदेव ने कोटपाड़ राजघराने के एक राजवंशी से अपनी बहन का विवाह तय करने में सफलता पा ली। विवाह का शुभमुहूर्त उड़ीसा के एक पुरोहित ने निकाल कर भोमदेव को बताया। भोमदेव ने तिथि निर्धारित कर दी। विवाह की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गयीं।
    देवहुती किसी कल्पना लोक में खोयी-खोयी रहने लगी। किंतु जैसे-जैसे विवाह की तिथि समीप आती जाती देवहुती को माँ की स्मृति और भी विकल करने लगी।
    विवाह के ठीक दो दिन पूर्व गाँव में मुस्लिम सैनिकों ने आक्रमण किया। यह आक्रमण नरबलि के काल्पनिक अपराधियों को ढूँढने के अभियान का एक भाग था जिसे नागपुर के भोसले राजा के दरबार में उनके अंग्रेज आकाओं द्वारा तैयार किया गया था। पंचकोसी राजा भोमदेव मुस्लिम सैनिकों की क्रूर हिंसा की भेंट चढ़ा तो बहन देवहुती सैनिकों की भोगलिप्सा की।

    *     *     *      *      *      *     *      *      

     तीन वर्ष पश्चात् नागपुर की सैनिक छावनी में एक महिला सैनिकों के लिये भोजन बनाने का उपक्रम कर रही थी। मुसलमान सैनिक किसी युद्ध भूमि से विजय प्राप्त कर वापस आये थे जिसके कारण पूरी छावनी में उत्सव का वातावरण था। मसालों और मांस की संयुक्त गन्ध व्याप्त हो कर सैनिकों को व्याकुल कर रही थी। एक सेवक ने आकर महिला को छावनीप्रमुख का आदेश कह सुनाया – “उन शिविरों की बायीं ओर सबसे बड़े वाले शिविर में दो लोगों के लिये भोजन लेकर जाना है।
    स्त्री ने कोई उत्तर नहीं दिया, वह प्रायः मौन ही रहती थी। उसने दो थालियों में भोजन लगाया और निर्दिष्ट दिशा में लेकर चल पड़ी। शिविर के पास पहुँचते ही एक सैनिक ने पट हटाकर मार्ग दिया, स्त्री ने भीतर प्रवेश किया। भीतर शिविर प्रमुख के साथ एक अन्य सैन्य पदाधिकारी भी था। स्त्री भोजन रखकर नियमानुसार एक ओर सिर झुकाकर खड़ी हो गयी। सैन्यशिविर का यह नियम उसे राहत देता था। भयानक चेहरे वाले बलात्कारी सैनिकों का चेहरा भला कौन स्त्री देखना चाहेगी!
    प्रमुख ने उसे अपमानजनक तरीके से अपने पास बुलाया। सैन्यक्रूरता की अभ्यस्त हो चुकी डरी-सहमी स्त्री को समीप जाना पड़ा। प्रमुख ने एक झटके से स्त्री को अपने पलंग पर पटक दिया। दोनो सैन्य अधिकारियों के क्रूर ठहाके देर तक वातावरण में भय का संचार करते रहे। एक ने कहा- आपने कुछ नया पेश करने का वायदा किया था ....
    दूसरे ने एक आह भरी- हम माफ़ी चाहते हैं, वह अभी फ़िरंगियों की ख़िदमत में है। मौका मिलते ही आपकी भी ख़िदमत में पेश की जायेगी, हम अपने वायदे से मुकरने वाले नहीं। वल्लाह क्या चीज़ है ....आप देखेंगे तो दिल ख़ुश जायेगा।
    स्त्री अपने वस्त्र ठीक करने लगी। सैन्य अधिकारी ने कहा – “जाइये रानी साहिबा, आज की ख़िदमत पूरी हुयी।
    उत्सव कई दिन तक चला। सैनिक छावनी मनुष्यता को तार-तार करती उत्सव मनाती रही। लगभग दो माह पश्चात् एक बार फिर मुस्लिम सैन्य अधिकारी के शिविर में उत्सव का वातावरण बना। फ़िरंगियों की उच्छिष्ट होकर एक युवती लायी गयी थी। इस उच्छिष्ट पर अब मुस्लिम सैनिकों का अधिकार था। उम्र और सुन्दरता की कोटि के आधार पर भोग के अधिकार की पात्रता तय होती थी। इस बार अधिकारियों की संख्या चार थी। लड़की के शरीर को चार हिंस्र पशु रात भर चबाते रहे।
    दिन ऊपर चढ़ आया था, सैन्य अधिकारी अपनी-अपनी दिनचर्या में लग गये। लड़की शिविर के एक कोने में पड़ी कराहती रही। काकतीय राजघराने की गोण्ड रानी शिविर की सेविका थी। उसे लड़की को खाना खिलाने का आदेश दिया गया था। जब वह भोजन की थाली लेकर शिविर में पहुँची तब तक लड़की मूर्छित हो चुकी थी। गोण्ड रानी हिड़िमा की दृष्टि जैसे ही लड़की पर पड़ी चीखकर वह भी मूर्छित हो गिर पड़ी। भोजन की थाली गिरने की झनझनाहट को सुन शिविर का भृत्य सैनिक दौड़ कर भीतर आया।
     सैनिक के प्रयास से जब दोनो की मूर्छा टूटी तो हिड़िमा और भी पाषाण हो चुकी थी। लड़की की हिचकियाँ बंध चुकी थीं। अचानक स्त्री ने सैनिक की कटार छीनी और लड़की पर पूरी शक्ति से वार कर दिया। हड़बड़ाया सैनिक जब तक कुछ समझ पाता, हिड़िमा ने दूसरे, तीसरे और चौथे वार से अपनी इहलीला समाप्त कर ली। मरते समय हिड़िमा रानी ने देवहुती का सिर अपनी बाँह से लपेट लिया था मानो अपनी सारी ममता लुटा देना चाहती हो। 
     माँ-बेटी दोनो के चेहरों पर अब किसी विषाद की कोई छाया नहीं थी, वे सारे दुःखों से मुक्त हो चुकी थीं। इस बीच मुस्लिम सैनिक मृत देहों को ठिकाने लगाने के उपक्रम में बैलगाड़ी ले आये। मिट्टी को बैलगाड़ी में पटक दिया गया। गाड़ी खीचने से पहले बैलों ने अपने सिर को झटके से हिलाया जिससे उनकी आँखों में आये आँसू बह जायें और वे मार्ग को ठीक से देख सकें।   

मंगलवार, 22 जनवरी 2013

आस्था


यह आज से लगभग पच्चीस वर्ष पहले की बात है, तब वह बहुत छोटी थी, फ़्रॉक पहनकर स्कूल जाने वाली छोटी बच्ची की तरह। दूसरी बार जब मैंने उसे देखा तब तक वह बड़ी हो चुकी थी। उसका विवाह होने वाला था। उसकी बड़ी बहन ने मुझे बताया कि छोटी प्रेम-विवाह करने जा रही है। मैंने कहा, किंतु यह तो अभी उसकी पढ़ने-लिखने की उम्र है अभी से यह निर्णय कैसे कर लिया। बड़ी ने बताया कि छोटी को घर बसाने की जल्दी है, कोई क्या कर सकता है। तभी मैंने देखा कि सामने पूजा वाले कमरे में एक स्त्री हाथ जोड़कर सिर झुकाये, आँखें बन्द किये अभिवादन की मुद्रा में बड़ी तन्मयता के साथ ध्यानमग्न खड़ी है। उसके बाल पीठपर बिखरे थे जिनसे पानी टपक रहा था। आज इतने वर्षों बाद भी वह दृष्य मुझे अभी तक बिल्कुल वैसा ही याद है ...जैसे कि अभी कल की ही बात हो। बड़ी ने संकेत किया .....छोटी।
मैं चौंका, इत्ती लम्बी हो गयी! कित्ते साल बाद देख पा रहा हूँ .....।
बड़ी ने व्यंग्य किया, अपने होने वाले दूल्हे के लिये भगवान जी की शरण में है बेचारी।
मुझे स्मरण हो आया, परीक्षा के दिनों में गुप्ता भी तो अनायास ही आस्तिक हो जाया करता था। तो क्या हम उपलब्धियों के लिये भिखारी की तरह जब-तब हाथ फैलाते रहते हैं ईश्वर के सामने? मेरे मन में एक प्रश्न उठा।
मन्दिरों में तन्मयता के साथ, बड़े विनम्रभाव से मूर्तियों के आगे सिर झुकाये खड़े लोग आस्थावान और धार्मिक से लगते प्रतीत होते हैं। सिर नवाये ये लोग कुछ माँग रहे होते हैं, बन्द नेत्रों से कुछ देख रहे होते हैं, बिना एक भी शब्द उच्चारित किये कुछ चढ़ावा चढ़ाने की मनौती मान रहे होते हैं, आराधनास्थल में भी आस्था के साथ दुनिया के सारे व्यापार चला रहे होते हैं और इस सबके बीच ऊपर से बड़ा शांत सा लगने वाला मन्दिर का वातावरण भीतर से दुनियादारी के अस्तित्व का प्रमाण दे रहा होता है। कोई परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहता है, कोई लड़की के विवाह के लिये चिंतित है, कोई अपने गिरते हुये व्यापार को उठाना चाहता है, कोई अदालती फ़ैसला अपने पक्ष में चाहता है ....हर किसी को विश्वास है कि अनादि, अनंत और निराकार ईश्वर उनकी समस्यायों का समाधान कर देगा। इस विश्वास ने मन्दिरों की उपयोगिता को बनाये रखा है।
एक बार एक मन्दिर के सामने से होकर निकल रहा था। मंदिर की सीढ़ियाँ उतरती हुयी एक परिचित की लड़की दिखायी दे गयी। उसने पुकारा, मैं रुका। उसने प्रसाद दिया, मैंने चुहुल करते हुये प्रश्न पूछा, अपने लिये क्या माँगा भगवान जी से? उसने कहा, ऐसी शक्ति जो मुझे सही मार्ग से विचलित न होने दे।
लड़की का उत्तर मेरे लिये अप्रत्याशित था। स्कूल-कॉलेज की लड़कियों से ऐसे उत्तर की आशा प्रायः नहीं होती। मेरी इच्छा हुयी कि मैं झुककर लड़की के पाँव छू लूँ। देवी स्वयं मन्दिर से बाहर आकर मुझे दर्शन दे रही थी। मैं धन्य हुआ, अभिभूत हुआ। आज सोचता हूँ, उस लड़की से भी बड़ा और सच्चा आस्थावान और धार्मिक कोई होगा?