अठारहवीं
शताब्दी के अंत में बस्तर की पराधीनता के जो बीज ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने तैयार
किये थे वे उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम कुछ दशकों में नागपुर में बोये गये। इन
बीजों का अंकुरण शीघ्र ही होने लगा जिससे तैयार हुयी कंटीली झाड़ियों ने बस्तर के
बृहद् भूभाग को कंटकाकीर्ण कर दिया।
नागपुर के
भोसले राजाओं ने जिस तरह से बस्तर को थाली में रखकर कम्पनी बहादुर के सामने परोस
दिया था उससे भोमदेव को देवहुती की चिंता होनी स्वाभाविक थी। उसे किसी भी बहाने से
अपदस्थ किया जा सकता था या फिर किसी भी मिथ्या अपराध के आरोप में बन्दी। काकतीय
महाराजा की गोंड रानी की संतान के रूप में जन्मे थे दोनो, कहने को राजवंशी किंतु अधिकार न के बराबर। अपनी मृत्यु से ठीक पहले महाराजा ने
भोमदेव को अपने राज्य के एक वनक्षेत्र का पंचकोसी राजा बना दिया था। काकतीय वंश की
गोंड गिरिवासी शाखा महाराजा के प्रति कृतज्ञ हुयी।
गोंड माता की
संतान भोमदेव के रक्त में काकतीय वंश का राजरक्त भी मिला हुआ था, इसलिये उसकी महत्वाकांक्षा थी कि एकलौती बहन देवहुती का विवाह किसी तरह किसी
राजवंश में हो जाय। भोमदेव ने उत्तर-पूर्व के कलचुरी वंश के राजघरानों से बात की
किंतु जब सफलता नहीं मिली तो उसने उड़ीसा के राजघरानों से सम्पर्क करना प्रारम्भ
किया।
हाल ही में
नरबलि के काल्पनिक आरोप के बहाने कम्पनी बहादुर ने भोसलों पर अपने प्रभाव का
दुरुपयोग करते हुये बस्तर में अरब सैनिकों को नियुक्त करवा दिया था। उन्नीसवीं
शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में भारत के देशी राजाओं पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का
प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था, राजा-महाराजा
नाम मात्र के राजा-महाराजा रह गये थे। उनकी राजसभाओं में नियुक्त किये गये अंग्रेज
अधिकारियों के हाथों ही देशी राजाओं के आपसी स्वार्थों ने सत्ता के सूत्र थमा दिये
थे। स्थानीय स्त्रियाँ अरब सैनिकों और अंग्रेजों की पाशविक यौनलिप्सा की शिकार होने के
लिये बाध्य थीं, कठपुतली राजा
अपनी प्रजा की रक्षा करने में असमर्थ थे। राजा कराधान के साधन के रूप में
अंग्रेजों का हित साध रहे थे, और कर देने वाले
गिरिवासी अरब सैनिकों, मराठों और
अंग्रेजों के पाशविक अत्याचारों से जूझ रहे थे। मुस्लिम सैनिकों के लिये स्त्रियाँ
लूट की सामग्री से अधिक और कुछ नहीं हुआ करतीं थीं। महाराजा की मृत्यु के पश्चात्
उत्तराधिकारियों के पारस्परिक संघर्ष का लाभ उठाते हुये अरब सैनिकों ने सर्वप्रथम
राजमहल की गोण्ड रानियों को बलात उठाना प्रारम्भ कर दिया। राजमहल के किसी अधिकारी
को इन निरीह रानियों की लेश भी चिंता नहीं थी। महाराजा के जीवनकाल में भी उन्हें
यथोचित सम्मान के योग्य नहीं माना जाता था। पटरानियों के रहने की व्यवस्था पूरी तरह
से पृथक हुआ करती थी। गोण्ड रानियों के लिये महल के जिन भागों में व्यवस्था की
जाती थी वहाँ पटरानियाँ कभी झाँकने भी नहीं जाती थीं। गोण्ड रानियाँ अपना भोजन भी
स्वयं ही पकाती थीं और राजा के दिये अपने बच्चों के साथ राज्य का एक भाग बनी रहती
थीं।
जिस समय अरब
सैनिक राजमहल में लूट-मार कर रहे थे, दिवंगत्
महाराजा के राजपुत्र उत्तराधिकार के लिये संघर्ष में जूझ रहे थे। उधर, पंचकोसी राजा भोमदेव अपने गाँव में अंग्रेजों के विरुद्ध जनाक्रोश को हवा देने
के कार्य में व्यस्त था। इधर, पटरानियों के
महल की सुरक्षा बढ़ा दी गयी थी। रानियों के महल की ओर कोई भी नहीं था, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया। वनवासी जनता को महत्व देने के उद्देश्य से
गिरि-वन प्रांतर के प्रमुखों की लड़कियों को रानी बनाकर महल में रखना राज्य की एक
नीति थी, और हिड़िमा रानी थी उसी नीति का एक अंश।
सैनिकों का एक
दल रानीमहल में निर्विरोध प्रवेश कर गया। महल में स्त्रियों के चीखने और रोने की
आवाजें सुनायी देने लगीं, किंतु उनकी
चीख-पुकार सुनने वाले महाराजा उनसे दूर जा चुके थे, जो पास थे उन्हें यह चीख-पुकार सुनने की न तो कोई आवश्यकता थी और न इसका समय।
अरब सैनिक
अपने साथ जिन तेरह स्त्रियों को उठा कर ले गये उनमें दिवंगत् महाराजा की सभी नौ
रानियाँ और उनकी चार किशोर वय बेटियाँ थीं। हिड़िमा रानी उनमें से एक थी। सौभाग्य
से हिड़िमा की युवा सुन्दर बेटी देवहुती किसी तरह सैनिकों की दृष्टि में न पड़ने के
कारण लूट की सामग्री बनने से बच गयी।
भोमदेव को
जबतक समाचार मिला और वे राजमहल पहुँचे तबतक सब कुछ समाप्त हो चुका था। उसके सौतेले
भाइयों ने महल में उससे मिलना भी उचित नहीं समझा। अपनी माँ के बलात् अपहरण से
दुःखी भोमदेव मन में अरबों के प्रति क्रोध और अंग्रजों के प्रति घृणा लेकर बहुत
दिन तक जंगल में भटकते रहने के बाद वापस चला गया।
बस्तर पर
अप्रत्यक्ष रूप से ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन और भी सुदृढ़ हो चुका था। अरब सैनिक
नरबलि के मिथ्या प्रमाण एकत्र करते जा रहे थे जो अंग्रेजी शासन के लिये अकाट्य
प्रमाण होने वाले थे। वनवासियों में अंग्रेजों और अरबों के प्रति घृणा और विद्रोह
की भावना बढ़ती जा रही थी।
भोमदेव ने
कोटपाड़ राजघराने के एक राजवंशी से अपनी बहन का विवाह तय करने में सफलता पा ली।
विवाह का शुभमुहूर्त उड़ीसा के एक पुरोहित ने निकाल कर भोमदेव को बताया। भोमदेव ने
तिथि निर्धारित कर दी। विवाह की तैयारियाँ प्रारम्भ हो गयीं।
देवहुती किसी
कल्पना लोक में खोयी-खोयी रहने लगी। किंतु जैसे-जैसे विवाह की तिथि समीप आती जाती
देवहुती को माँ की स्मृति और भी विकल करने लगी।
विवाह के ठीक
दो दिन पूर्व गाँव में मुस्लिम सैनिकों ने आक्रमण किया। यह आक्रमण नरबलि के
काल्पनिक अपराधियों को ढूँढने के अभियान का एक भाग था जिसे नागपुर के भोसले राजा
के दरबार में उनके अंग्रेज आकाओं द्वारा तैयार किया गया था। पंचकोसी राजा भोमदेव
मुस्लिम सैनिकों की क्रूर हिंसा की भेंट चढ़ा तो बहन देवहुती सैनिकों की भोगलिप्सा
की।
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तीन वर्ष
पश्चात् नागपुर की सैनिक छावनी में एक महिला सैनिकों के लिये भोजन बनाने का उपक्रम
कर रही थी। मुसलमान सैनिक किसी युद्ध भूमि से विजय प्राप्त कर वापस आये थे जिसके
कारण पूरी छावनी में उत्सव का वातावरण था। मसालों और मांस की संयुक्त गन्ध व्याप्त
हो कर सैनिकों को व्याकुल कर रही थी। एक सेवक ने आकर महिला को छावनीप्रमुख का आदेश
कह सुनाया – “उन शिविरों की बायीं ओर सबसे बड़े वाले
शिविर में दो लोगों के लिये भोजन लेकर जाना है।”
स्त्री ने कोई
उत्तर नहीं दिया, वह प्रायः मौन
ही रहती थी। उसने दो थालियों में भोजन लगाया और निर्दिष्ट दिशा में लेकर चल पड़ी।
शिविर के पास पहुँचते ही एक सैनिक ने पट हटाकर मार्ग दिया, स्त्री ने भीतर प्रवेश किया। भीतर शिविर प्रमुख के साथ एक अन्य सैन्य
पदाधिकारी भी था। स्त्री भोजन रखकर नियमानुसार एक ओर सिर झुकाकर खड़ी हो गयी।
सैन्यशिविर का यह नियम उसे राहत देता था। भयानक चेहरे वाले बलात्कारी सैनिकों का
चेहरा भला कौन स्त्री देखना चाहेगी!
प्रमुख ने उसे
अपमानजनक तरीके से अपने पास बुलाया। सैन्यक्रूरता की अभ्यस्त हो चुकी डरी-सहमी
स्त्री को समीप जाना पड़ा। प्रमुख ने एक झटके से स्त्री को अपने पलंग पर पटक दिया।
दोनो सैन्य अधिकारियों के क्रूर ठहाके देर तक वातावरण में भय का संचार करते रहे।
एक ने कहा- “आपने कुछ नया
पेश करने का वायदा किया था ....”
दूसरे ने एक
आह भरी- “हम माफ़ी चाहते हैं, वह अभी फ़िरंगियों की ख़िदमत में है। मौका मिलते ही आपकी भी ख़िदमत में पेश की
जायेगी, हम अपने वायदे से मुकरने वाले नहीं।
वल्लाह क्या चीज़ है ....आप देखेंगे तो दिल ख़ुश जायेगा।”
स्त्री अपने
वस्त्र ठीक करने लगी। सैन्य अधिकारी ने कहा – “जाइये रानी
साहिबा, आज की ख़िदमत पूरी हुयी।”
उत्सव कई दिन
तक चला। सैनिक छावनी मनुष्यता को तार-तार करती उत्सव मनाती रही। लगभग दो माह
पश्चात् एक बार फिर मुस्लिम सैन्य अधिकारी के शिविर में उत्सव का वातावरण बना।
फ़िरंगियों की उच्छिष्ट होकर एक युवती लायी गयी थी। इस उच्छिष्ट पर अब मुस्लिम सैनिकों
का अधिकार था। उम्र और सुन्दरता की कोटि के आधार पर भोग के अधिकार की पात्रता तय
होती थी। इस बार अधिकारियों की संख्या चार थी। लड़की के शरीर को चार हिंस्र पशु रात
भर चबाते रहे।
दिन ऊपर चढ़
आया था, सैन्य अधिकारी अपनी-अपनी दिनचर्या में
लग गये। लड़की शिविर के एक कोने में पड़ी कराहती रही। काकतीय राजघराने की गोण्ड रानी
शिविर की सेविका थी। उसे लड़की को खाना खिलाने का आदेश दिया गया था। जब वह भोजन की
थाली लेकर शिविर में पहुँची तब तक लड़की मूर्छित हो चुकी थी। गोण्ड रानी हिड़िमा की
दृष्टि जैसे ही लड़की पर पड़ी चीखकर वह भी मूर्छित हो गिर पड़ी। भोजन की थाली गिरने
की झनझनाहट को सुन शिविर का भृत्य सैनिक दौड़ कर भीतर आया।
सैनिक के
प्रयास से जब दोनो की मूर्छा टूटी तो हिड़िमा और भी पाषाण हो चुकी थी। लड़की की
हिचकियाँ बंध चुकी थीं। अचानक स्त्री ने सैनिक की कटार छीनी और लड़की पर पूरी शक्ति
से वार कर दिया। हड़बड़ाया सैनिक जब तक कुछ समझ पाता, हिड़िमा ने दूसरे, तीसरे और चौथे
वार से अपनी इहलीला समाप्त कर ली। मरते समय हिड़िमा रानी ने देवहुती का सिर अपनी
बाँह से लपेट लिया था मानो अपनी सारी ममता लुटा देना चाहती हो।
माँ-बेटी दोनो
के चेहरों पर अब किसी विषाद की कोई छाया नहीं थी, वे सारे दुःखों से मुक्त हो चुकी थीं। इस बीच मुस्लिम सैनिक मृत देहों को
ठिकाने लगाने के उपक्रम में बैलगाड़ी ले आये। मिट्टी को बैलगाड़ी में पटक दिया गया।
गाड़ी खीचने से पहले बैलों ने अपने सिर को झटके से हिलाया जिससे उनकी आँखों में आये
आँसू बह जायें और वे मार्ग को ठीक से देख सकें।