विधान ये सड़ा-गला।
धूप के गाँव से
छाँव माँगने चला
नर पिशाच हैं खड़े
मैं वेद बांचने चला|
चून के ढेर से
रेत बीनने चला
सिंह की माद से
शिकार छीनने चला|
पाखण्ड है प्रचण्ड
खण्ड-खण्ड है मनुष्यता
उठी हुयी खड्ग से
प्राण माँगने चला|
"असतो मा सद्गमय"
पोथियों में था पढ़ा
पापियों से न्याय
का पहाड़ माँगने चला|
ज़ख्म कौन दे रहा
इससे दर्द को है क्या
क्रूरता से उम्र का
नाता है क्या भला!
मर रही है दामिनी
रोज ही ज़रा-ज़रा
कैसा है विधान
दुष्ट भी सुधारगृह चला|
ज़ख्म रोज़ दे रहा
न्याय-न्याय रट रहा
लो, सुधर के फिर नया
शिकार ढूँढने चला|
कब नकारती हैं दर्द
उम्र की ये बेड़ियाँ
क्या जाने दर्द 'दर्द' का
विधान ये सड़ा-गला|
प्रवाहमयी-
जवाब देंहटाएंचलते चलते काटती हुई-
फटकारती हुई-
बधाइयां
बहुत बढ़िया अच्छी प्रस्तुति ,,,,
जवाब देंहटाएंबात है बहुत ही सशक्त कविता ....!!
जवाब देंहटाएंइसे कहीं भेजिए प्रकाशन के लिए ....!!