तन-मन-प्राण दिये तब है तू।
आज मुझे ही लूट रहा तू॥
तन की लिपियाँ भर देखीं पर।
मन अम्बर ना देख सका तू॥
पन्ना-पन्ना फाड़ा तन का।
एक न अक्षर बाँच सका तू॥
नर है तू मेरी कोख का जाया।
नारी ना पहचान सका तू॥
नव माह रहा भगमन्दिर में।
अंश देव का ले न सका तू॥
मुझसे ही ‘तू’ भूल गया ये।
खोकर मुझको डूब गया तू॥
काम दिखा क्यों रूप में मेरे।
माँ
को क्यों ना देख सका तू॥माँ बनकर यह सृष्टि रचायी।
आँचल का ऋण भूल गया तू॥
पतित हुयी क्यों रचना मेरी।
भूल हुयी क्या, कह न सका तू॥
कविता प्रभावित करती है। सच है, कितना पतन हो गया, कहाँ से चले और कहाँ पहुँच गए ...
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