सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

मौन को स्वर देने की चिंता में मुखरित होते मण्डीहाउस में “वे तीन दिन” का दूसरा भाग

9 फ़रवरी 2015 ; द्वितीय दिवस     ... अबे चल हट् झूठे कहीं के

 नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के परिसर का एक भाग
सुबह-सुबह अंतर्मुख में निर्देशकों और विद्यार्थियों की भीड़ थी । मैंने अपना स्थान ग्रहण किया । शीघ्र ही कल की तरह बिना किसी औपचारिकता के एक निर्देशक ने सम्बोधित करना शुरू किया । यह एक तरह की क्लास जैसी थी जिसमें कल इण्टरनेशनल थियेटर फ़ेस्टिवल ऑफ़ इण्डिया में देखे गये नाटकों की समीक्षा की जानी थी । कल आनन्द और अजय के साथ श्रीराम सेण्टर में तारिक हमीद निर्देशित प्ले “द वेव” देखने गया था । आनन्द की टिप्पणी थी कि यदि स्कूल के दृश्य भारतीय परिवेश को दर्शाने वाले होते तो ज़्यादा अच्छा होता । इस पर निर्देशक ने लम्बी चर्चा की और बताया कि यह विदेशी धरती पर घटित एक ऐतिहासिक घटना का प्ले था और इतिहास से छेड़छाड़ किया जाना उचित नहीं होता । 


रंगकर्मियों की पाठशाला
अभी समीक्षा चल ही रही थी कि किसी ने अनुपम खेर के आने का समाचार दिया । सभी लोग अंतर्मुख से निकलकर बहुमुख की ओर चल पड़े ।
पूरा कक्ष खचाखच भर गया यहाँ तक कि कुछ लोगों को ज़मीन पर भी बैठना पड़ा । मैंने अनुपम खेर को कक्ष में प्रवेश करते देखा, उनकी चाल कुछ इस तरह थी जैसे परीक्षा कक्ष में इन्विजिलेशन कर रहे हों । वे मुस्कराते हुये मंच की ओर गये और एक कुर्सी पर अभी बैठे ही थे कि तीन और निर्देशकों ने कक्ष में प्रवेश किया । तालियाँ बजीं और बिना किसी औपचारिकता के अनुपम खेर ने अपना लेक्चर शुरू किया । आज वे एक शिक्षक की भूमिका में थे ।
        अभिनय कला पर अनुपम खेर का व्याख्यान रुचिकर था, उन्होंने बहुत सी बातें बतायीं जिनमें से तीन बातों को मैंने नोट किया – 1- अभिनय सीखने के लिये कोई पाठ्यक्रम नहीं होता, 2- अभिनय सीखने की कोई उम्र नहीं होती, 3- अपने आप को कभी स्ट्रग्लर आर्टिस्ट मत कहो, यदि आपके पास काम नहीं है तो अपने आप को आर्टिस्ट विदाउट वर्क कहो ।
        मैं उनकी तीसरी बात से सहमत नहीं हुआ । ‘स्ट्रग्लर आर्टिस्ट’ कहना प्रयास और पोटेंशियल का प्रतीक है जबकि ‘आर्टिस्ट विदाउट वर्क’ एक निगेटिव स्थिति को दर्शाता है । बेहतर होगा यदि ऐसे लोग स्वयं को ‘आर्टिस्ट सीकिंग द जॉब’ कहें, यह एक गतिमान स्थिति को दर्शाता है ।
        मुझे अनुपम का शिक्षकपन अच्छा लगा, इतनी भीड़ में उनकी दृष्टि हर किसी पर थी । व्याख्यान के बीच में अचानक वे एक लड़की ओर मुख़ातिब होकर बोले – “पानी पी लो ......पानी दूँ ? ......यह आपकी इक्कीसवें जम्हाई है” । एक और युवक से वे अनायास ही बोल पड़े, जैसे कुछ याद आ गया हो – “क्यों तुम वही हो न जो कल प्रश्न पर प्रश्न पूछे जा रहे थे” ? युवक ने मना किया – “नहीं सर मैं नहीं था” । अनुपम बोले – “तुम्हीं तो थे यार, कल तुमने रंगबिरंगी शर्ट पहनी थी, आज शर्ट बदल कर आये हो” । युवक ने फिर मना किया तो अनुपम बड़े अपनत्व से डाँटते हुये बोले – “अबे चल हट् ...झूठे कहीं के” ।
        व्याख्यान समाप्त हुआ तो लोग अनुपम पर टूट जैसे पड़े .....क्या युवक क्या युवतियाँ .....सेल्फ़ी की होड़ मच गयी । लोग भद्रता और शिष्टाचार की सीमायें तोड़- मरोड़कर फेक चुके थे और अनुपम सबको बर्दाश्त किये जा रहे थे । दूरदर्शन वालों ने अवसर देखा और अनुपम खेर को गपच लिया । वे बहुमुख से बाहर निकले तो दूरदर्शन का इंटरव्यू शुरू हो गया । इंटरव्यू लगभग दस मिनट तक चला इस बीच सेल्फ़ी लेने वाले पूरी तरह निर्लज्ज हो चुके थे । मैं अभिनय के करीकुलम पर उनसे चर्चा करना चाह रहा था किंतु भीड़ उन्हें छोड़ ही नहीं रही थी । मैं दूर खड़ा होकर भीड़ से उनकी मुक्ति की प्रतीक्षा कर रहा था कि तभी छींका टूटा और वे ठीक मेरे सामने थे । मैंने खाँटी देशी अन्दाज़ में उन्हें प्रणाम किया और अभिनय के करीकुलम पर चर्चा शुरू की । वे हमारी बात से सहमत नहीं हुये । फिर बोले – “छोड़ो ये सब ....आप तो केवल एक्टिंग सीख लो ...उसी पर ध्यान दो” । शायद वे बात को टालना चाहते थे ....शायद उन्हें लगा कि मैं भी एक रंगकर्मी हूँ ।  
         भोजन का समय हो गया था और आज हम भोजन के लिये एपीडी साहब के यहाँ आमंत्रित थे ; एपीडी यानी कांकेर के महाराजा आदित्य प्रताप देव जी । इस बीच जॉली बाबा और एपीडी के कई कॉल आ चुके थे । हम मण्डी हाउस से मेट्रो पकड़कर दिल्ली यूनीवर्सिटी पहुँचे और फिर वहाँ से सेण्ट स्टीफ़ेंस कॉलेज़ ।
अजय ने कालबेल दबायी तो दरवाज़ा स्वयं महाराजा साहब ने खोला ... उनका चेहरा उनकी बेशुमार ख़ुशी को उलीच-उलीच कर बयान कर रहा था । थोड़ी गपशप के बाद जब हम भोजन की मेज पर पहुँचे तो वे बोले – “आज अगर जॉली बाबा होते यहाँ तो बहुत ख़ुश होते”। 


अफ़्रीकी काष्ठकलाकृति जो महाराजा साहब को उनके एक मित्र ने भेंट की थी 

भारत के अन्य शहरों की अपेक्षा दिल्ली का विस्तार बहुत ज़्यादा हुआ है । आज यह विस्तार दिल्ली की सीमायें तोड़कर उत्तरप्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की ओर निर्ममतापूर्वक बढ़ता जा रहा है । मुझे पता चला कि एक सेठ ने निजी विश्वविद्यालय खोलने के लिये हरियाणा की सीमा में एक सौ एकड़ कृषिभूमि ख़रीदी है । मुझे उस सेठ की निर्मम और स्वार्थी सोच पर निराशा हुयी ....और दुःख भी । ये सेठ लोग कंक्रीट का जंगल किसी बंजर ज़मीन में नहीं बना सकते क्या ?
सेमिनार के दूसरे सत्र में हम सम्मिलित नहीं हो सके । शाम साढ़े छह बजे नसीरुद्दीन शाह का प्ले “कम्बख़्त बिकुल औरत” देखने का बहुत मन था किंतु सारी टिकटें पहले ही बिक चुकी थीं, हमें यहाँ भी निराश होना पड़ा ।
एन.एस.डी. के बुक स्टोर में “परिंदे” का जून-जुलाई 2014 का अंक देखा । पत्रिका का आवरण चित्र जगदलपुर के सुभाष पांडेय का था । दिल्ली में बस्तर की कला हलचल देखकर दिल बाग-बाग हो गया । कला और साहित्य से सम्बन्धित आज ढेर सारी पुस्तकें ख़रीदीं और चाँदनी चौक से कला फ़िल्मों के कई एक सीडीज़ भी । कल से आज तक मेरी मनःस्थिति थियेटर-थियेटर हो चुकी थी । मैं थियेटर में था, थियेटर मेरे अन्दर था, थियेटर मेरे बाहर था ..... । 


कल का रंगकर्मीछात्र और आज का रंगकर्मीशिक्षक .... यानी अनुपम खेर 


शाम घिरते ही देश-विदेश से आये रंगकर्मियों और फ़िल्म निर्देशकों से

गुलजार होने लगा एन.एस.डी. का मंडपम 

1 टिप्पणी:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.