बदलते
ही मज़हब
बदल
जाते हैं
तौर-तरीके
आचार-विचार
भाषा
और वेश-भूषा
मूल्य
और संस्कृति
मान्यतायें
और आदर्श ।
जुड़
जाती है निष्ठा
एक दूर
देश की धरती से
उस
धरती के आदर्शों से
उस
धरती के लोगों से
......................
और हो
जाती है मौत
अपने
पूर्वजों के इतिहास की ।
निराकार
की अक्षय ऊर्जा का क्षरण करते
ये
मज़हब
इतने
ज़रूरी क्यों है हमारे लिये ?
मुझे भी आश्चर्य है कि मन की स्लेट पर जन्म से अंकित हुआ सब-कुछ एकदम कैसे मिट जाता है, सारे पूर्व संस्कार शून्य हो जाते हैं और अंतरात्मा के स्वर बदल जाते हैं .मज़हब ऊपर से लादी हुई चीज़ हो जाता है जो सहज-स्वाभाविक जीवन से विरत कर देता है.
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