भारतीयों
के मस्तिष्क में पश्चिमी जगत के बारे में स्थापित हो चुके विचार एक ऐसे स्वप्न जगत
की आभासी रचना करते हैं जहाँ उच्च मानवीय आदर्श हैं, वैज्ञानिक उपलब्धियों के
पब्लिक एप्लीकेशंस हैं, वैज्ञानिकविकास है, सुखी जीवन है, सुसंस्कृत और सुसभ्य
समाज है । किंतु यह उतना ही सच है जितना किसी भारतीय फ़िल्म स्टूडियो का बनावटीपन
और उसके बाहर फैली सड़ाँध भरी गन्दगी जिसे फ़िल्म के दर्शक कभी नहीं जान पाते ।
पश्चिमी
जगत औद्योगिक विकास का दीवाना है । इस दीवानेपन ने उसे मानवीयता की सारी सीमायें
तोड़ फेकने के लिये उत्साहित और प्रेरित किया है । पैसे की दीवानगी से प्रेरित
पश्चिमी उद्योगपतियों ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी निर्मम और क्रूर उद्योग की
अपसंस्कृति स्थापित करने के पाप का दुस्साहस किया है । इसका ताज़ा उदाहरण है स्वाइन
फ़्लू । आप स्मरण कीजिये, लगभग सारी नयी-नयी बीमारियाँ पश्चिमी देशों से ही शेष
विश्व में फैलती हैं फिर मामला एंथ्रेक्स का हो, सार्स का हो, ईबोला का हो या
बर्डफ़्लू का । आप जानते हैं कि AIDS के मामले में भी कारण
‘हैती’ नहीं योरोपीय देश ही रहे हैं । कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में
न्यूक्लियर बम नहीं बल्कि “क्रूर स्वास्थ्य उद्योग” ही वर्तमान सभ्यता के विनाश का
कारण बने ।
दुर्भाग्य से स्वास्थ्य के क्षेत्र में
होने वाले आविष्कारों के व्यावहारिक उपयोगों की निरापदता सिद्ध करने केलिये “थर्ड
पार्टी साइंस रिसर्च” का अभी तक उतना प्रचलन नहीं हो सका है जितना होना चाहिये । यद्यपि
कुछ आदर्श वैज्ञानिकों ने सैद्धांतिक क्रांति करते हुये “थर्ड पार्टी साइंस
रिसर्च” का बीड़ा उठाया हुआ है किंतु अनैतिक प्रोपेगैण्डा के इस युग में उनकी
रिसर्च के परिणाम आम जनता तक बहुत कम पहुँच पाते हैं ।
जनवरी
1976 में Fort
Dix NJ के एक सैनिक की ऑटोप्सी से ओरिजिनल स्वाइन फ़्लू का पहला केस
उद्घाटित हुआ था तथापि उसकी मृत्यु के कारणों में स्वाइन फ़्लू की भूमिका पूरी तरह
स्पष्ट नहीं थी । इसके पश्चात् 2009 के वसंत तक स्वाइन फ़्लू का कोई भी केस सामने
नहीं आया । इसके कुछ ही महीनों बाद स्वास्थ्य के बाज़ार में एक वैक्सीन ने पदार्पण
किया जिसकी सुरक्षाविश्वसनीयता के लिये किसी क्लीनिकल ट्रायल की कोई आवश्यकता तक
नहीं समझी गयी । इस बीच फ़िलाडेल्फ़िया के एक होटल में 34 लोगों की मृत्यु Legionnair’s
disease से हो गयी जिसे NIH (नेशनल
इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ) ने स्वाइन फ़्लू से होना प्रचारित किया । अमेरिकी मीडिया और
सरकारी अधिकारियों ने स्वाइन फ़्लू का हउवा खड़ा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।
सामान्यतः
किसी वैक्सीन को निर्माण के पश्चात ट्रायल आदि की प्रक्रिया से गुज़रने में एक वर्ष
का समय लगता है किंतु “1976 स्वाइन फ़्लू वैक्सीन” मात्र कुछ ही हफ़्तों में
आविष्कृत होकर बाज़ार में आ गयी । पैसा कमाने के शॉर्टकट तरीके को अपनाते हुये
यू.एस.पब्लिक हेल्थ सर्विसेज के वैज्ञानिकों द्वारा वैक्सीन बनाने के लिये स्वाइनफ़्लू
के वाइल्ड स्ट्रेन में एक ऐसे स्वाइन फ़्लू वायरस के जीन्स का मिश्रण किया गया जो
मैनमेड था और अपेक्षाकृत अधिक घातक था । दस सप्ताह में यह वैक्सीन अमेरिका के 50
मिलियन लोगों को लगाया गया जिसमें से 25 की मृत्यु हो गयी और 565 लोग Guillain Barre
Syndrome के शिकार हो गये । सरकार की योजना शतप्रतिशत जनता के वैक्सीनेशन
की थी किंतु वैक्सीन के कॉम्प्लीकेशंस से मचे हड़कम्प के कारण यूएस सरकार को अपना
वैक्सीन प्रोग्राम दस सप्ताह बाद ही बन्द करना पड़ा ।
इंफ़्ल्युन्जा
के लिये Orthomyxovirus
समूह के इंफ़्ल्युंजा –ए नामक उपसमूह में से एक वायरस है H1N1.
जिसके सात सौ से भी अधिक स्ट्रेन्स का पता लगाया जा चुका है । फ़्लू
वायरस के इतने सारे स्ट्रेन्स और फिर उनमें सहज म्यूटेशन की अधिकता स्वाइन फ़्लू
वैक्सीन की उपयोगिता को अवैज्ञानिक सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं ।
विश्व
स्वास्थ्य संगठन के सदस्यों के साथ वैक्सीन निर्माताओं और फ़ार्मास्युटिकल्स के आर्थिक
सम्बन्ध विचारणीय हैं और विश्व स्वास्थ्य संगठन की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े करते
हैं । वैक्सीन किस तरह एक निर्मम भयादोहक उद्योग बन गया है इसे जानने के लिये टिम
ओ’शी का लेख - “गुडबाय स्वाइन फ़्लू :
बुटीक पैंडेमिक” पढ़ा जा सकता है ।
इस
पूरे क्रूर और अवैज्ञानिक खेल में WHO की
विश्वसनीयता इसलिये और भी संदेह के घेरे में आती है कि आख़िर उसे मई 2010 में Pandemic
की परिभाषा अचानक क्यों बदलनी पड़ी ? नयी परिभाषा के अनुसार पैण्डेमिक
के लिये अब किसी बीमारी का गम्भीर और मारक होना तथा कई देशों में फैलना आवश्यक
नहीं रह गया है । निश्चित ही इस परिभाषा के पीछे कोई वैज्ञानिक तथ्य न होकर एक
क्रूर अर्थशास्त्र झाँक रहा है ।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार को '
जवाब देंहटाएंदिन को रोज़ा रहत है ,रात हनत है गाय ; चर्चा मंच 1920
पर भी है ।
जी रविकर जी ! धन्यवाद ! आज बहुत दिन बाद आपसे रू-ब-रू हो पा रहा हूँ !
हटाएंकितना क्रूर ,कितना भयावह !
जवाब देंहटाएंऔद्योगिक विकास की होड़ नें जीवन की स्वाभाविकता को पी डाला है - ऊपरी चकाचौंध में अनदेखा रह जाता मूल्यों का क्षरण पता नहीं किस सीमा तक ले जाएगा .
लक्ष्मी अपने वाहन पर बैठी मुस्करा रही है और सरस्वती को ख़रीदने के लिये उद्योगपति बोलियाँ लगा रहे हैं । उल्लू बड़ा दूरदर्शी है, जो चीज लोगों को सूर्य के प्रकाश में दिखायी नहीं देती उसे उल्लू रात के अँधेरे में भी भलीभाँति देख पा रहा है । हमारी निराशा के कारण हैं बिकाऊ सरस्वती पुत्र । कदाचित इसीलिये भारतीय वाण्ड्मय में कुपात्र को विद्या देने के लिये निषेध किया गया था ।
हटाएंसच कहा आपने .... आपसी मिली भगत से ही ये भजन चल रहा हैं.............
जवाब देंहटाएंhttp://savanxxx.blogspot.in
अंतर राष्ट्रीय मिलीभगत ।
हटाएंhmmmmm.....kitne waqt baad pdh paayi aapko baba.........:).........aankhe nam he....ki kitne waqt baad pdh rhi hun aapko..:)
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर वापसी ! अच्छा लगा । फिर से लिखना शुरू करो । ब्लॉगिंग अब ज़िन्दगी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुकी है ।
हटाएंकितना भयावह
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