सोमवार, 27 जून 2016

धर्म और आतंक


                   
धर्म और आतंक दोनों विपरीत ध्रुव हैं। धर्म सतोगुणी है तो आतंक तमोगुणी, दोनों एक साथ नहीं चल सकते किंतु कलियुग में स्वयं को धार्मिक प्रचारित कर रहे लोग यदि आतंक को ही अपना आचरण बना लें और धार्मिक स्थलों का उपयोग आतंकी घटनाओं या आतंकियों के किले के रूप में करने लगें तो धर्म की संज्ञा एवं आतंक के गठबन्धन को व्यावहारिक दृष्टि से धर्म के नाम से ही जानने और पहचाने जाने की लौकिक बाध्यता हो जाती है। लोकाभिव्यक्ति की सहज रीति यही है। तार्किक दृष्टि से यह शाब्दिक रूढ़ि ही कही जायेगी जो किसी भी समुदाय के छद्म धर्मानुयायिओं के आचरण के कारण लोक में प्रचलित हो जाती है।
कई कर्मकाण्डी समितियों द्वारा दुर्गापूजा, गणेशपूजा और सरस्वतीपूजा के वार्षिक अनुष्ठानों के समय किया जाने वाला आचरण न केवल असामाजिक, अराजक और अनैतिक होता है बल्कि अधार्मिक भी होता है। ऐसे लोगों द्वारा किया गया आचरण कभी भी जनस्वीकार्य नहीं होता। हम इसे अधार्मिक लोगों द्वारा धार्मिक आतंक के रूप में स्वीकार करते हैं जो सर्वथा निन्दनीय है। अब इसी तरह के अराजक आचरण को १९९० में कश्मीरी पण्डितों के कश्मीर से बलात् निष्कासन, मुम्बई में छत्रपति शिवाजी रेलवे स्टेशन एवं ताज होटल तथा यहूदी स्थल पर आक्रमण, भारत की संसद पर आक्रमण, वर्ल्ड ट्रेड सेण्टर पर आक्रमण, अफ़्रीका में बोको हरम की जघन्य हरकतों, फ्रांस में हुयी आतंकी हत्याओं और सन् २०१२ से सीरिया में चल रहे युद्ध और युद्ध से जुड़े अवर्णनीय जघन्य अपराधों के सन्दर्भ में देखा जाय तो समुदाय विशेष की उन्मादी उपस्थिति को स्वीकार करना ही पड़ेगा। कहने की आवश्यकता नहीं है कि एक ओर तो आतंक के लिये धर्म की व्याख्याओं और अनुयायिओं के विस्तार का सहारा लिया जा रहा है और दूसरी ओर आम धर्मानुयायिओं द्वारा व्यापकरूप से इसका सशक्त विरोध भी नहीं किया जा रहा है। यह एक गम्भीर मंथन का विषय है।      
आजकल एक नयी कहावत प्रचलन में है, “आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता”। हम इसकी व्याख्या इस तरह करते हैं – “....अर्थात् जहाँ धर्मसम्मत आचरण होता है वहाँ आतंक नहीं होता”। दुर्भाग्य से यह एक ऐसा सच है जिसे आतंकवादियों के राजनीतिक और सामाजिक पोषकों ने एक रक्षात्मक जुमला बना लिया है।
अयोध्या की प्रजा के लिये राम और भरत में कोई अंतर नहीं। जिन्हें चारो अवधकिशोरों में योग्य राजा की छवि दिखायी देती हो उनके द्वारा दिया गया वक्तव्य “कोउ नृप होहि हमहिं का हानी” जो अर्थ देता है वह अर्थ भीरु जनता द्वारा किसी विदेशी आक्रमणकारी के राजा बनने पर दिये गये इसी वक्तव्य से प्राप्त नहीं होता। दो भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में दिया गया एक ही प्रकार का वक्तव्य “कोउ नृप होहि हमहिं का हानी” भिन्न-भिन्न अर्थ देता है। ठीक इसी तरह “आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता” वाला वक्तव्य भी विद्वत्जनों की धर्मसभा में जो अर्थ देता है वह अर्थ राजनेताओं और छद्मधर्मानुयायिओं द्वारा दिये जाने पर निष्पन्न नहीं होता। 

“धर्मसम्मत आचरण” हमारे जीवन को सुव्यवस्थित और सुरक्षित रखता है किंतु “धर्म के नाम का दुरुपयोग” पाखण्ड और आतंक के लिये सुरक्षा कवच का काम करता है। यह उसी तरह है जैसे ईश्वर की सत्ता और ईश्वर नामधारी किसी अपराधीव्यक्ति का आचरण। ईश्वर सिंह नामक व्यक्ति वह सत्ता नहीं है जिसे हम सृष्टि के रचयिता ईश्वर के नाम से जानते और मानते हैं। किंतु क्रूर अपराधी ईश्वर सिंह के साथ जुड़े “ईश्वर” नाम के उच्चारण की विवशता को तो स्वीकार करना ही होगा। यह तब और आवश्यक हो जाता है जब किसी आतंकवादी के जनाजे में हज़ारों की स्वस्फूर्त भीड़ उसे कंधा देने पहुँचती है और उसके कुकर्मों को अपना समर्थन देती है। यह तब और भी आवश्यक हो जाता है जब मक़बूल भट्ट और अफज़ल गुरु के न्यायिक मृत्युदण्ड को महिमामण्डित करने के लिये कश्मीर घाटी और भारत की राजधानी में शिक्षित युवाओं का एक समूह भारत की राष्ट्रीयसम्प्रभुता को ललकारता है। ऐसे समय में तथाकथित धर्माचार्यों द्वारा भीड़ के ऐसे कृत्यों का कोई विरोध न किया जाना और भीड़ को सच्चा मार्ग दिखाने की पहल का न किया जाना समुदाय पर आरोप के साथ-साथ धर्म की भी लांछना का कारण बन जाया करता है। इस आरोप और लांछना का प्रतिक्रियात्मक विरोध करने की अपेक्षा मूल कारणों के उच्छेद के उपायों पर चिंतन करने की आवश्यकता है। हिंदूधर्म के प्रसंग में हम उन धार्मिक पाखण्डियों की कठोर शब्दों में निन्दा करते हैं जो सनातनधर्म के तत्वों को जाने बिना हिंदूधर्म के स्वयम्भू उद्धारकर्ता बन गये हैं। सनातनधर्म की दुर्गति के लिये ऐसे ही छद्मधर्माधिकारी उत्तरदायी हैं। सनातनधर्म के अस्तित्व के लिये प्रबुद्ध हिंदुओं को जाग्रत होना ही होगा।

गुरुवार, 23 जून 2016

यात्रा संस्मरण मेघालय मई 2016


न्यू जलपायीगुड़ी से गुवाहाटी के लिये हम लोग सरायघाट एक्सप्रेस में सवार हो चुके थे । भोर होने के साथ ही ट्रेन में भिखारियों, लोकल वेण्डर्स और किन्नरों की जैसे बाढ़ आ गयी थी । जनरल बोगी बन चुके ए.सी. कोच में कामाख्या से झाल-मूड़ी बेचने वाले भी सवार हो गये, कटे प्याज़ की बद्बू से ए.सी. कोच गन्धायमान हो गयी, सारे यात्री धन्य हुये । हमने इस धमाचौकड़ी के लिये स्थानीय रेलवे अधिकारियों को मन ही मन धन्यवाद दिया जिनके कारण अपनी दुनिया में खोये हम पुनः सजगता के साथ जगत की सांसारिकता से रू-ब-रू हो सके ।
गुवाहाटी पहुँचते-पहुँचते साढ़े ग्यारह बज गये, जो ट्रेन समय से पूर्व चल रही थी अब पर्याप्त लेट होकर अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो चुकी थी । स्टेशन से बाहर आये तो पता चला कि माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदर मोदी जी के आगमन की व्यस्तता के कारण शिलांग के लिये कोई वाहन उपलब्ध नहीं है । कई घण्टे भटकने के बाद एक कैब हमें शिलांग ले जाने के लिये तैयार हुयी । चार बजे तक हम शिलांग में थे ।
शाम को हम मेघालय की राजधानी शिलांग की सड़कों पर घूमने निकले । यह एक नन्हा सा शहर है जहाँ पुलिस बाज़ार के आसपास शहर की व्यापारिक गतिविधियाँ संचालित होती हैं । ख़ूब गन्दी सड़कों के दोनो ओर मांस की दुकानों, बेतरतीब लगी सब्ज़ी और फलों की दुकानों एवं भीड़ भरे बाज़ार में स्किनी टाइट जींस पहने युवतियों-किशोरियों के रेशमी बालों को हल्के से सहलाने शहर में घुस आये बादलों के अतिरिक्त कुछ और आकर्षक नहीं लगा । गन्दगी और सिगरेट पीने के मामले में सिक्किम के विपरीत यहाँ सभ्यताबोध का अभाव नज़र आया । दो किशोर एक मॉल में घुसते समय भीड़ के बीच धड़ल्ले से धुआँ उड़ाये जा रहे थे । हमें तुरंत अपना रास्ता बदलना पड़ा ।  
शिलांग में हमें तीन दिन रुकना था । दूरदर्शन शिलांग के उद्घोषक डॉ. अकेला भाई पूर्वोत्तर में हिंदी और देवनागरी लिपि के प्रचार-प्रसार के पुनीत अभियान में वर्षों से लगे हुये हैं । पूर्वोत्तर की खासी जैसी कई जनजातीय बोलियाँ रोमन लिपि अपना चुकी हैं, डॉ. अकेला भाई के अनुसार स्थानीय बोलियों के लिये देवनागरी सर्वाधिक उपयुक्त लिपि है । पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी के तत्वावधान में आयोजित त्रिदिवसीय “राष्ट्रीय हिंदी विकास सम्मेलन” में पूरे भारत से आये एक सौ से भी अधिक साहित्यकारों और चिंतकों को पूर्वोत्तर भारत में देवनागरी के प्रोन्नयन हेतु चिंतन-मनन हेतु आमंत्रित किया गया था । यह सम्मेलन देश भर के हिंदी साहित्यकारों को एक मंच पर लाने का सार्थक प्रयास तो था ही, पूर्वोत्तर से शेष भारत को भावनात्मक दृष्टि से जोड़ने का एक अनुकरणीय एवं पुनीत कार्य भी था । पूर्वोत्तर एवं शेष भारत के साहित्यकार परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित कर सकें इसलिये डॉ. अकेला भाई ने सभी के एक साथ रहने की व्यवस्था की थी । यह एक मेले के उत्सव जैसा था जहाँ हमें नीमच के साहित्यकार प्रमोद रामावत जी, कानपुर से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका नव निकष के सम्पादक डॉ. लक्ष्मीकांत पाण्डेय जी, त्रिपुरा की हिंदी साहित्यकार श्रीमती सुमिता धर बसु ठाकुर जी, गुवाहाटी की श्रीमती जयमती नर्जरी जी, आगरा के प्रोफ़ेसर अमी आधार निडर जी, हाँगकाँग के चिंतक व लेखक श्री देश सुब्बा जी आदि लोगों से मिलने और उन्हें समीप से जानने का अवसर प्राप्त हो सका । देश सुब्बा जी ने विश्व भर में फैले आतंक के सन्दर्भ में “भयवाद” के सिद्धांत का सूत्रपात करते हुये अंग़्रेज़ी में कई पुस्तकें लिखी हैं जिन्हें हिंदी में अनूदित करने का कार्य शिलांग की डॉ. श्रीमती अरुणा उपाध्याय जी कर रही हैं । साहित्यकारों की भीड़ में हमारी आँखें गुवाहाटी निवासी श्रीमती हरकीरत हीर जी को खोजती रहीं किंतु पता चला कि उन दिनों वे पहाड़ छोड़कर तराई की गर्मी में पसीने से तर-बतर हो रही थीं ।
उस दिन हम गोस्वामी जी के कमरे में बैठे थे कि तभी मधुर स्वर की स्वामिनी श्रीमती जयमती जी अपने घर के बने तिल के लड्डू ले कर आयीं, उनका यह अपनत्व अच्छा लगा । वे हमें लड्डू खिलाकर गयी ही थीं कि त्रिपुरा की सुमिता ने कमरे में प्रवेश किया । गोस्वामी जी ने उनके कोकिल कण्ठ की प्रशंसा करते हुये उनसे एक गीत सुनाने का आग्रह किया जिसे बिना किसी नखरे के सुमिता ने स्वीकार कर लिया । उनकी सरलता, मधुर वाणी और बच्चों जैसे सरल स्वभाव ने हमें भी आकर्षित किया । सुमिता की चाल ऐसी जैसे बिहू नृत्य का पदसंचलन हो ।
शिवस्वरूप को अकेला भाई का आतिथ्य बहुत अच्छा लगा, विशेषकर भोजन । सम्मेलन का अंतिम दिन पर्यटन को समर्पित था । अकेला भाई हमें चेरापूंजी ले जाने वाले थे । सुबह के स्वादिष्ट नाश्ते के बाद साहित्यकारों के समूह ने प्रस्थान किया । मार्ग में कई स्थानों पर रुकते और मेघालय के प्राकृतिक सौन्दर्य को मन-मस्तिष्क पर अंकित करते हुये हम हाथी प्रपात की ओर बढ़ चले । एक दिन पूर्व ही यहाँ प्रधानमंत्री जी का आगमन हुआ था इसलिये भरपूर प्राकृतिक सौन्दर्य के बाद भी नकली फूलों के कई गमले वहाँ सजाये गये थे । जैसा कि हर जगह होता है, हमने यहाँ भी पर्यटकों को प्रकृति से बतियाते या उसका अहर्निश गायन सुनते नहीं देखा । सभी लोग विभिन्न मुद्राओं में अपने और अपने परिवार के फ़ोटो लेने में व्यस्त दिखायी दिये ।
शिलांग भ्रमण के पश्चात् हम लोग चेरापूंजी जिले की ओर बढ़े । यहाँ की संकरी और रोमांचक हाथी गुफा में छत से टपकते पानी में घुले चूने से निर्मित आकर्षक पाषाण आकृतियों को जी भर निहारने के बाद भी जी नहीं भरा । हम वहाँ एक दिन रुकना चाहते थे किंतु समय की बाध्यता ने हमें हटक दिया । गर्वीले पर्वतों के वक्ष पर बने मनोहारी रास्तों से होते हुये हम आगे बढ़ चले । हमने चेरापूंजी में पहाड़ की चोटी पर स्थित वन विभाग के साढ़े पाँच हेक्टेयर में विस्तृत थांग्खारंग पार्क से घाटी में झाँकने के रोमांच के साथ-साथ नीचे घाटी में फैली नदी के उसपार बांग्लादेश और भारत के बीच स्थूल सीमारहित काल्पनिक सीमा की पीड़ा का भी अनुभव किया । अकेला भाई हम सबके लिये भोजन के पैकेट्स, मीठे पेय और पानी की बोतलें साथ ही लाये थे । हमने शिवस्वरूप और सुमिता के साथ पार्क के प्रवेश द्वार के पास घास पर बैठकर भोजन किया । शिवस्वरूप अब तक अकेला भाई के भोजन और आतिथ्य के कायल हो चुके थे ।
चेरापूँजी के अधिकांश मार्ग से होते हुये अल्हड़ हिमानी मेघों को पर्वत चोटियों से अठखेलियाँ करते देखना अद्भुत अनुभव था । हिमानी मेघ कभी हमारे आगे होते तो कभी हमारा पीछा करते से प्रतीत होते, वे कभी हमारे ऊपर उड़ते हुये गर्व से हमें निहारते तो कभी नीचे घाटियों में लुकाछिपी करते दिखायी देते और हद तो तब हो जाती जब वे अचानक नीचे उतरकर हमें अपने आगोश में भर कर चुम्बनों की झड़ी लगा देते । हम शरमाते हुये बाहर से अन्दर तक भींगते रहने के सिवाय और कुछ नहीं कर सकते थे ।  
पूरे रास्ते मेघालय की पर्वत श्रृंखलायें अल्हड़ किशोरी सी हमारे साथ भागती रहीं और मेघ जी भर–भर शरारतें करते रहे । हमें मेघों की शरारतें अच्छी लग रही थी, वे हमें बरस पड़ने की धमकी भी देते जा रहे थे । यूँ हम उनकी हर शरारत के लिये तैयार थे किंतु वे नहीं बरसे और केवल गप्पें भर मारते रहे । हमें उनका यह अन्दाज़ भी अच्छा लगा । मेघालय के आशिक़ मिज़ाज़ मेघ हमें लूटते जा रहे थे और हम ख़ुशी-ख़ुशी लुटते जा रहे थे .. इस वादे के साथ कि हम फिर-फिर आते रहेंगे ... बस, यूँ ही लुटते रहने के लिये । 




मेघालय के नन्हें-मुन्ने 


भीड़-भाड़ राह बाट जोहते खड़ी देश की लली  


आसमान का ओढ़ दुशाला पथ पर सोया पीनेवाला । 
हुआ बेख़बर इस दुनिया से सपनों में खोया मतवाला ॥  


हँसी-ठिठोली करते बादल, झुके देखने तेरी पायल  


चेरापूँजी के पथ पर साथ-साथ चलते ये बादल 


हाथी गुफा की भीतर का एक दृष्य 


शीतल-निर्मल झरता जल 


दूर नदिया के पार अपने कट गये हिस्से बांग्लादेश को निहारते लोग 


दो देशों के बीच ऐंठन भरी एक खुली सरहद 


सरहद की खिल्ली उड़ाता वृक्ष ... 
खींच लो सरहदें ... एक दिन कुछ नहीं छोड़ेंगी ये सरहदें ! 

बुधवार, 15 जून 2016

रूपजीवा कामजीवा


पुरुष की दृष्टि में स्त्री का रूप रमणीय है और उसकी लीला अद्भुत् । रूपाकर्षित कायाभोगी पुरुष ने रूपजीवाओं को कायाव्यापार के लिये आमंत्रित कर अपनी सहभागिता सुनिश्चित् की और स्त्रीदेह एक व्यापारिक वस्तु बन गयी । वहीं बलिष्ठ देह के उद्दाम कामज्वार की आकांक्षिणी स्त्री ने कायाकाम के वरण में सामाजिक मर्यादाओं की उपेक्षा की और अपनी काया को कंचन से विनिमय के लिये मुक्त हो जाने दिया । 
कायाकाम ने स्त्री-पुरुष दोनो को ही सदा से आकर्षित किया है । कदाचित सभ्य मनुष्य का सर्वाधिक चिंतन काम को लेकर ही है । यह चिंतन काम की स्वीकार्यता, उसकी मर्यादा-अमर्यादा, नैतिकता, पवित्रता और सामाजिक पक्षों को लेकर होता रहा है । वैदिक साहित्य में यम-यमी कथा और ब्रह्मा की अपनी पुत्री के प्रति कामासक्ति का उल्लेख किया गया है जिसे लेकर वेदों, हिंदू धर्म और ब्राह्मणों की प्रगतिवादियों द्वारा आये दिन छेछालेदर किये जाने की परम्परा चल पड़ी है । उन्हें फ्रॉयड का चिंतन अधिक प्रगतिवादी, वैज्ञानिक और पवित्र लगता है जिसने “जित देखूँ तित काम” सिद्धांत की स्थापना की । कायाकाम को लेकर फ़्रायड से बहुत पहले संस्कृत में कोकशास्त्र, कुट्टिनीमतम् आदि की रचनायें की गयीं । प्राचीन संस्कृत साहित्य में कायाकाम सम्बन्धित कथाओं की कमी नहीं है । काम स्वीकार्यता, काम विरोध, काम नैतिकता, काम पाखंड आदि विषयों को आदर्श के तराजू पर रखे जाने के प्रयास भी होते रहे हैं ।
ब्रह्मा सृष्टि के रचयिता हैं और अपनी सृष्टि यानी सरस्वती पर कामातुर हो मुग्धावस्था को प्राप्त हो जाते हैं । पुत्री पर पिता के कामासक्त हो जाने का आरोप लगाने से पूर्व हमें इस कथा का विश्लेषण करने की आवश्यकता है । ब्रह्मा सृष्टि के आदि रचयिता हैं, वे सूक्ष्म पञ्चतन्मात्राओं, पञ्चमहाभूतों और ब्रह्माण्डीय वृहत पिण्डों से लेकर मनुष्य तक अखिल चराचर जगत के रचनाकार हैं । यह ब्रह्मा कौन है ? यह कोई देवता है, कोई जीव है, कोई अदृश्य शक्ति है या कुछ और ? निश्चित् ही यह ब्रह्मा कोई अदृश्य शक्ति है, कोई पुरुष नहीं जो यौनाचार कर सके । फिर यह कौन ब्रह्मा है जो अपनी पुत्री सरस्वती के प्रति कामासक्त हो  उठा ?
हमें यह निरंतर ध्यान रखना होगा कि हम उस ब्रह्मा की बात कर रहे हैं जो अखिल ब्रह्माण्ड का रचनाकार होने के नाते सबका जनक है , सबका पिता है । हम यह भी जानते हैं कि कोई भी रचना विभिन्न संयोगों का प्रतिफल होती है । यह संयोग सम भी हो सकता है और विषम भी किंतु नव सृष्टि के लिये संयोग के घटक सदा ही विपरीत स्वभाव एवं गुण-धर्म वाले ही होंगे । दर्शन की भाषा में इन्हें प्रकृति और पुरुष की संज्ञा दी गयी है जिनका फ़्यूज़न सृष्टि की अनिवार्य शर्त है । सृष्टि के क्रम में नवीन रचनाओं के प्रति आदिरचनाकार की ऊर्जा का आकर्षण निरंतर प्रगाढ़तर होता जाता है । वृहत खगोलीय पिण्ड हों या कोई जीव, सभी की रचना के लिये यह एक अपरिहार्य घटना क्रिया है । इस घटना क्रिया को ब्रह्मा का अपनी बेटी (रचना) के प्रति कामासक्त होने के रूप में भी देखा जा सकता है । देखने को तो आधुनिक भौतिक शास्त्रियों ने ब्राउनियन मूवमेण्ट में शिव के नृत्य को ही देखा और प्रकाश के संचरण में फ़ोटॉन्स के तालबद्ध नृत्यलास्य को भी देख लिया । परमाणु के इलेक्ट्रॉन्स का अपनी ऑर्बिट्स में परिसंचरण नृत्य का वह आदि रूप है और दो विपरीत गुण-धर्म वाले तत्वों का फ़्यूज़न वह रति रहस्य है जो चराचर जगत में कई रूपों में प्रकट होता है । विपरीत ध्रुवीय चुम्बकीय आकर्षण पिण्डीयकाम या भौतिक अनुराग का सूत्रपात करता है । इस रासलीला (रहस्यलीला) को समझने के लिये वैशेषिक दर्शन के साथ-साथ एटॉमिक फ़िज़िक्स का अध्ययन बहुत आवश्यक है अन्यथा अर्थ के स्थान पर अनर्थ की ही उपलब्धि हो सकेगी ।       

यह स्पष्ट है कि वैदिक साहित्य किसी एक व्यक्ति द्वारा रचित न होकर कई लोगों द्वारा संकलित हैं, अस्तु वैदिक विचार एक दीर्घ कालखण्ड का प्रतिनिधित्व करते हैं । वैदिक साहित्य के संकलनकर्त्ताओं ने कायाकाम सम्बन्धी कटु यथार्थों का उल्लेख प्रशस्ति के लिये नहीं बल्कि तत्कालीन पाखण्डों को यथावत् प्रस्तुत करने के लिये किया है । परवर्ती संस्कृत साहित्य में कामकथाओं के विवरण भी कामव्यापार की प्रशस्ति नहीं करते बल्कि कामविकारों के प्रति तत्कालीन समाज को सचेत ही करते प्रतीत होते हैं । अब बात आती है ऋषियों के निन्दनीय कामाचरणों की जिनका प्राच्य साहित्य में बारबार उल्लेख किया गया है । ऋषियों के निन्दनीय कामाचरणों की किसी भी साहित्य में प्रशंसा की गयी हो ऐसा मुझे नहीं लगता । उनके निन्दनीय कामों के अनुकरण का उपदेश कहीं दिया गया हो ऐसा भी नहीं लगता । इसलिये इन कृत्यों के लिये वेदों, ब्राह्मणों और हिन्दू धर्म को लांछित किया जाना सर्वथा अनुचित है । महत्वपूर्ण बात यह भी है कि ऋषि होने के लिये ब्राह्मण होना अनिवार्य नहीं है । 
हमारे चिकित्सकीय जीवन में कामसमस्यायों और उनकी विकृतियों को लेकर आने वालों में शीर्षक्रम से अविवाहित युवक, किशोर, व्यापारी, वाहनचालक, अधिकारी, शिक्षक, मज़दूर, विवाहिता स्त्रियाँ और धार्मिक स्थलों के कर्मकाण्ड करवाने वाले सम्मानित श्रृद्धेय लोग सम्मिलित हैं । इससे वर्तमान भारतीय समाज की कायाकाम सम्बन्धी स्थितियों का एक चित्र उपस्थित होता है । यह चित्र कायाकाम के सत्य और उनके पाखण्डों पर पर्याप्त प्रकाश डालता है । किंतु यह इस बात का प्रमाण नहीं है कि इस सबके लिये हिन्दू धर्म एक प्रेरक तत्व के रूप में कार्यरत है । जिस देश में हिन्दू बारम्बार शरणार्थी जीवन के लिये बाध्य होते रहे हों वहाँ हिन्दूधर्म को दोष देना कितना उचित है ?  
आज शैक्षणिक संस्थानों में कण्डोम मशीन की उपलब्धता कायाकाम को नियंत्रित करने की नहीं बल्कि सुरक्षित यौनसम्बन्ध स्थापित करने की स्वीकृति का परिचायक है । सेना के उच्चाधिकारियों में अल्पावधि के लिये पत्नियों की अदला-बदली कायाकाम की वर्गविशेष में प्रच्छन्न स्वीकृति है । अनैतिक और अवैधानिक होते हुये भी महानगरों में कायाकाम केन्द्रों (चकलाघरों) के विभिन्न रूप देखने को मिलते हैं । यहाँ स्त्री देह का शोषण भी है और उद्दामकाम की सहज स्वीकृति का व्यापार भी । हम इन्हें दो वर्गों में विभक्त करना चाहते हैं – रूपजीवा और कामजीवा । रूपजीवाओं में जहाँ हम विवश और निर्धन स्त्रियों को पाते हैं वहीं कामजीवाओं में उच्चवर्ग की सम्पन्न कालगर्ल्स को पाते हैं । यह वर्गीकरण यौनाचार के व्यापार में पुरुष के वर्चस्व को अपेक्षाकृत हलका करने में सहायक है ।  

सहज काम की सहज स्वीकृति और मर्यादाओं का एक स्वरूप हमें वनवासियों की उन प्राचीन परम्पराओं में मिलता है जिनमें कायाकाम को नदी के प्रवाह की तरह मानकर कामजल को अंजुरी से भर-भर पीने की मर्यादित स्वीकृति किशोरों को प्रदान की गयी है । वनवासी संस्कृति में किशोरावस्था की उत्सुकता कायाकाम को सहज भाव से स्पर्श करते हुये उद्दाम प्रेम को बहने देने का अवसर प्राप्त कर शांत होती है । वहाँ वेगवती नदी के प्रवाह को बाँधने का प्रयास नहीं किया गया इसलिये उनके समाज में कामविकृतियों की न्यूनता देखने को मिलती है ।
एक प्रश्न यह भी है कि जब हम अपनी भोजन की आवश्यकताओं को कहीं भी जाकर पूरा कर सकते हैं तो कायाकाम की आवश्यकताओं को क्यों नहीं कर सकते ? उसके लिये ही क्यों एक खूँटे से बंधे रहने की बाध्यता है ? इसका उत्तर भोजन और अमर्यादित यौनाचार करने के परिणामों के विश्लेषण की अपेक्षा करता है जिसमें स्त्रीदेह की दुर्दशा और अवांछित गर्भ की समस्या प्रमुख चिंतनीय बिन्दु हैं । पत्नियों की सुरक्षित और सहमतिपूर्वक अदला-बदली एवं सुरक्षित यौनसम्बंधों की जुगाड़ ने नैतिकता की आवश्यकता को धता बता दी है । चूँकि ये पत्नियाँ रूपजीवायें नहीं हैं इसलिये इनके कामाचार को देहव्यापार नहीं माना जा सकता । समाज के उच्च वर्ग में यह तेजी से व्याप्त होती जा रही ऐसी परम्परा है जो लालच और प्रश्न दोनो को एक साथ जन्म देती है । हमारी समस्या काम नहीं, उद्दामकामावेग पर विवेकपूर्ण नियंत्रण के अभाव की प्रवृत्ति है । भौतिक सम्पन्नता और मुक्तकाम की लिप्सा ने पत्नियों की अदला-बदली को, पारिवारिक विघटनों और उद्दामकामज्वर ने देहव्यापार को और पाशविककाम ने यौनदुष्कर्मों की अमर्यादित परम्पराओं को जन्म दिया है । क्या इन सब सामाजिक और सांस्कृतिक विकृतियों के लिये वेदों, ब्राह्मणों और हिन्दू धर्म को लांछित किया जाना उचित है ?

  

रविवार, 12 जून 2016

यात्रा संस्मरण सिक्किम मई 2016

  
22 मई की सुबह हम सिलीगुड़ी में थे जहाँ से हमें कलिंगपोंग होते हुये गंगटोक जाना था । सुबह सात बजे की बस से हमने कलिंगपोंग के लिये प्रस्थान किया । शिवस्वरूप रास्ते भर सोते रहे और हम प्रकृति का सौन्दर्य अपनी आँखों में भरते रहे । दस बजे के लगभग हम कलिंगपोंग में थे, वहाँ जाकर पता चला कि गंगटोक का रास्ता चार घण्टे का है तो हमने आगे बढ़ने का निर्णय किया और चोटी वाले की गाड़ी से गंगटोक की ओर चल पड़े । दोपहर बाद हम गंगटोक में थे । थके होने के बाद भी हमने आसपास ही थोड़ी बहुत तफरीह की और अगले दिन के लिये परमिट की औपचारिकतायें पूरी कीं । सिक्किम में चीन के सीमावर्ती क्षेत्रों में जाने के लिये अस्थायी परमिट लेना पड़ता है जिसके लिये पहले से ही दो पासपोर्ट साइज़ फ़ोटो और परिचय पत्र की छायाप्रतियाँ रख लेना सुविधाजनक होता है । औपचारिकता एक दिन पहले से कर लेनी होती है । हमें होटल मालिक ने बताया कि ऐसा करना पर्यटकों की सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक होता है ।
20 मई के बाद से हम फलों, मिठाइयों और कॉफ़ी आदि से काम चला रहे थे । पर्यटन की अवधि कितनी भी लम्बी क्यों न हो हमें भोजन के स्थान पर स्थानीय फल, सूखे मेवे, स्थानीय मिठाइयाँ, दूध और कॉफ़ी लेना ही अधिक सुविधाजनक लगता है । अस्तु, थोड़ा-बहुत खाकर हम दोनो सो गये ।
हम जिस होटल में ठहरे थे वहाँ बड़ी-बड़ी आँखों और गोल चेहरे वाली एक सिक्किमी युवा लड़की, जो कि ट्रैफिक पुलिस कर्मचारी थी, सुबह-सुबह अपना बैग रखने आती थी । रोज की तरह उस दिन भी वह आयी, काउण्टर पर ही बैग से मेकअप का सामान निकाला, पहले से ही ख़ूबसूरत आँखों में काजल लगाया और पहले से ही ख़ूबसूरत ओठों पर लिपिस्टिक लगायी, फिर अपने छोटे से आइने में ख़ुद को कई बार निहारा । आइने में ख़ुद को जी भर निहारते-निहारते उसने हमसे पूछा – “आज कहाँ जाना है?”
हमारे “छांगू लेक” बताते ही वह चौंकी, बोली “इसी तरह ... इतने कम कपड़ों में ? और पैरों में जूते भी नहीं ... चप्पल से नहीं चलेगा । आपको कुछ गर्म कपड़े लेने चाहिये ...और जूते भी । वहाँ बहुत ठण्ड है ... शाम तक पानी बरसना तय है ...बर्फ़वारी भी हो सकती है ।”
इस अप्रत्याशित सूचना से हम किंचित परेशान हुये किंतु दूकानें खुलने में अभी बहुत समय था और नकचढ़ा नोर्वो इतनी देर प्रतीक्षा नहीं कर सकता था । हमने ऊपर ही कहीं रास्ते में ग़र्म कपड़े ख़रीदने का निश्चय किया ।    
23 की सुबह नोर्वो की गाड़ी से हमने छांगू झील के लिये प्रस्थान किया । रास्ते में दो-तीन स्थानों पर हमें ख़राब रास्ते के कारण रुकना पड़ा । तीन-चार स्थानों पर पुलिस और सेना के जवानों ने हमारे परमिट चेक किये । पूरा रास्ता दैवीय शक्ति और सौन्दर्य से आप्लावित लगता रहा ।   
वाहन चालक नोर्वो एक स्वाभिमानी किंतु बहुत ग़र्म मिज़ाज़ युवक था । किसी से भी उलझने में उसे कोई संकोच नहीं होता था । छांगू लेक पहुँचते-पहुँचते हमने उसके मिज़ाज़ के एक कोमल हिस्से को पहचान लिया, उसके रूक्ष चेहरे पर मुस्कान आयी और फिर तो हमारी अच्छी पटने लगी । वास्तव में वह एक सहयोगी प्रकृति का युवक था जिसे ड्राइविंग के साथ-साथ गाइड का काम करने में भी मज़ा आता था । एक स्थान पर जब गाड़ी रुकी तो उसने हमें चेतावनी दी – “सिक्किम में खुले स्थान पर प्रसाधन करना और सिगरेट पीना अपराध है, पुलिस वाले देख लेंगे तो आपको पकड़ेंगे और आप मुश्किल में पड़ जायेंगे ।”
यहाँ नोर्वो ने कॉफ़ी पी और हमने अपने लिये एक जैकेट ख़रीदी । ऊपर वास्तव में पानी भी बरसा और बर्फवारी भी हुयी । हमने मन ही मन ट्रैफ़िक सुन्दरी को धन्यवाद दिया ...वह सचमुच धन्यवाद के साथ-साथ एक कप कॉफी की भी हकदार थी किंतु इस समय यह सब सम्भव नहीं था । हमने नीचे घाटी में चरते यॉक के, कुछ चट्टानों के और कुछ पर्वत चोटियों के चित्र लिये और आगे बढ़ गये ।
एक ख़ूबसूरत मोड़ पर नोर्वो ने गाड़ी रोक दी । वहाँ बर्फ़ थी और लोग बर्फ़ पर फिसल रहे थे, तराई से आये कुछ लोग अपनी आदत से मज़बूर थे और उन्होंने कुरकुरे के रैपर्स और कोल्ड ड्रिंक्स की खाली बोतलें इधर-उधर फेकना शुरू कर दिया । पूरे भारत में अपनी स्वच्छता के लिये विख्यात सिक्किम की धरती को तराई के लोगों का यह दुर्व्यवहार अच्छा नहीं लगता तभी तो वहाँ की धरती कुनमुनाती है और वहाँ जब-तब लैण्ड स्लाइड की घटनायें होती रहती हैं ।
ख़ूबसूरत छांगू झील और हाथी झील होते हुये हम पहले बाबा मन्दिर गये । कहा जाता है कि जवान हरभजन सिंह वहाँ आज भी अपने ड्यूटी पूरी मुस्तैदी से करते हैं । हरभजन सिंह के नाम से वहाँ एक मन्दिर बना है जिसे लोग बाबा मन्दिर के नाम से जानते हैं । इस स्थान से कुछ आगे बढ़ने पर चीन ऑक्यूपाइड तिब्बत की सीमा प्रारम्भ होती है । हमने वहाँ कई एक बंकर देखे, जंगली पुष्प देखे और देखा भारतीय जवानों का देश की सीमाओं के प्रति समर्पण ।
वापसी में हम लोग हाथी झील और फिर छांगू झील रुके । प्रकृति यहाँ सदा ही श्रृंगार किये रहती है । इन देवस्थलों का चुम्बकीय आकर्षण अद्भुत् है । सौन्दर्य और वैराग्य का अद्भुत् संयोग यहाँ की विशेषता है । मन था कि कम से कम पूरे एक दिन तो वहाँ रह पाते । हम युक्सोम,लाचेन, लाचुंग, जुलुक और नाथुला भी जाना चाहते थे किंतु समय सीमाओं से बंधे हम लोग चाहकर भी वहाँ नहीं जा सके । सोचा, अगली बार वहीं जायेंगे ।
शाम तक हम वापस गंगटोक आ गये । कुछ फल, मिठायी का सेवन और कॉफ़ी पीकर हम दोनो ने महात्मा गांधीमार्ग स्थित बाज़ार घूमने का निश्चय किया । गंगटोक में आवागमन के लिये टैक्सियों की बहुत अच्छी सुविधा है किंतु हम दोनो ने पैदल ही प्रस्थान किया । फूलों के गमलों से सजे फ़ुटपाथ और ओवर ब्रिज से होते हुये हम बाज़ार पहुँचे । अभी तक हमने जितने भी बाज़ार देखे हैं उनमें यह पहला ऐसा बाज़ार है जो सर्वाधिक आकर्षक, स्वच्छ, सुन्दर, सुप्रबन्धित और मर्यादित है जिसने अपनी विशेषताओं के कारण चण्डीगढ़, काठमाण्डू और कोलकाता की बाज़ारों को भी पीछे छोड़ दिया है ।
सामान्यतः शहर मुझे पसन्द नहीं हैं, मैं गाँवों में घूमना पसन्द करता हूँ किंतु गंगटोक वाकई में ख़ूबसूरत है । यहाँ की वादियाँ, पर्वत चोटियाँ, सड़कें, बाज़ारें और लोग ... सब कुछ बेहद ख़ूबसूरत । शाम हमने एम.जी. रोड पर टहलते और चित्र लेते बितायी । यह एक यादगार और बेहद ख़ूबसूरत शाम थी । साफ-सुथरी चौड़ी सड़क, बीच के डिवाइडर में उगे रंगबिरंगे फूल, फव्वारे, रंगीन रोशनियों से जगमगाता बाज़ार, आइस्क्रीम खाकर रेपर को डस्टबिन में डालते सिक्किमी नागरिक, बेंच पर बैठी सुन्दरियाँ और चहल कदमी करते लोग ...
मुझे वे गाँव और शहर अच्छे लगते हैं जहाँ शुद्ध खोये की मिठाइयाँ मिलती हैं । सिक्किम के अतिरिक्त प्रायः शेष भारत में शुद्ध खोये की मिठायी की कल्पना भी ख़तरे से खाली नहीं है । सिक्किम इस मामले में निरापद है ... और इसलिये भी सिक्किम मुझे पसन्द है ।
24 मई की सुबह साढ़े सात बजे अपने वादे के अनुसार तासी गोड़िया ने होटल में दस्तक दी । पेलिंग जाने के लिये हम पहले ही तैयार हो चुके थे, इसलिये विलम्ब न करते हुये गाड़ी में बैठे और चल दिये । गंगटोक से न्यू जलपाईगुड़ी के मार्ग में लेगशिप पड़ता है जहाँ से पेलिंग और जोरथांग का रास्ता कटता है । न्यू जलपाईगुड़ी का रास्ता जोरथांग से भी है । गंगटोक से पेलिंग का रास्ता बहुत ख़राब था, कई जगह लैण्ड स्लाइड के कारण हमें रुकना पड़ा । रास्ते में पड़ने वाले रमटेक बौद्ध मठ, सिक्किम की पुरानी राजधानी, पवित्र झील, रिम्बी झरना आदि होते हुये दक्षिण सिक्किम जिले के एक गाँव दरप पहुँचते-पहुँचते शाम हो गयी थी ।
कार से उतरते ही गुरुंग होम स्टे के संचालक शिवम गुरुंग ने हाथ जोड़कर अभिवादन किया । हम और शिवस्वरूप तासी और शिवम् के साथ ऊपर पहुँचे जहाँ शिवम् की भतीजी और टीटी ने हमारा स्वागत किया । लगभग एक एकड़ से भी अधिक स्थान में फैला शिवम् का घर अच्छा लगा । थोड़ी औपचारिक चर्चा के बाद शिवम् ने हमें हमारी हट में पहुँचा दिया । ज़ल्दी ही शिवम की भतीजी सावित्री चाय और बिस्किट ला कर रख गयी । हमें सचमुच घर जैसी अनुभूतियाँ हो रही थीं । साथ की अन्य हट में एक मलेशियायी परिवार था, दूसरी और तीसरी हट्स में दो ब्रिटिश युवतियाँ अपने-अपने भारतीय मित्रों के साथ थीं ।
भोजन की व्यवस्था कॉमन हॉल में थी । टीटी और उसका नन्हा पिल्ला हमारे आसपास ही मंडराते रहे । शिवस्वरूप को कुत्ते-बिल्ली बिल्कुल भी पसन्द नहीं हैं जबकि कुत्तों से हमारी दोस्ती होने में देर नहीं लगती । हमने शिवम् की लाइब्रेरी से “Food security and Human care” उठायी और भोजन परोसे जाने तक पन्ने पलटते रहे । भोजन परोसने में शिवम् की भतीजी के अतिरिक्त उनकी पत्नी और बहन भी थीं । भोजन हमारी रुचि के अनुरूप था- इस्कुस के कोमल पत्तों की भाजी, दाल, चावल, सब्ज़ी, पोदीने की चटनी और रोटी । हमने शिवम् के घर में पहली बार इस्कुस की बेल और टमाटर का वृक्ष देखा । रास्ते में तासी ने बताया था कि सिक्किम में टमाटर का पौधा ही नहीं, बड़ा वृक्ष भी होता है । वास्तव में यह एक अलग प्रजाति का वृक्ष है जिसके फल टमाटर के आकार के होते हैं और जिनका उपयोग खाने के लिये किया जाता है । हिमांचल की तरह लाल रंग की मूली यहाँ भी देखने को मिली ।
सुबह शिवम् को प्रातः भ्रमण पर जाते देख, मैंने भी साथ जाने की इच्छा प्रकट की । शिवम् खुश हो गये, टीटी भी हमारे साथ हो ली । रास्ते में कई विषयों पर चर्चा हुयी, यथा – सिक्किम की शिक्षा व्यवस्था, बेरोज़गारी, परम्परागत खेती के स्थान पर इलायची की खेती के प्रति दीवानगी, स्टेपल फ़ूड के लिये अन्य प्रांतों पर निर्भरता, अपराध की स्थिति, कुटीर उद्योग, निर्धनता, कुपोषण और स्वास्थ्य सेवायें, सांस्कृतिक संकट और लुप्त होती लोकपरम्परायें ... आदि ।
प्रातः भ्रमण के समय शिवम् ने बताया था कि सिक्किम के गाँवों में पारस्परिक सहभागिता से सारे कार्य सम्पन्न किये जाने की प्राचीन परम्परा रही है जिसे परमा कहा जाता है । साम्यवादी देशों में भी यह परम्परा स्थापित करने का प्रयास किया गया था किंतु सांस्कृतिक-सामाजिक चेतना और पारस्परिक निष्ठा के अभाव में कहीं भी सफल नहीं हो सकी । तराई के लोगों के आवागमन और उनकी सांस्कृतिक शिथिलताओं के प्रभाव से परमा परम्परा संकटग्रस्त हो रही है । शिवम् के साथ-साथ मेरे लिये भी यह चिंता का विषय है । हम सिक्किम को शेष भारत के दुष्प्रभावों से सुरक्षित रखना चाहते हैं ... और यह एक बहुत बड़ी चुनौती है । हमने इन्हीं विषयों पर चर्चा करते हुये एक तात्कालिक कार्ययोजना बनायी जिससे शिवम् बहुत उत्साहित हुये । हमें सिक्किम के दैवत्व को हर हाल में बचाना ही होगा । 
सचमुच, मुझे तो सिक्किम एक दैवीय स्थान लगा, प्राकृतिक सौन्दर्य के साथ नागरिकों की जागरूकता, स्वच्छता, देवियों जैसी सुन्दर लड़कियाँ, गठीले युवक, लोगों का भोलापन और गाँवों की परमा परम्परा ...सब कुछ मनमोहक सब कुछ सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् !
हम दोनो को कई दिन बाद घर जैसी नींद आयी, शिवस्वरूप अभी एक दिन और शिवम् का आतिथ्य सुख उठाना चाहते थे किंतु हमें हर हाल में 26 मई की शाम तक मेघालय की राजधानी शिलांग पहुँचना ही था । सुबह सावित्री ने आकर अभिवादन करते हुये चाय के लिये पूछा । शिवस्वरूप के हाँ कहने की देर कि वह ट्रे में चाय और बिस्किट लेकर पहुँचा गयी । स्नान के बाद शिवम् ने नाश्ते के लिये आमंत्रित किया । हम लोग लॉन में बैठे, पास में एक ओर बैठे थे उल्लू के दो प्यारे से बच्चे और दूसरी ओर था एक छोटा सा पोखरा जिसमें मछलियाँ तैर रही थीं ।
25 मई की शांत सुबह ! शिवम् की पत्नी और भतीजी ने लॉन में टेबल पर नाश्ता लगा दिया । नाश्ते में उबले आलुओं के साथ थी पोदीने की चटनी और चावल का बना फितुक या खोले जिसे मक्खन मिलाकर बनाया जाता है । नाश्ता करते-करते देखा सामने तासी खड़े मुस्करा रहे थे । हम उनका संकेत समझ गये । नाश्ते के बाद हमने शिवम् से बिदा लेनी चाही तो वे हमें कॉमन हॉल में ले गये जहाँ उनकी पत्नी ने शुभकामनाओं और आगे की यात्रा की मंगलकामनाओं के साथ हमें सफ़ेद दाख पहनाया और दोनो हाथ जोड़कर अभिवादन किया । शिवम् ने उपहार में हमें चार पैकेट्स दिये, दो में उनके खेत की ऑर्गेनिक हल्दी थी, एक में उनके खेत की बड़ी इलायची और एक पैकेट में थे उनकी पत्नी के गाँव के ऑर्गेनिक चावल । हमने अतिथि डायरी में कुछ लिखा, परिवार के साथ फ़ोटो सेशन हुआ, सावित्री के सिर को सहला कर प्यार किया, सबको नमस्कार किया, टीटी और उसके नन्हें शैतान पिल्ले को दुलराया और स्नेह का एक बन्धन साथ लेकर और एक बन्धन वहीं छोड़कर आगे की ओर बढ़ चले । शिवम् अभिभूत थे, उनकी पत्नी, बहन और छुटकी सावित्री भी, जैसे कि अपने किसी सगे को विदा कर रहे हों । हम पूरे चौबीस घण्टे भी तो नहीं रह सके थे वहाँ, और इतनी ही देर में स्नेह और आदर की एक छोटी सी निर्मल धारा वहाँ बह चली थी ।
थोड़ी ही देर में हम कार में थे, तासी ने गाड़ी चालू की और हम रिम्बी झरने की ओर बढ़ चले । रिम्बी में कुछ देर रुक कर हम फिर आगे बढ़े । तासी हमें खेचुपुरी के एक बहुत पुराने बौद्ध मठ ले गये और समीप ही स्थित एक पवित्र झील भी ।
ख़ूबसूरत रास्तों, झरनों और सड़क किनारे उगे फूलों को लालची की तरह जी भर निहारते हम अब सिलीगुड़ी के रास्ते पर थे । तीस्ता के किनारे चलते-चलते जब हम सिक्किम पार करने ही वाले थे कि शिवस्वरूप ने चुटकी ली – “भाईसाहब ! जहाँ से सड़क किनारे गन्दगी के लक्षण मिलने शुरू हो जायें तो समझ लेना कि हम भारत छोड़कर इण्डिया में प्रवेश कर चुके हैं ।”   


 घाटी मेंं याक 


बादलों से होड़ 



हाथी झील 


 बाबा मन्दिर के पास का एक बंकर 


 पर्वतीय पुष्प 


रिम्बी झरना 


पर्वतीय पुष्प 


 लैण्ड स्लाइड से आयी रुकावट दूर करती स्थानीय व्यवस्था  


 पर्वत शिखरों को दुलराते हिमानी मेघ 


 एम.जी. रोड मार्केट गंगटोक 


 सच्चे राष्त्रवादी 


चोटी वाला 


 चित्रकार मेघ 


 तासी गोड़िया के साथ कॉफ़ी का मजा 


 राबदेंत्से के भग्नावशेष, सिक्किम की पुरानी राजधानी 


बीघा शिंगशोर पुल दक्षिण सिक्किम