जे.एन.यू.
वाले विद्वान ने दावा किया है कि वह शुकबाला को अच्छी तरह जानता है और यह कि
शुकबाला का नाम तोताकुमार है । मैं पूछता हूँ, ज्वालामुखी की गहरायी को कोई जान
सका है भला ! फिर भी, यह जो तुम्हारा तोताकुमार है न, उसका वामांग शुकबाला का ही
है । चिकित्सा विज्ञान के प्रथम वर्ष में ही अपने एनाटॉमी के गुरु से यह जानकर मैं
विस्मित हुआ था । बाद में कोलकाता के ही सी.सी. चटर्जी ने अपनी फ़िज़ियोलॉजी की
टेक्स्ट बुक में फ़ीटल डेवलपमेण्ट वाले अध्याय में इसकी विस्तार से पुष्टि कर दी तो
यह प्रमाणित हो गया कि तोताकुमार के शरीर में अर्धनारीश्वर की तरह शुकबाला के
अस्तित्व को कोई माई का पूत मिथ्या सिद्ध नहीं कर सकता ।
तो यह
सिद्ध हुआ कि शुकबाला की देह में कम से कम पचास प्रतिशत स्त्री तो है ही जो उद्दाम
काम और काम-प्रतिशोध की रक्तरंजित कवितायें लिखती है । किंतु ठहरिये ! क्या केवल
रक्तरंजित कवितायें ही ? ध्यान से देखिये ... वहाँ कुछ और भी है जो विराट और
रहस्यपूर्ण भी है ।
जो लोग
शुकबाला को एक स्त्री मानते हैं उन्हें मैं बता दूँ कि वह स्त्रियों का एक समूह है
। इस समूह की स्त्रियों की आयु लाखों वर्ष है । ज्वालामुखी एक दिन में तो नहीं बन
जाता न !
शुकबाला,
गुण्डाधूर, अबूझमाड़ और घोटुल इन चारों में कई समानतायें हैं...
विशाल मैग्नीट्यूड
वाले चुम्बक से युक्त इन चारों में से गुण्डाधूर अब नहीं हैं इसलिये उस प्रसंग को
छोड़ देते हैं शेष तीनों की चुम्बकीय शक्ति अद्भुत् है, लोग खिचे चले आते हैं
....किसी रहस्यमयी दुनिया को अनावृत करने के लोभ में । मार्ग दुर्गम है... रास्ता
अबूझ है... लोग भटक रहे हैं और जिसे जो मिल पा रहा है उसे ही शुकबाला, अबूझमाड़ और
घोटुल मानकर भाँति-भाँति के दावे कर रहा है । किंतु इन तीनों को बूझ पाना हँसी-खेल
है क्या ?
अबूझमाड़
? आज भी अबूझ है बस्तर का यह माड़ और यह अबूझता ही लोगों के आकर्षण का केन्द्र है ।
जब हम बूझ नहीं पाते तो रहस्य का आकर्षण और भी गहरा हो जाता है ।
घोटुल ?
बस्तरियों का एक रहस्यमय संसार ! तरह-तरह की बातें... कटाक्ष भी... आकर्षण भी...
कुछ सत्य भी... कुछ झूठ भी... । किंतु इस सबके बाद भी कोई दावे से यह नहीं कह सकता
कि उसने घोटुल के तिल-तिल को बूझ लिया है ।
और
शुकबाला ? ...जैसे घोटुल की अँधेरी रात, एक
ओर बोनफ़ायर के ढेर में चटचट की आवाज के साथ श्मशान का सा आभास कराती जलती लकड़ियाँ,
विषबुझे तीरों के साथ एक ओर रखे धनुष, धारदार टंगिया, रात में पायल सी खनकती हँसी,
बीच-बीच में ठिठोली... और रात्रिक्रीड़ा का मुक्त संसार ! घोटुल वर्ज्य है बाहरी
लोगों के लिये... उन लोगों के लिये जो घोटुल के लिये अपात्र हैं... उन लोगों के
लिये जो रहस्य के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं और तिल-तिल को कर डालना चाहते पूर्ण अनावृत
। प्रकृति को रहस्य प्रिय है, शक्ति को रहस्य प्रिय है, स्त्री को रहस्य प्रिय है
। रहस्य प्रिय था अर्धनारीश्वर को भी... तभी तो वे शिव हैं ।
शुकबाला
शैय्या है और क्रीड़ा भी, वह रात्रि का अंधकार है और अन्धकार में चमकती चिंगारी भी,
वह रात्रि का रहस्य है और दिन का श्मशान भी, वह भय है और आकर्षण भी, वह मृत्यु है
और जीवन की अदम्य लालसा भी, वह प्रेम की उद्दाम लहर है और प्रतिशोध की पराकाष्ठा
भी, वह पूर्ण मूक है और घोर मुखर भी, वह तृषाग्नि है और तृप्ति की शीतलता भी....
किंतु क्या इतना ही ? नहीं-नहीं... शुकबाला इतनी ही नहीं है... यह तो एक अंश भी
नहीं है । तब.... कितनी है शुकबाला ? क्या है शुकबाला ? मैंने सूत्रधार से पूछा तो
उसने रहस्य को और भी घना करते हुये मुस्कराकर कहा – “कोन जाने बाबू ! तयं पढ़े-लिखे
हावे.. तयं जान”। तब मैनें हरिवंश राय बच्चन की आत्मा को स्मरण किया । उन्होंने
राह सुझायी, बोले – “राह पकड़ तू एक चला चल मिल जायेगी शुकबाला” ।
और शुकबाला
गंगासागर हो गयी...
गंगा जी
की यात्रा दीर्घ है... गोमुख से गंगासागर तक, किंतु गंगासागर की यात्रा ?
हिमनद
से द्रवित हो पर्वत की गोद से उछलती, किलकारी मारती, शिलाखण्डों के दर्प को
चूर-चूर करती, हिमालय के रजकणों को मायके की धरोहर की तरह संजोती गंगा कहीं
बलखाती-नृत्य करती है तो कहीं जैसे थक कर शांत होती और फिर उठकर चलती हुयी अपनी
यात्रा पूरी करती है । किंतु गंगासागर में स्वयं को उड़ेल देने से पूर्व गंगा जी ने
बंगाल में शुकबाला के कान में कोई मंत्र पढ़ा था । वह मंत्र आज भी शुकबाला के कानों
में गूँजता है । यह वर्षा ऋतु थी जब गंगा जी ने शुकबाला के कानों में यह मंत्र पढ़ा
था, शुकबाला तब तन्वी हो उठी थी । उसके कपोल रक्तिम हो उठे थे, वह रजस्वला गंगा जी
को हाथ जोड़कर प्रणाम करना चाहती थी किंतु दोनों हाथ जुड़ने के स्थान पर फैल गये थे
गोया वह गंगा जी को बाहों में भर लेना चाहती हो । शुकबाला की बाहें तब से आज तक
खुली ही हुयी हैं... किसी को अपनी बाहों में भर लेने को आतुर ।
कई साल
पूर्व बंगाल के एक छोटे से कस्बे के किनारे बहती गंगा ने एकदिन शुकबाला को
गंगासागर बना दिया । संयोग की बात यह कि गंगा जी से अपनी प्रथम भेंट के समय वह भी
गंगा जी की तरह रजस्वला हुयी थी... जैसे गंगोत्री में कुण्ड की अवमानना कर प्रथम
बार क्षरित हो उछल कर बही हो गंगा । मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में रजस्वला हुयी थी
शुकबाला । दादी मणिप्रभा की अनुभवी आँखों से कुछ छिप न पाया । उस दिन शुकबाला के
घर स्त्रियों ने उत्सव मनाया और पुरुष चिंतित हुये ।
अब वह
कन्या से किशोरी हो चुकी थी और एक दिन जबकि वह कामज्वर की तीव्र वेदना में छटपटा
रही थी, अनायास आयी तीव्र आँधी ने उसे गंगासागर बना दिया था । गंगासागर बनते ही वह
खारी हो उठी, आसपास के छिछोरों ने गीत गाये – “छोरी पटवारी की बड़ी नमकीन......” और
“घेरदार घाघरा उठाय के चली लोहार की लली...” । किंतु शुकबाला की इस पीड़ा को कोई
नहीं समझ सका कि वह अपने विस्तृत किनारों से कितनी घिर चुकी है ।
तब से
शुकबाला समुद्र बन गयी है... जिसके भीतर हैं लावा उगलते न जाने कितने ज्वालामुखी ।
पिघला हुआ तप्त लावा समुद्र में समाता जाता रहा है और शुकबाला समुद्र की विशाल
सीमा में बन्दिनी हो कर रह गयी है । गंगा बह सकती है, बह कर जा सकती है किंतु
समुद्र ! उसे तो अपनी सीमाओं में ही उछलना है, गिरना है, गरजना है, थकना है, शांत
होना है... और फिर तप्त लावा के अंतः दबाव से उद्वेलित हो विस्फोटित हो जाना है ।
गंगासागर
“गंगा” नहीं बन सकता, गंगा “गंगासागर” नहीं बन सकती । गंगा सा प्रवाह सागर कहाँ से
लाये, और सागर के अंतस्तल में छिपे लावा उगलते ज्वालामुखी गंगा कहाँ से लाये ? हाँ
! नीर दोनों के नेत्रों में है ... कहीं शीतल तो कहीं तप्त ।
आपने
देखे हैं शुकबाला के अनमेनीफ़ेस्टेड आँसू ? जब वह श्मशान में भैरवी नृत्य करती है
तब उसके खप्पर से रक्त बनकर टपकते हैं रंगहीन आँसू । अगली बार देखियेगा ।
देखिये
! तनिक सावधानी से मेरे पीछे-पीछे आइये...
मैं
आपको कंटीली झाड़ियों, धारदार पत्तों, उलझी हुयी लताओं, विषैले कीटों-मच्छरों, भयानक
विषधरों से युक्त और सूर्य रश्मियों से वंचित घने जंगल के उस स्थान पर ले चल रहा हूँ जहाँ झरने
के निर्मल जल में स्नान करती श्यामा सुन्दरी शुकबाला अघोर नृत्य में सुध-बुध खोकर
तल्लीन है । उसका नृत्य भय और रोमांच के साथ अद्भुत् लास्य उत्पन्न कर रहा है । वादक
दल में हैं वीणा बजाते झींगुर और हवा की वंशी बजाते वृक्षों के पत्ते । दर्शक हैं
भालू, शुक, लंगूर और वन भैंसे ।
क्या
कहा, मार्ग दुर्गम है ?
हाँ !
सो तो है, घोर कष्टप्रद है मार्ग... वन्य पशुओं के हिंसक आक्रमणों की सम्भावनाओं,
पेड़ पर लटकते अजगर के झपट्टे और कंटीली झाड़ियों से देह के बिंध जाने का संकट तो है
ही... किंतु शुकबाला को देखने-जानने के लिये मेरे साथ यह दुर्गम यात्रा करनी ही
होगी आपको ।
कोई बात
नहीं ! आप कोई संकट मोल नहीं लेना चाहते तो हम भी आपको बाध्य नहीं करेंगे । किंतु
यदि शुकबाला को देखने की इतनी अदम्य इच्छा ने आपको बाध्य कर ही दिया है तो हम आपको
ऋषिकेश ले चलते हैं जहाँ दस वर्ष की शुकबाला श्री गंगा जी के किनारे अपनी गीली
फ़्रॉक का थैला सा बनाकर छोटे-छोटे पत्थर चुन कर रखती जा रही है । जल प्रवाह से
घिस-घिस कर आकृति ग्रहण कर चुके चिक्कण हुये गोल, अण्डाकार, शिवलिंग जैसे या आकृति
ग्रहण करने की प्रक्रिया से गुज़रते हुये अनगढ़ पत्थरों पर बनी रंगीन रेखाओं में न
जाने किन आकृतियों को खोजती नन्हीं शुकबाला मगन है । वह इतनी तल्लीन है पत्थर
चुनने में कि वह यह भी नहीं जान सकी कि एक युवा साधु कितनी तृषित दृष्टि से पीता
जा रहा है उसे, किंतु शुकबाला को इससे क्या, वह तो दुनिया से खोकर दुनिया में रमण जो
कर रही है ।
यह बहुत
पहले की बात है, तब शुकबाला को भी यह पता नहीं था कि एक दिन उसके चुने यही पत्थर
कविता बन जायेंगे । पत्थर हैं तो कठोर होंगे ही... किंतु उन पत्थरों की आकृतियों
और रंगीन धारियों से उभरे चित्रों के मोह को संवरण कर पाना शुकबाला के वश में तब
भी नहीं था और आज भी नहीं है ।
आत्ममुग्धा श्यामा शुकबाला आज सर्वांग सुन्दरी है... किंतु उतनी ही रहस्यमयी भी जितनी कि प्रकृति स्वयं है । कभी वह कृष्ण-विवर बनकर ताण्डव नृत्य करती दिखायी देती है तो कभी तप्त लावा उगलती ज्वालामुखी । वह अनंत ब्रह्माण्ड के न जाने कितने रहस्यों को अपने में समेटे कभी विराट से विराट हो जाती है तो कभी गॉड पार्टिकल सी सूक्ष्म ।
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