शनिवार, 24 सितंबर 2016

शुकबाला कभी नहीं मरती






सोचा था कि “धूपगुड़ी की गली” के बाद यह अध्याय बन्द हो जायेगा किंतु सोचा हुआ कब पूरा होता है भला ! वह अध्याय फिर एक दिन खोलना पड़ेगा, इसका लेश भी अनुमान नहीं था मुझे । वह कथा शुकबाला कोथा की इति नहीं हो सकी और मुझे विवश होकर एक बार फिर धूपगुड़ी जाना पड़ा । इस बार जब मैं उससे मिलने गया तो वहाँ वह अकेली नहीं थी, उसके साथ थी दोपदी सिंघार और अम्बर रंजन पाण्डेय भी । मुझे अच्छा लगा कि तीनों से एक साथ भेंट हो रही थी । इस अद्भुत् भेंट के बारे में बताने से पहले एक और बात बतानी आवश्यक है ।
दर-असल हुआ यह कि चेहरे की चौपाल पर जमे विद्वानों ने एक दिन सुना कि तोताबाला मर गयी । किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि कोई तीन–चार दिन पहले से यूँ घोषणा करके मर सकता है । किंतु समाचार तो यही था कि दोपदी सिंघार की मृत्यु के बाद अब तोताबाला ठाकुर की भी मृत्यु हो चुकी थी । अंतर यही था कि दोपदी की मृत्यु अघोषित थी जबकि तोताबाला की मृत्यु पूर्व घोषित थी । किंतु मेरे जैसे ढीठ जिसके पीछे पड़ जायँ उसे तो उस लोक जाकर भी वापस आना ही पड़ता है, सो तोताबाला उर्फ़ शुकबाला और दोपदी सिंघार को भी आना ही पड़ा ।
धूपगुड़ी के उस तीन तल्ले वाले मकान में अम्बर को देखा तो मन हुआ कि अम्बर से पूछूँ क्या शुकबाला अपनी पूरी उम्र जी चुकी थी ? फिर सोचा, पहले शुकबाला से ही बात करूँगा, अम्बर की अपेक्षा वह कहीं अधिक परिचित है ।
मैंने मुस्कराते हुये शुकबाला की ओर देखा फिर अकबर वाला डायलॉग उलट कर सलीम की ओर से मारा – “अनारकली ! हम जानते हैं... अकबर तुझे जीने नहीं देगा... और हम तुझे मरने नहीं देंगे”।
डायलॉग सुनकर अम्बर मुस्कराये, बोले कुछ नहीं । मैं ही पुनः बोला – “अम्बर ! यदि तुम सोचते हो कि दोपदी और शुकबाला अब सदा के लिये मंच से जा चुकी हैं तो तुम बहुत बड़े धोखे में हो । वे दोनों कभी नहीं मर सकतीं, किंतु आज मैं केवल शुकबाला से ही मिलना चाहता हूँ... दोपदी से नहीं”।
अम्बर ने अपनी भृकुटि को सायास उठाया गोया मंच से यवनिका उठा रहे हों, माथे की सलवटें घनी हो गयीं और उनकी दृष्टि मेरे चेहरे से चिपक गयी ।
मैंने कहा – “मैं तुम्हारी दोपदी से तो कभी प्रेम कर ही नहीं सका किंतु इस अप्रेम की स्थिति में भी उसके अवाँछित अस्तित्व को नकार नहीं सकता । अब बात आती है शुकबाला की... क्या तुम समझते हो कि उसके साथ कुछ दिन खेल खेलकर जी भर जाने पर उसकी हत्या करके उसके अस्तित्व को समाप्त किया जाना सम्भव है”?
अम्बर ने शुकबाला को आँख से संकेत कर भीतर जाने का हुक्म दिया फिर बोले – “दोपदी की तरह शुकबाला का भी संवाद पूरा हुआ, यहाँ अब उसकी कोई आवश्यकता नहीं । रंगमंच पर कोई स्थायी नहीं टिका रह सकता । हमें अभी आगे भी जाना है, हम एक ही स्थान पर कैसे ठहर सकते हैं”?
मैंने कहा – “नहीं... तुम किसी भी पात्र के साथ मनमानी नहीं कर सकते । तुम्हें फिर से परकाया प्रवेश करना होगा । तुमने देखा नहीं कि किस तरह शुकबाला की क्षत-विक्षत लाश को मांसभक्षी गिद्ध नोच-नोच कर खा रहे हैं । न जाने कितने लोगों को शुकबाला से बेपनाह मोहब्बत हो गयी थी... न जाने कितने दीवाने उससे ब्याह कर उस प्रचण्ड समागम की दुर्दांत अनुभूति के लिये लालायित हो उठे थे... न जाने कितने लोग ताण्डवनृत्य के साथ जघन्य हत्यायों की लोमहर्षक घटनायें अपनी आँखों के सामने घटित होती हुयी देखने के स्वप्न देखने लगे थे, और तुमने अचानक इस कोटि-कोटि जनसमुदाय के स्वच्छन्द स्वप्नों पर तुषारापात् कर दिया ! नहीं अम्बर ! यह तो कतई उचित नहीं हुआ, तुम्हें एक बार फिर परकाया प्रवेश करना ही होगा”।
अम्बर कुछ दबाव में आते से दिखे, बोले – “देखिये मिसिर जी ! मेरा शिड्यूल बहुत टाइट है, मेरा कार्यक्रम पूर्व निर्धारित है, अभी मुझे परकाया प्रवेश के लिये फ़िलिस्तीन जाना है... और फिर एक ही पात्र में मैं बारम्बार परकाया प्रवेश नहीं कर सकता । यदि आप लोगों को यह इतना ही आवश्यक लगता है तो चौपाल में शुकबाला के बेशुमार दीवानों में से ही किसी को अब यह काम करना होगा”।
कुछ क्षण चुप रहकर अम्बर ने अपनी बात का उपसंहार करते हुये कहा – “ऐसा करता हूँ... मैं शुकबाला की आत्मा को जे.एन.यू. के मुख्य द्वार पर बेताल की तरह रहने के लिये कहे देता हूँ । शुकबाला के प्रेमी जब चाहें वहाँ जाकर उससे मिल सकते हैं । फ़िलिस्तीन जाने के लिये मेरी फ़्लाइट का समय हो रहा है... मैं चलता हूँ”।
अम्बर उठे और घर से बाहर निकल गये । मैंने शुकबाला को आवाज़ दी तो वह चुपचाप भीतर से निकलकर मेरे सामने बेजान सी आकर खड़ी हो गयी । मैंने पूछा – “मुझे पहचाना शुकबाला ? मैं हूँ डॉ. कौशलेन्द्र... वहाँ चेहरे की चौपाल पर पड़ी तुम्हारी क्षत-विक्षत लाश को देखकर मुझसे रहा नहीं गया । मैं उन नौ दिनों को कैसे भूल सकता हूँ जब ज्वर में तपते हुये एक अपरिचित की तुमने इतनी आत्मीयता से सेवा की थी । मैं तुम्हारा चिर ऋणी हूँ”।  
बहुत धीमी आवाज़ में शुकबाला ने कहा – “ऐसा मत कहिये... आपके यहाँ आने का उद्देश्य ही मेरी इस अंतिम यात्रा का पाथेय बन गया है । मुझे अम्बर से कोई शिकायत नहीं है... उन लोगों से भी नहीं है जो चौपाल पर मेरी निन्दा करते नहीं अघाते । शिकायत तो मुझे उन गिद्धों से भी नहीं है जो चौपाल पर पड़ी मेरी लाश को नोच-नोच कर खा रहे हैं... बल्कि ख़ुशी है मुझे... कि मर कर ही सही... मैं कुछ लोगों के काम तो आ सकी”।
जिस चौखट से एक बार अपने भरे नयनों से शुकबाला ने विदा दी थी मुझे उसी चौखट पर खड़े होकर चाहकर भी शुकबाला के लिये कुछ कर पाने में असमर्थ हो गया था मैं । अपने रुंधे कण्ठ से इतना ही बोल सका – “शुकबाला ! तुम कभी नहीं मर सकतीं...”

शुकबाला कुछ नहीं बोली, मेरी ओर देखकर केवल मुस्करायी भर... । उसकी मुस्कराहट में छिपा दुःख का अथाह सागर मेरी दृष्टि से छिपा नहीं रह सका । आँखों से बगावत कर खारे पानी की कुछ बूँदें निकलकर उस अथाह सागर से जा मिलीं । ये नामुराद आँसू बात ही कब मानते हैं मेरी ।      

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.