नदी पियासी तड़प रही है सूरज हुआ उदास
कर धान के वादे मरुथल से, है मेघों
में उल्लास ॥
आग जलाने नदी निचोड़ी
बालू में से तेल
अँधियारों ने डाल दिया
किरणों को फिर से जेल ।
शोधपत्र ले चोर हैं बैठे सिर पर धारे
ताज
हाथ भेड़ियों के तलवारें भेड़ें हुयीं
उदास ॥
जौहरियों को काम मिला
देने फूलों को पानी
स्वर्ण हार बनाने बैठे
हैं बगिया के माली ।
बाबा जी की कुटिया जैसे राजा का
प्रासाद
रम्भा घिरी भीड़ से कोई ना सीता के पास
॥
ठग्गू-भग्गू के है ज़िम्मे
देना सबको उपदेश
धोबी करे किसानी, हो गये
पंडित जी रंगरेज ।
क़ातिल को मिल गयी सुरक्षा मृतकों को
कुछ लाख
है कौवों के कुनबों में रौनक, हैं हंस
बिचारे दास ॥
ऐसी उलटबाँसियाँ आज अपना गूढ़ार्थ छोड़ कर व्यावहारिक रूप दिखाने लगी हैं .
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