शनिवार, 22 अक्टूबर 2016

कौवों के कुनबे

नदी पियासी तड़प रही है सूरज हुआ उदास
कर धान के वादे मरुथल से, है मेघों में उल्लास ॥

आग जलाने नदी निचोड़ी
बालू में से तेल
अँधियारों ने डाल दिया 
किरणों को फिर से जेल ।
शोधपत्र ले चोर हैं बैठे सिर पर धारे ताज 
हाथ भेड़ियों के तलवारें भेड़ें हुयीं उदास ॥

जौहरियों को काम मिला  
देने फूलों को पानी
स्वर्ण हार बनाने बैठे
हैं बगिया के माली ।
बाबा जी की कुटिया जैसे राजा का प्रासाद
रम्भा घिरी भीड़ से कोई ना सीता के पास ॥

ठग्गू-भग्गू के है ज़िम्मे
देना सबको उपदेश
धोबी करे किसानी, हो गये
पंडित जी रंगरेज ।
क़ातिल को मिल गयी सुरक्षा मृतकों को कुछ लाख

है कौवों के कुनबों में रौनक, हैं हंस बिचारे दास ॥     

1 टिप्पणी:

  1. ऐसी उलटबाँसियाँ आज अपना गूढ़ार्थ छोड़ कर व्यावहारिक रूप दिखाने लगी हैं .

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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.