गुरुवार, 24 नवंबर 2016

थीसिस...






वे तीन थे, दो लड़के और एक लड़की, लड़के तेरह-चौदह के आसपास और लड़की नौ-दस के आसपास । लड़के आपस में दोस्त थे और लड़की उनमें से एक की बहन । दोनों लड़के सामान्य थे किंतु लड़की गज़ब की सुन्दर थी । यदि वह केवल नहा-धोकर साफ कपड़े भर पहन लेती तो कोई नहीं जान पाता कि वह अपने भाई के साथ कचरा बीनने का काम करती है । शहर में किसी को उनसे कोई मतलब नहीं था किंतु कई मोहल्लों के कुत्ते उनसे परिचित थे । शहर में यत्र-तत्र बिखरे कूड़े-कचरे के ढेरों पर वे लोग समानाधिकार से विचरण करते और अपने-अपने मतलब की चीजें खोजा करते ।

मैंने देखा, कचरे से बीनी गयी उपयोगी चीजों से भरे हए तीन बोरे नीचे रखे थे, शायद उनका आज का काम ख़त्म हो गया था इसीलिये तीनों फ़ुरसत में नगरपालिका के स्कूल की टूटी बाउण्ड्रीवाल पर बैठकर गीत गा रहे थे । लड़की प्लास्टिक की एक टूटी केन को छड़ी से पीटे जा रही थी और दोनों लड़के चिल्ला-चिल्लाकर गीत गाये जा रहे थे । तीनों मस्ती में थे, गीत-संगीत में डूबे हुये, उनके आनंद की सीमा नहीं थी । उनके गीत में साहित्य नहीं, गायन में सुर नहीं, वादन में ताल नहीं फिर भी वे आनंदित थे । आनंद के मार्ग में व्याकरण, सुर और ताल पराजित हो चुके थे ।
घण्टे भर बाद तीनों नीचे उतरे, लड़की ने एक झोले में रखी पॉलीथिन से खाने का कुछ सामान निकाला फिर तीनों हँस-हँस कर बतियाते हुये खाने लगे । निश्चित् ही उनके पास व्यंजन नहीं थे किंतु जो भी था उससे मिलने वाली संतुष्टि  का भाव उनके चेहरों पर देखा जा सकता था । 

दो दिन बाद तीनों फिर नज़र आये । पीठ पर गंदे बोरे लादे तीनों बड़ी हैरत से बैंक के बाहर सड़क तक लगी लम्बी कतारें देख रहे थे । उन्हें कोई ज़ल्दी नहीं थी इसलिये वे हँसते हुये सड़क के पार जाकर एक जगह अपने-अपने बोरों को नीचे पटक उनसे पीठ टिकाकर बैठ गये और भीड़ को देखने लगे । उनके आनंद के विषय बहुत मामूली से थे, जिनमें दूसरों को ढूँढने से भी कुछ नहीं मिलने वाला था । लाइन में लगे लोग, उनके खड़े होने और बतियाने का तरीका, बीच-बीच में लाइन को लेकर चूँ-चपड़, व्यवस्था बनाते वर्दी पहने बैंक के गार्ड, लड़कियों के हेयर स्टाइल और कपड़ेबहुत कुछ था जो उनके लिये आकर्षक था और आनंद का विषय भी । शायद वे आज रात के सपने के लिये दृश्यों को बटोर रहे थे... उनके लिये दुनिया में यही तो था जो बिना पैसे खर्च किये लिया जा सकता था ।

मुझे नहीं पता कि कल सुबह इन बच्चों को खाना मिलेगा या नहीं किंतु इतना अवश्य पता है कि राष्ट्र के निर्माण में भारत की भीड़ और इन तीन बच्चों के योगदान के तुलनात्मक अध्ययन पर कभी कोई थीसिस नहीं लिखी जायेगी । 

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

रूढ़ हो चुकी प्रगतिशीलता...




प्रगति का उद्देश्य परिमार्जन है... यथास्थिति में सार्थक परिवर्तन है... एक स्पन्दन है जो ऊर्ध्वमुखी गति का आह्वान करता है और जड़-चेतन के प्रति करुणा का अनुरोध करता है ।

एक समय था जब पाखण्ड और यथास्थितिवाद का विरोध प्रगतिशीलता का लक्षण माना जाता था । प्रगतिशील लोग विकृत हो चुकी रूढ़ियों पर प्रहार करते, उनके मार्ग में जो भी आता वे सब उनके लक्ष्य पर आ जाया करते । समय बदला और प्रगतिशीलता स्वयं में रूढ़ एवं विकृत होती चली गयी । शोषण के विरुद्ध “प्रगति” के वादे पर वादों के जंगल में एक और नया वाद प्रकट हुआ – “प्रगतिवाद” । “वादों” की एक प्रकृति होती है । कोई भी “वाद” भीड़ से विशिष्ट होने की प्रतिज्ञा करता है और फिर “वादों” की भीड़ में खो जाता है । 
प्रगतिवाद के नाम पर राजनीतिज्ञों और साहित्यकारों में से कुछ को उठा लिया गया, कुंठा का बाज़ार सजाया गया और भारतीयता के प्रतीक रहे सिद्धांतों और आदर्शों पर निर्मम प्रहार प्रारम्भ कर दिये गये । सीमाओं का उल्लंघन, मर्यादाओं का अतिक्रमण और वर्तमान का विखण्डन ही प्रगतिवाद के नाम पर आचरणीय होने लगा । आधुनिक प्रगतिवाद में उग्रता और असहिष्णुता का समावेश बड़ी तीव्रता के साथ हुआ । इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में भारत के लोगों ने “असहिष्णुता” के विविध रूपों के दर्शन किये । एक दिन वह भी आया जब “चोर-चोर” चिल्लाकर भागते हुये “चोरों” की ज़मात को भारत ही नहीं पूरी दुनिया ने बड़े आश्चर्य से देखा । “चोर-चोर” चिल्लाकर भागने वाले “चोरों” ने तो अपना परिचय “प्रगतिवादी” के ही रूप में दिया था किंतु मार्क्स, लेनिन और माओ की आत्माओं ने उन्हें अपना अनुयायी स्वीकार करने से इंकार कर दिया ।
और तब दिल्ली और कलकत्ता की गन्दी गली के किसी छोर पर हेरोइन का धुँआ फेफड़ों में खींचने वाले चौंके... अंतरजातीय-अंतरधार्मिक विवाह करने वाली विश्वबन्धुत्व और विश्वधर्म के सपनों में खोयीं नवविवाहितायें चौंकी... वेदों और ब्राह्मणों को गरियाने वाले आधुनिक ब्राह्मण चौंके... बी.एम.डब्ल्यू. कार के पास खड़े होकर चरस पीते जिगोलोज़ चौंके... समलैंगिक यौनसम्बन्धों के उपभोक्ता चौंके... बड़ी-बड़ी दाढ़ियाँ चौंकी... बड़ी-बड़ी बिन्दियाँ चौंकी... कि चोर आख़िर लुप्त कहाँ हो गया ?      

बुधवार, 16 नवंबर 2016

एवेलैंच





दलजीत सिंह को जैसे कुछ चेत सा हुआ, उसने सजग होकर दोनों हथेलियों से अपने आँसू पोंछे और फिर गुरमीत को फ़ोन लगाया । लन्दन से फोग में भीगी एक ठण्डी आवाज़ ने करनाल को मायूस कर दिया । गुरमीत बस इतना ही पूछ सकी – “क्या हुआ ?”

उत्तर में दलजीत के भीतर का बाँध ढह गया । गुरमीत को लगा जैसे लन्दन से शुरू हुआ एक एवलाँच करनाल की ओर चला आ रहा है । हिचकियों ने दलजीत की आवाज़ को जकड़ लिया और गुरमीत तो जैसे सुन्न हो गयी ।

अंततः जब एवलाँच रुका तो गुरमीत ने फ़ोन पर एक बेहद सर्द आवाज़ को सुना – “मीते ! जिसे अपने घर में कोई घास नहीं डालता उसके लिये दुनिया में कहीं कोई घास नहीं उगा करती”।

“आप मायूस मत हो, वाहे गुरु पर भरोसा रखो । बताओ तो आख़िर हुआ क्या ?”

“बताया न ! मेरे लिये यू.के. में भी घास नहीं है । वही हुआ... जो अधिकांश हिन्दुस्तानी साइंटिस्ट्स के साथ होता है । इस रिसर्च में भी मेरा कहीं कोई नाम नहीं... ”।   

“इफ़ेक्ट्स ऑफ़ लाइफ़ स्टाइल एण्ड एथिकल ग्रुप्स ऑन ज़ीन-म्यूटेशन” को सुबह से न जाने कितनी बार पलट चुका हूँ । मेरा इसमें कहीं नाम नहीं है । ख़ुद को भरोसा दिलाने के लिये एक-एक पेज को पलट कर देख चुका हूँ... शायद कहीं किसी रिफ़रेंस में ही नाम हो ...किंतु नहीं ..... हर बार निराशा और गहरी होती चली गयी । लोग इतने ख़ुदग़र्ज़ और बेशर्म हो सकते हैं .....यह अन्दाज़ा  नहीं था । सोचता था कि रिसर्च की चोरी सिर्फ़ भारत में ही होती है... किंतु यहाँ आकर यह भरोसा भी टूट गया”।

“किसका नाम... किसका भरोसा ? नेकी कर दरिया में डाल... ”- गुरमीत के शब्दों ने जैसे एक गुनगुनी कॉफ़ी का प्याला बढ़ाने की कोशिश की ।

दलजीत ने एक इण्ड्यूस्ड हँसी अपने हलक से बाहर फेंकने की कोशिश की किंतु वह सफल नहीं हुआ, उसने कहा – “हाँ रे मीते ! अब समझ में आया कि भारत में वैदिक ग्रन्थ अपौरुषेय क्यों कहे जाते हैं और एन्सिएण्ट इण्डिया की ढेरों अद्भुत् रिसर्च के पीछे किसी का नाम क्यों नहीं है । काश ! वह परम्परा आज भी होती................
और सुन............ आज तेरी बहुत याद आ रही है... ”

गुरमीत समझ गयी... लन्दन में एवलाँच की एक लहर फिर आयी हुयी है ।

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

ये नक्षत्र...

वहाँ...
ब्रह्माण्ड में
जहाँ तमस ने
डाल रखा है अपना डेरा
एक कृष्णविवर हो गया है
भूखा इतना
जैसे कि जन्म-जन्म से कुछ न खाया हो ।

मरभुखे ने
आज फिर निगल लीं
प्रकाश की कुछ किरणें
और
उदरस्थ कर उजास को
कहने लगा है दम्भ से
स्वयं को नक्षत्र ।

किरणें विवश हैं
उस दम्भी को प्रणाम करने के लिये
गोया
बिछ गया हो लोकतंत्र

किसी दुष्ट राजा के चरणों पर ।