प्रगति
का उद्देश्य परिमार्जन है... यथास्थिति में सार्थक परिवर्तन है... एक स्पन्दन है
जो ऊर्ध्वमुखी गति का आह्वान करता है और जड़-चेतन के प्रति करुणा का अनुरोध करता है
।
एक समय
था जब पाखण्ड और यथास्थितिवाद का विरोध प्रगतिशीलता का लक्षण माना जाता था ।
प्रगतिशील लोग विकृत हो चुकी रूढ़ियों पर प्रहार करते, उनके मार्ग में जो भी आता वे
सब उनके लक्ष्य पर आ जाया करते । समय बदला और प्रगतिशीलता स्वयं में रूढ़ एवं विकृत
होती चली गयी । शोषण के विरुद्ध “प्रगति” के वादे पर वादों के जंगल में एक और नया
वाद प्रकट हुआ – “प्रगतिवाद” । “वादों” की एक प्रकृति होती है । कोई भी “वाद” भीड़
से विशिष्ट होने की प्रतिज्ञा करता है और फिर “वादों” की भीड़ में खो जाता है
।
प्रगतिवाद
के नाम पर राजनीतिज्ञों और साहित्यकारों में से कुछ को उठा लिया गया, कुंठा का बाज़ार
सजाया गया और भारतीयता के प्रतीक रहे सिद्धांतों और आदर्शों पर निर्मम प्रहार
प्रारम्भ कर दिये गये । सीमाओं का उल्लंघन, मर्यादाओं का अतिक्रमण और वर्तमान का
विखण्डन ही प्रगतिवाद के नाम पर आचरणीय होने लगा । आधुनिक प्रगतिवाद में उग्रता और
असहिष्णुता का समावेश बड़ी तीव्रता के साथ हुआ । इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक
में भारत के लोगों ने “असहिष्णुता” के विविध रूपों के दर्शन किये । एक दिन वह भी
आया जब “चोर-चोर” चिल्लाकर भागते हुये “चोरों” की ज़मात को भारत ही नहीं पूरी
दुनिया ने बड़े आश्चर्य से देखा । “चोर-चोर” चिल्लाकर भागने वाले “चोरों” ने तो
अपना परिचय “प्रगतिवादी” के ही रूप में दिया था किंतु मार्क्स, लेनिन और माओ की
आत्माओं ने उन्हें अपना अनुयायी स्वीकार करने से इंकार कर दिया ।
और तब दिल्ली
और कलकत्ता की गन्दी गली के किसी छोर पर हेरोइन का धुँआ फेफड़ों में खींचने वाले
चौंके... अंतरजातीय-अंतरधार्मिक विवाह करने वाली विश्वबन्धुत्व और विश्वधर्म के
सपनों में खोयीं नवविवाहितायें चौंकी... वेदों और ब्राह्मणों को गरियाने वाले
आधुनिक ब्राह्मण चौंके... बी.एम.डब्ल्यू. कार के पास खड़े होकर चरस पीते जिगोलोज़
चौंके... समलैंगिक यौनसम्बन्धों के उपभोक्ता चौंके... बड़ी-बड़ी दाढ़ियाँ चौंकी...
बड़ी-बड़ी बिन्दियाँ चौंकी... कि चोर आख़िर लुप्त कहाँ हो गया ?
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टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.