दलजीत
सिंह को जैसे कुछ चेत सा हुआ, उसने सजग होकर दोनों हथेलियों से अपने आँसू पोंछे और
फिर गुरमीत को फ़ोन लगाया । लन्दन से फोग में भीगी एक ठण्डी आवाज़ ने करनाल को मायूस
कर दिया । गुरमीत बस इतना ही पूछ सकी – “क्या हुआ ?”
उत्तर
में दलजीत के भीतर का बाँध ढह गया । गुरमीत को लगा जैसे लन्दन से शुरू हुआ एक
एवलाँच करनाल की ओर चला आ रहा है । हिचकियों ने दलजीत की आवाज़ को जकड़ लिया और
गुरमीत तो जैसे सुन्न हो गयी ।
अंततः
जब एवलाँच रुका तो गुरमीत ने फ़ोन पर एक बेहद सर्द आवाज़ को सुना – “मीते ! जिसे
अपने घर में कोई घास नहीं डालता उसके लिये दुनिया में कहीं कोई घास नहीं उगा
करती”।
“आप
मायूस मत हो, वाहे गुरु पर भरोसा रखो । बताओ तो आख़िर हुआ क्या ?”
“बताया
न ! मेरे लिये यू.के. में भी घास नहीं है । वही हुआ... जो अधिकांश हिन्दुस्तानी
साइंटिस्ट्स के साथ होता है । इस रिसर्च में भी मेरा कहीं कोई नाम नहीं... ”।
“इफ़ेक्ट्स
ऑफ़ लाइफ़ स्टाइल एण्ड एथिकल ग्रुप्स ऑन ज़ीन-म्यूटेशन” को सुबह से न जाने कितनी बार
पलट चुका हूँ । मेरा इसमें कहीं नाम नहीं है । ख़ुद को भरोसा दिलाने के लिये एक-एक
पेज को पलट कर देख चुका हूँ... शायद कहीं किसी रिफ़रेंस में ही नाम हो ...किंतु
नहीं ..... हर बार निराशा और गहरी होती चली गयी । लोग इतने ख़ुदग़र्ज़ और बेशर्म हो
सकते हैं .....यह अन्दाज़ा नहीं था । सोचता
था कि रिसर्च की चोरी सिर्फ़ भारत में ही होती है... किंतु यहाँ आकर यह भरोसा भी
टूट गया”।
“किसका
नाम... किसका भरोसा ? नेकी कर दरिया में डाल... ”- गुरमीत के शब्दों ने जैसे एक
गुनगुनी कॉफ़ी का प्याला बढ़ाने की कोशिश की ।
दलजीत
ने एक इण्ड्यूस्ड हँसी अपने हलक से बाहर फेंकने की कोशिश की किंतु वह सफल नहीं
हुआ, उसने कहा – “हाँ रे मीते ! अब समझ में आया कि भारत में वैदिक ग्रन्थ अपौरुषेय
क्यों कहे जाते हैं और एन्सिएण्ट इण्डिया की ढेरों अद्भुत् रिसर्च के पीछे किसी का
नाम क्यों नहीं है । काश ! वह परम्परा आज भी होती................
और
सुन............ आज तेरी बहुत याद आ रही है... ”
गुरमीत
समझ गयी... लन्दन में एवलाँच की एक लहर फिर आयी हुयी है ।
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