एक्कीसवीं
शताब्दी के सत्रहवें साल श्रीनगर में संसदीय उपचुनाव के दौरान हुई पत्थरबाजी, आगजनी
और मात्र सात आशारिया चौदह फ़ीसदी मतदान के कारण चुनाव आयोग द्वारा अनंतनाग के
उपचुनाव की तारीख़ बढ़ा दी गई जिसका विरोध करते हुए नेशनल कॉंफ्रेंस और कांग्रेस के
नेताओं (जी.एस.मीर) ने “इण्डियन
डेमोक्रेसी मुर्दाबाद” और “मोदी
डेमोक्रेसी मुर्दाबाद” के नारे
लगाए । वास्तव में भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे अद्भुत् लोकतंत्र है जहाँ
अराजकता, स्वेच्छाचारिता
और निरंकुशता कितनी भी कुलाँचे भरती रहे पर यहाँ की हवायें निर्गुन ही गाती रहती हैं
। ऐसी निर्लिप्तता अन्यत्र दुर्लभ है ।
भारतीय उपमहाद्वीप
में द्विराष्ट्र सिद्धांत के समर्थकों की दृष्टि सदा से ही अपने आसपास के राष्ट्रों
को हड़पने की ओर लगी रही । उनके लड़ाकों ने पौ फटने से पहले सेना के कैम्प में घुस कर
हमला करने में दक्षता हासिल कर ली है । भारतीय सैनिकों की भोर को अंधेरों से भर देने
वाले ज़िहादियों को संरक्षण देने वाले अलगाववादियों के प्रति भारत सरकार का विनम्र मेजबानी
भाव भी अद्भुत् और रहस्यमय है ।
इधर तेरह
सितम्बर को रात दस बजे जबकि अबूझमाड़ के कोहकामेटा गाँव में लोग सोने की तैयारी में
थे, माओ
दादा की सेना के लगभग सौ साम्यवादियों ने गाँव पर आक्रमण कर दिया और निर्माणाधीन
विद्यालय, ब्लॉक
लर्निंग सेंटर, ट्रांजिट
हॉस्टल, अस्पताल, पंचायत
भवन आदि लगभग ढाई करोड़ की सम्पत्ति को गेंती और सब्बल से पूरी तरह क्षतिग्रस्त कर
दिया । माओवादी गुरिल्ला रात भर गेंती और फावड़े चलाते रहे जिससे छाई दहशत ने गाँव के
लोगों की आँखों से नींद को दूर-दूर तक खदेड़ दिया ।
जब भोर हुई
और सूरज झाँकने की तैयारी कर रहा था ठीक उसी समय गुरिल्ला गाँव छोड़ कर चलते बने । सुबह
सूरज की रोशनी में ग्रामीणों ने ढहाई गई इमारतों को देखा, अब उनकी ज़िन्दगी के अगले
कई साल अँधेरों से भरे रहने वाले थे ।
सूरज तो
प्रकाश फैलाने के लिए तैयार होकर आया था किंतु आते ही उसने भी देखा कि पूरे गाँव में
अंधकार ही अंधकार फैल चुका था ।
इन
गुरिल्लाओं को बौद्धिक संरक्षण प्रदान करने वाले बुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा
वर्ग भारत के महानगरों के कई विश्वविद्यालयों को अपना केन्द्र बना चुका है । भारत
के बहुत बड़े-बड़े हिन्दी-अंग्रेजी साहित्यकारों, मानवाधिकारभोगियों, प्रोफ़ेसर्स, और
सामाजिक कार्यकर्ताओं की एक विराट निरंकुश सेना इन साम्यवादियों के संरक्षण के लिए
अहर्निश कटिबद्ध रहती है ।
जब अधिकारों
के अहं में डूबे लोग सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं तो आम लोगों को अंधकार में
डुबोने की घटनायें निर्भीकता से घटने लगती हैं ।
दो
अप्रैल को रविवार के दिन ब्राह्ममुहूर्त में जबकि सूर्यदेव प्रकाश ले कर आने की
तैयारी में थे ठीक उसी समय चौदह वर्षीया एक किशोरी के जीवन को कुछ अधिकार सम्पन्न
लोगों ने अंधकार से भर दिया ।
सुकमा
के चिंतागुफा गाँव के पटेलपारा में सुरक्षाबलों ने सुबह चार बजे एक घर में घुस कर, सो रहे
परिवार के साथ मारपीट की और फिर राइफल की नोक पर घर की किशोरी के साथ यौनदुष्कर्म
किया । पिछले वर्ष बीजापुर के पेद्दागेलूर में भी बारह महिलाओं के साथ यौनदुष्कर्म
की घटना के समाचारों ने बस्तर के वनवासी समुदाय को गहन पीड़ा और आक्रोश से भर दिया
था । इससे भी बहुत पहले ब्रिटिश शासन काल में जबकि बस्तर एक स्वतंत्र राज्य था और
अंग्रेज़ उसे जीतने के लिए सारे प्रयास करके हार चुके थे तब अंग्रेज़ों, अरबों
और मराठों ने एक साथ मिलकर बस्तर पर आक्रमण किया और तीनों ने बस्तर की जनजातीय आधी
दुनिया को अपनी यौनपाशविकता का शिकार बनाया था ।
दुनिया भर
में सैनिकों और सुरक्षा बलों द्वारा यौनहिंसा की घटनाओं से विश्व का इतिहास कलंकित
होता रहा है । पिछले पाँच वर्षों में सीरिया और ईराक में तो आइसिस के तथाकथित ज़िहादियों
ने क्रूर यौनहिंसा की सारी हदें ही तोड़ डालीं ।
क्या बन्दूकधारी
आदमी बलात्कार करने के लिए और स्त्रियाँ उनके क्रूर उपभोग की सामग्री बनने के लिए
ही पैदा हुयी हैं ? यह
प्रश्न बस्तर से ही नहीं पूरी दुनिया से समय-समय पर उठते रहे हैं । अधिकार और विजय
के उन्माद में सैनिकों द्वारा स्त्रियों से बलात्कार करने और उन्हें लूटने का
इतिहास पिछली कई शताब्दियों से दोहराया जाता रहा है ।
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