कानून हो गया ग़ैरकानूनी ...
सवाल, दर-असल सिर्फ़ इतना सा था कि दो व्यक्तियों के विवाहेतर सम्बंधों में दोषी केवल
पुरुष ही क्यों, महिला भी क्यों नहीं ? विद्वानों ने मंथन किया और निर्णय दिया कि धारा 497 स्वयं ही लैङ्गिक असमानता
की शिकार है ।
यौन सम्बंध यदि पारस्परिक सहमति से नहीं बनाए गए
हैं तो निश्चित्त ही यह किसी एक पक्ष द्वारा किया गया बलात्कार ही माना जाना चाहिए
किंतु विवाहेतर यौनसम्बंध यदि दोनों पक्षों की सहमति से बनाए गए हैं तब इन्हें व्यभिचार
माना जाना चाहिए या नहीं ?
कोई पुरुष अपनी पत्नी के परपुरुष गमन को यदि अपनी
सहमति नहीं देता है तो यह परपुरुष के लिए तो अपराध है किंतु पत्नी के लिए नहीं क्योंकि
उसने तो इसके लिए अपनी सहमति दे ही दी थी । अर्थात किसी की पत्नी से व्यभिचार के लिए
परपुरुष को उसके पति से भी अनुमति लेने की अपेक्षा की जाती रही है जिसे न्यायाधीशों
ने लैङ्गिक असमानता स्वीकार किया है । इस मामले में भरतपुर के बेड़िया बड़े दूरदर्शी
निकले जहाँ उनकी सामाजिक परम्परा के अनुसार बेड़िनियाँ अपने-अपने पतियों, भाइयों या पिताओं की अनुमति से ही देह-व्यापार करती
रही हैं । यद्यपि देह-व्यापार के अपराध में उन्हें जब-तब सजा भी होती रहती है किंतु
अब शायद ऐसा नहीं होगा क्योंकि वे तो अपने स्वजन पुरुषों की अनुमति से ही परपुरुष गमन
करती आ रही हैं ।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार 27 सितम्बर 2018 के बाद से व्यभिचार नामक आचरण अब
शून्य घोषित हो चुका है । नैतिक मूल्यों और संवैधानिक मूल्यों के टकराव का यह एक ऐसा
उदाहरण है जो भारतीय समाज की दिशा तय करने वाला है ।
विवाहेतर यौनसम्बंध नहीं रहा अब व्यभिचार...
सर्वोच्च न्यायालय के चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्र, जस्टिस रोहिंगटन नरीमन, जस्टिस
ए. एम. ख़ानविलकर, जस्टिस डी. वाय. चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा
के एक निर्णय से 158 साल पुरानी धारा 497 हुई कानून की धार से बाहर । सर्वोच्च न्यायालय
ने व्यभिचाररोधी कानून को एक पक्षीय और मनमाना घोषित करते हुए लैङ्गिक समानता के अधिकार
के विरुद्ध माना है । निर्णय के अनुसार “यह कानून महिला की चाहत
और यौन चाहत का असम्मान करता है” ।
हाँ ! यौन सम्बंधों की सहमति को लेकर लैङ्गिक असमानता
नहीं होनी चाहिए किंतु यह बात यहीं तक नहीं रुकी, इसके निहितार्थ की गूँज यौन सम्बंधों के सामाजिक ढाँचे को भी प्रभावित करने
वाली है ।
विवाहेतर यौनसम्बंधों की पारस्परिक सहमति और इसका
सामाजिक मूल्य समय की धारा में बहता हुआ तृण है जो कभी डूबता सा लगता है तो कभी उतराता
सा । दुनिया भर के विभिन्न देशों और समाजों में इसे लेकर विभिन्न मान्यताएं हैं और
तदनुसार ही पाप-पुण्य की परिभाषाएं भी । आज मुझे भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास
"चित्रलेखा" की स्मृति हो आई है । कई बार कानून गुलेल की तरह काम करता है
जिसे पेड़ पर बैठी चिड़िया कभी स्वीकार नहीं करती । भारतीय समाज में हो रहे पश्चिमी परिवर्तनों
के सामाजिक अनुकरण से भारतीय मान्यताओं में परिवर्तन तो होने ही हैं, चाह कर भी इसे रोका नहीं जा सकेगा ।
पाप ‘पाप’
ना रहा पुण्य ‘पुण्य’ ना
रहा...
कुछ ही समय पूर्व भारत के सर्वोच्च न्यायालय के
वरदान से समलैङ्गिक यौन सम्बंधों को सामाजिक मूल्य प्रदान किए जाने की आकाशवाणी हुई
थी । अप्राकृतिक यौन सम्बंधों को प्राकृतिक कृत्य और मौलिक अधिकार मान लिया गया था
और अब विवाहेतर यौन सम्बंधों को भी सर्वोच्च न्यायालय का वरदान प्राप्त हो चुका है
।
परस्त्री गमन और परपुरुष गमन अब नहीं रहा अपराध, यौन सम्बंध हुए स्वच्छंद, देहव्यापार की सीमाएं हो गई हैं शिथिल, व्यभिचार मुँह
बाए खड़ा है यह जानने को उत्सुक कि अब क्या है उसकी नई परिभाषा ।
एक निर्णय ने ध्वस्त कर दिए भारतीय समाज के सनातन
सांस्कृतिक मूल्य, अब हम
पश्चिम हो चले हैं और यह माना जा रहा है कि सूर्य को अब कभी पूर्व में नहीं उगना चाहिए
।
नैतिकता पर प्रभावी हुई संवैधानिकता !
समलैङ्गिक यौनसम्बंधों को अपराध मानने वाली धारा
377 को समाप्त करते हुए विद्वान न्यायाधीशों ने घोषणा कर दी कि अब "सामाजिक नैतिकता
नहीं बल्कि संवैधानिकता को ही प्रभावी माना जाएगा।"
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि नैतिकता का निर्धारण
और संवैधानिकता का निरुपण करता कौन है? निश्चित ही दोनों आकाशीय वर्षा के परिणाम नहीं हैं, नैतिकता
का निर्धारण समाज के दीर्घकालीन अनुभव करते हैं और संविधान का निर्धारण तात्कालिक परिस्थितियों
के आलोक में व्यक्तियों का एक छोटा सा समूह करता है ।
अब हमें यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि किसी समाज
के लिए लोककल्याणकारी क्या है, समाज के
दीर्घकालीन अनुभवों से उपजे नैतिक मूल्य या तात्कालिक परिस्थितियों के आलोक में मात्र
कुछ व्यक्तियों द्वारा निर्धारित संवैधानिक मूल्य?
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