आधुनिक विकासवादियों ने “इण्डस्ट्रियल कल्चर” नामक एक नये पद की संरचना करके यह भ्रम उत्पन्न करने में
पूर्ण सफलता प्राप्त कर ली है कि यह भी एक प्रकार की कोई संस्कृति है जो विकास के
लिये अनिवार्य है । मैं कभी भी इसे संस्कृति स्वीकार नहीं कर सका इसलिये इस पद का
हिंदी अनुवाद “औद्योगिक शैली” किया जाना उचित
समझता हूँ । सभ्यता “संस्कृति” का वह
प्रकटस्वरूप है जो नितांत व्यक्तिगत होकर भी अपने व्यापक प्रभाव के कारण समाज में
निर्दुष्ट प्रकाशित होता है । “इण्डस्ट्रियल
कल्चर” में, प्रथमतः प्रकाशित हो सकने जैसा कुछ भी है ही नहीं, दूसरे, यह अपने जिस भी
रूप में प्रकट होता है वह निर्दुष्ट नहीं है ।
भारतीयों के मस्तिष्क में पश्चिमी जगत के बारे में स्थापित
हो चुके विचार एक ऐसे स्वप्न जगत की आभासी रचना करते हैं जहाँ उच्च मानवीय आदर्श
हैं, निष्ठावान लोग हैं, वैज्ञानिक
उपलब्धियों से सुसज्जित चमत्कारपूर्ण जीवन जीने के समस्त संसाधन हैं, जीवन को सुविधाजनक बनाने वाले अत्याधुनिक उपकरण हैं, वैज्ञानिकविकास है, सुखी जीवन है, सुसंस्कृत और सुसभ्य समाज है । किंतु यह उतना ही सच है
जितना किसी भारतीय फ़िल्म स्टूडियो का बनावटीपन और उसके बाहर फैली सड़ाँध भरी गन्दगी
जिसे फ़िल्म के दर्शक कभी नहीं जान पाते ।
पश्चिमी जगत औद्योगिक विकास का दीवाना है । इस दीवानेपन ने
उसे मानवीयता की सारी सीमायें तोड़ फेकने के लिये उत्साहित और प्रेरित किया है ।
पैसे की दीवानगी से प्रेरित पश्चिमी उद्योगपतियों ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी
निर्मम और क्रूर उद्योग की अपसंस्कृतिमूलक शैली स्थापित करने के पाप का दुस्साहस
किया है । इसका ताज़ा उदाहरण है स्वाइन फ़्लू । आप स्मरण कीजिये, लगभग सारी नयी-नयी बीमारियाँ पश्चिमी देशों से ही शेष विश्व
में फैलती रही हैं फिर मामला एंथ्रेक्स का हो, सार्स का हो, ईबोला का हो या बर्डफ़्लू का । आप जानते हैं कि AIDS के मामले में भी कारण ‘हैती’ नहीं योरोपीय देश ही रहे हैं । कोई आश्चर्य नहीं कि आने
वाले समय में न्यूक्लियर बम नहीं बल्कि “क्रूर
स्वास्थ्य उद्योग” ही वर्तमान सभ्यता के विनाश का कारण बने ।
दुर्भाग्य से स्वास्थ्य के क्षेत्र में होने वाले
आविष्कारों के व्यावहारिक उपयोगों की निरापदता सिद्ध करने केलिये “थर्ड पार्टी साइंस रिसर्च” का अभी तक उतना प्रचलन नहीं हो सका है जितना होना चाहिये । यद्यपि कुछ आदर्श
वैज्ञानिकों ने सैद्धांतिक क्रांति करते हुये “थर्ड पार्टी
साइंस रिसर्च” का बीड़ा उठाया हुआ है किंतु अनैतिक प्रोपेगैण्डा के इस युग
में उनकी रिसर्च के परिणाम आम जनता तक बहुत कम पहुँच पाते हैं ।
जनवरी 1976 में Fort Dix NJ के एक सैनिक की ऑटोप्सी से ओरिजिनल स्वाइन फ़्लू का पहला केस
उद्घाटित हुआ था तथापि उसकी मृत्यु के कारणों में स्वाइन फ़्लू की भूमिका पूरी तरह
स्पष्ट नहीं थी । इसके पश्चात् 2009 के वसंत तक
स्वाइन फ़्लू का कोई भी केस सामने नहीं आया । इसके कुछ ही महीनों बाद स्वास्थ्य के
बाज़ार में एक वैक्सीन ने पदार्पण किया जिसकी सुरक्षाविश्वसनीयता के लिये किसी क्लीनिकल
ट्रायल की कोई आवश्यकता तक नहीं समझी गयी । इस बीच फ़िलाडेल्फ़िया के एक होटल में 34 लोगों की मृत्यु Legionnair’s disease से हो गयी जिसे NIH (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ) ने स्वाइन फ़्लू से होना
प्रचारित किया । अमेरिकी मीडिया और सरकारी अधिकारियों ने स्वाइन फ़्लू का हउवा खड़ा
करने में कोई कसर नहीं छोड़ी ।
सामान्यतः किसी वैक्सीन को निर्माण के पश्चात ट्रायल आदि की
प्रक्रिया से गुज़रने में एक वर्ष का समय लगता है किंतु “1976 स्वाइन फ़्लू वैक्सीन” मात्र कुछ ही
हफ़्तों में आविष्कृत होकर बाज़ार में आ गयी । पैसा कमाने के शॉर्टकट तरीके को
अपनाते हुये यू.एस.पब्लिक हेल्थ सर्विसेज के वैज्ञानिकों द्वारा वैक्सीन बनाने के
लिये स्वाइनफ़्लू के वाइल्ड स्ट्रेन में एक ऐसे स्वाइन फ़्लू वायरस के जीन्स का
मिश्रण किया गया जो मैनमेड था और अपेक्षाकृत अधिक घातक था । दस सप्ताह में यह
वैक्सीन अमेरिका के 50 मिलियन लोगों को लगाया गया जिसमें से 25 की मृत्यु हो गयी और 565 लोग Guillain Barre
Syndrome के शिकार हो गये । सरकार की योजना शतप्रतिशत जनता के
वैक्सीनेशन की थी किंतु वैक्सीन के कॉम्प्लीकेशंस से मचे हड़कम्प के कारण यूएस
सरकार को अपना वैक्सीन प्रोग्राम दस सप्ताह बाद ही बन्द करना पड़ा ।
इंफ़्ल्युन्जा के लिये Orthomyxovirus समूह के इंफ़्ल्युंजा –ए नामक उपसमूह में से एक वायरस है H1N1. जिसके सात सौ से भी अधिक स्ट्रेन्स का पता लगाया जा चुका है
। फ़्लू वायरस के इतने सारे स्ट्रेन्स और फिर उनमें सहज म्यूटेशन की अधिकता स्वाइन
फ़्लू वैक्सीन की उपयोगिता को अवैज्ञानिक सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के सदस्यों के साथ वैक्सीन
निर्माताओं और फ़ार्मास्युटिकल्स के आर्थिक सम्बन्ध विचारणीय हैं और विश्व
स्वास्थ्य संगठन की विश्वसनीयता पर प्रश्न खड़े करते हैं । वैक्सीन किस तरह एक
निर्मम भयादोहक उद्योग बन गया है इसे जानने के लिये टिम ओ’शी का लेख - “गुडबाय स्वाइन फ़्लू : बुटीक पैंडेमिक” पढ़ा जा सकता है ।
इस पूरे क्रूर और अवैज्ञानिक खेल में WHO की विश्वसनीयता इसलिये और भी संदेह के घेरे में आती है कि
आख़िर उसे मई 2010 में Pandemic की परिभाषा अचानक क्यों बदलनी पड़ी ? नयी परिभाषा के
अनुसार पैण्डेमिक के लिये अब किसी बीमारी का गम्भीर और मारक होना तथा कई देशों में
फैलना आवश्यक नहीं रह गया है । निश्चित ही इस परिभाषा के पीछे कोई वैज्ञानिक तथ्य
न होकर एक क्रूर अर्थशास्त्र झाँक रहा है ।
पाश्चात्य औद्योगिक शैली के सिद्धांत उत्पादमूलक व्यापार को
प्राथमिकता देते हैं जिसमें बेचने के लिये उत्पाद पहले निर्मित किया जाता है, बाद में उसकी आवश्यकता निर्मित की जाती है, यानी कुछ भी स्वाभाविक और आवश्यक नहीं होता । यही वह
सिद्धांत है जो विज्ञान, उद्योग और व्यापार को क्रूरतम बनाता है । हम स्वाइन फ़्लू की
आधुनिक औषधि के निर्माण के माध्यम से इस बात को समझने का प्रयास करेंगे ।
स्वाइनफ़्लू की दवा के नाम से दुनिया भर में प्रसिद्ध
टैमीफ्लू (ओसेल्टैमीवर फ़ॉस्फ़ेट) का निर्माण सब्ज़ियों को स्वादिष्ट बनाने के लिये
स्तेमाल होने वाले एक मसाले से किया जाता है जिसका नाम है चक्रफूल या बादियान ।
इसका छोटा सा वृक्ष चीन और ताइवान का निवासी है, भारत में यह अरुणांचल प्रदेश में पाया जाता है जिसे स्टार अनिस या इल्लिसियम
वेरम के नाम से जाना जाता है । इसमें पाये
जाने वाले शिकिमिक एसिड का औषधीय प्रभाव न्यूरामिनाइडेज़ इनहिबिटर्स होता है
अर्थात् यह स्वाइन फ़्लू के वायरस की वृद्धि की प्रक्रिया में जेनेटिक मैटेरियल के
रिप्लीकेशन को रोकता है । सन 2005 में यह औषधि
एवियनफ़्लू (बर्डफ़्लू) के लिये प्रभावी मानी गयी किंतु बाद में इसे स्वाइन फ़्लू के
लिये भी विश्वस्वास्थ्य संगठन द्वारा “प्रभावी एवं
प्रशंसनीय” करार दिया गया जिससे बढ़ती माँग के कारण पूरी दुनिया के
रसोईघरों से चक्रफूल गायब होने लगा । ऐसी स्थिति में जापान की सोफ़िया यूनीवर्सिटी
के वैज्ञानिकों ने इसके विकल्प के रूप में एक और जड़ी-बूटी को खोज निकाला जिसे
जिंक्गो बाइलोबा के नाम से जाना जाता है । चिकित्साविज्ञानियों में स्वाइन फ़्लू पर
टैमीफ़्लू के प्रभावों एवं दुष्प्रभावों को लेकर परस्पर विरोधी विचार हैं । इसके
स्तेमाल से सामान्य उल्टी और सिरदर्द से लेकर लिवर में सूजन, एलर्जिक रिएक्शन, एपीडर्मल
नेक्रोलिसिस (चमड़ी का गलना), कार्डियक
एरीदमिया (हृदय-गति,गति की लयबद्धता में कमी), मानसिक विकार, मधुमेह में वृद्धि, आँतों से ख़ून
आना आदि साइड इफ़ेक्ट्स तो पाये ही गये हैं गुइलेन बेयर और स्टीवेंस ज़ॉन्सन जैसे
गम्भीर सिण्ड्रोम और मृत्यु होने की भी शिकायतें पायी गयी हैं । चिंतन का विषय यह
है कि हमारे गरम मसालों में से एक चक्रफूल ने आज तक कभी किसी के स्वास्थ्य को
नुकसान नहीं पहुँचाया किंतु जैसे ही उसके एक घटक को अलग किया गया वैसे ही वह
हानिकारक हो गया । शरीर के किसी अंग को काट कर अलग कर देने से शरीर का जो हाल होता
है वही हाल चिकित्सा विज्ञानियों ने चक्रफूल का कर दिया है । अब प्रश्न यह उठता है
कि क्या टैमीफ़्लू का निर्माण इतना आवश्यक था ? यदि आवश्यक था
तो चक्रफूल एवं जिंक्गो बाइलोबा के उपयोग को ही क्यों नहीं प्रचारित किया गया ? और इसका सीधा सा उत्तर यह है कि यदि सरलतम उपलब्ध उपायों को
प्रचारित किया जायेगा तो छद्म रिसर्च और अनैतिक प्रचार की बदौलत टैमीफ़्लू बनाने
वाली रोश कम्पनी हर साल कई बिलियन डॉलर का व्यापार कैसे कर पाती !
चक्रफूल, Star anise, Badiane, Illicium verum
Fossil tree, Ginkgo biloba, Salisburia adiantifolia
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 90वां जन्म दिवस - 'शम्मी आंटी' जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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