आज़ादी के
लगभग तीन दशक तक सरकारी संस्थाओं की साख आज जितनी बुरी नहीं हुआ करती थी । यूँ भ्रष्टाचार
तब भी था किंतु आँखों का पानी इतना भी नहीं मर गया था कि सरकारी संस्थाओं से लोगों
का मोह भंग हो जाता । आम आदमी के मन में सरकारी विद्यालयों, सरकारी
अस्पतालों, सरकारी बैंक और सरकारी बसों की अच्छी साख हुआ करती
थी । भ्रष्टाचार बढ़ता गया, आँखों का पानी मरता गया तो लोकहित
से जुड़ी इन संस्थाओं की हालत ख़राब होने लगी और अंत में ये सभी संस्थायें घटिया स्तर
और भ्रष्टाचार के केंद्रों के रूप में जानी जाने लगीं । फिर एक समय वह भी आया जब आम
लोगों की धारणा यह हो गयी कि यदि कहीं कुछ अच्छा हो रहा है तो वह प्रायवेट संस्था होगी
और यदि कहीं बहुत बुरा हो रहा है तो वह सरकारी संस्था ही होगी । सरकारी संस्थायें घटियापन,
भ्रष्टाचार और ग़ैरज़िम्मेदाराना रवैये की प्रतीक मानी जाने लगीं । इस
रिक्तता की पूर्ति के लिये निजी संस्थाओं ने प्रारम्भ में अपनी साख बनाने की कोशिश
की किंतु ज़ल्दी ही वे सब लूट केंद्रों में तब्दील हो गयीं । सबसे बुरी स्थिति शिक्षा
और स्वास्थ्य के क्षेत्र में देखने को मिल रही है ।
सरकारें
आती-जाती रहीं, सत्ता बदलती रही, मंत्री बदलते रहे किंतु सरकारी कार्यालयों
की व्यवस्था नहीं बदली, भ्रष्टाचार नहीं बदला, आम आदमी का दर्द नहीं बदला ...। प्रेमचंद के ‘नमक
के दारोगा’ और
श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ की परम्परायें उदय प्रकाश की ‘और अंत में प्रार्थना’ से होती
हुयी कौशलेंद्र की बिल्कुल ताजातरीन ‘दाह संस्कार’ तक आज भी क़ायम हैं ।
यहाँ यह
स्पष्ट करना आवश्यक है कि सरकारी कार्यालयों में बुरी तरह व्याप्त भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी
के लिये केवल सरकारों को दोष दे कर हम अपने दोषों से मुक्त नहीं हो सकते । शोषण और
धूर्तता ने शिक्षा-अशिक्षा, ग़रीबी-अमीरी और बड़े आदमी-छोटे आदमी की सीमाओं से परे जाकर हर स्तर पर हमारे
दिमागों में जड़ें जमा ली हैं ।
कराधान की
व्यवस्था सामूहिक हित के सामूहिक कार्यों के लिये किये जाने की स्वस्थ्य परम्परा से
पहले जान-माल की सुरक्षा के वायदे के नाम पर चौथ वसूलने के रूप में रही होगी । झूठे
वायदे के नाम पर गुण्डा टैक्स के रूप में यह व्यवस्था आज भी विद्यमान है । गुण्डत्व
के साथ अवैध कराधान का दुर्योग रिश्वतखोरी के रूप में आज हमारे सामने है । प्रायवेट
सेक्टर्स में रिश्वतखोरी प्रायः नहीं हुआ करती, यह तो वहाँ हुआ करती है जहाँ सरकारी
अधिकारियों का हस्तक्षेप हुआ करता है । इस हस्तक्षेप में दुरूहता है, नियमों-कानूनों की मनमानी व्याख्या के साथ बहाने हैं, दुष्टता है, धूर्तता है ... वह सब कुछ है जिससे रिश्वत
की वारिश होती है । यह एक सुव्यवस्थित तंत्र है जिसमें नीचे से ऊपर तक और ऊपर से नीचे
तक सारी कड़ियाँ आपस में जुड़ी हुयी हैं ।
स्वतंत्र
भारत में जब सत्ता के साथ-साथ ब्रिटिश ब्यूरोक्रेसी भी हस्तांतरित हुयी तो लम्बे समय
से दासता के अभ्यस्त रहे लोगों में से कुछ समर्थ लोगों ने अपनी कुंठा दूर करने के लिये
निर्बलों पर प्रभुत्व करना शुरू कर दिया । वे अपने ही लोगों से बदला लेने लगे जिसने
आगे चलकर कार्यालयीन देशी गुण्डत्व को स्थापित कर दिया । स्वतंत्रता के बाद भी भारतीय
समाज में दासत्व के लिये उपयुक्त उर्वर परिस्थितियाँ कभी समाप्त नहीं हुयीं ।
रेलवे स्टेशन
पर भीख माँगने वाले भिखारियों के आपसी लड़ाई-झगड़ों में हमें प्रभुत्व और दासत्व के दोनों
विपरीत ध्रुव एक साथ दिखायी देते हैं । यही दोनों ध्रुव हमें कार्यालयीन अधिकारियों
और कर्मचारियों के पारस्परिक आचरण में भी स्पष्ट दिखायी देते हैं । इस सबका परिणाम
यह हुआ कि भारत के शासकीय कार्यालयों में निरंकुशता, स्वेच्छाचारिता,
शोषण और आर्थिक भ्रष्टाचार बढ़ता चला गया । हर शासकीय उपक्रम मज़ाक और
भ्रष्टाचार का केन्द्र बनता चला गया । सरकारी शिक्षा. सरकारी स्वास्थ्य सेवा,
सरकारी बैंक ... यहाँ तक कि सरकारी पर्व भी स्तरहीनता की दौड़ में आगे
निकलते चलते गये । हर सरकारी आयोजन की रस्म अदायगी ने उन्हें पाखण्ड बना दिया । कुछ
लोग तो यहाँ तक कहने लगे कि यदि किसी अच्छी चीज / परम्परा / पर्व / योजना... को बर्बाद
करना है तो उसका सरकारीकरण करवा दीजिये ।
भारत की
वर्तमान सरकार शासकीय उपक्रमों और सेवाओं का निजीकरण करने का मन बना चुकी है । नेशनल
मिनरल डेवलपमेंट कार्पोरेशन, नागरिक उड्डयन और रेलवे जैसी सेवाओं
के निजीकरण की प्रक्रिया शुरू की जा रही है जो भारतीयों की उत्तरदायित्वहीनता और भ्रष्ट
आचरण का परिणाम है । सरकारी उपक्रम घाटे में और निजी उपक्रम भारी लाभ में क्यों चलते
हैं, यह प्रश्न हर भारतीय को अपने आप से पूछना चाहिये ।
निश्चित
ही बड़ी-बड़ी सेवाओं का निजीकरण लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये एक अशुभ संकेत है किंतु
इन सबके लिए हमारी कार्य अपसंस्कृति, बर्चस्व की होड़, प्रभुता और शोषक स्वभाव उत्तरदायी है । सरकारी अधिकारी तो चाहते हैं कि हम
गलतियाँ करें और उन्हें बन्दर बाँट करने का सुअवसर प्राप्त हो । यह वही भारत है जो
अतीत में कम्पनी सरकार के क्रूर अनुभवों से गुजर चुका है । भारत को मालुम है कि व्यापार
किस तरह सत्ता में हस्तक्षेप करते-करते हुकूमत बन जाया करता है ।
अब मैं एक
बिल्कुल स्थानीय स्तर की चर्चा करना चाहूँगा । लोगों की ज़ुबान में बस्तर को शासकीय
अधिकारियों-कर्मचारियों की खुली जेल किंतु एक बेहतरीन चारागाह के रूप में जाना जाता
रहा है । कमाल की बात है कि मुल्क में पशुओं के चारागाह निरंतर कम होते रहे, वहीं मनुष्यों
के चारागाह ज्वालामुखी के लावा की तरह फैलते चले गये । पशुओं के नैसर्गिक हकों पर डाका
डालने के अभ्यस्त आदमी ने अपनी ही ज़मात के हकों पर भी डाका डालने से कभी परहेज़ नहीं
किया । पिछले कुछ टीवी धारावाहिकों में से “ऑफ़िस-ऑफ़िस” ने पूरे समाज को आइना दिखाने का प्रशंसनीय और अनुकरणीय कार्य किया था । दुःखद
है कि लोगों ने धारावाहिक के मजे तो लिये किंतु आइना नहीं देखा ...यह प्रवृत्ति भी
हमारे पैराडॉक्सेज़ का एक और जीता-जागता प्रमाण है ।
और अब “ऑफ़िस-ऑफ़िस” समाज की आत्मा में रच-बस चुका है, भ्रष्टाचार हमारे देश
का स्वीकार्य आचरण बन चुका है, इसका अनुकरण न करना एक बगावत माना
जाता है और ऐसे बगावतियों के लिये दण्डों के भरपूर सैलाब की व्यवस्था सुस्थापित की
जा चुकी है । भारतीय पुराणेतिहासों में वर्णित वे आख्यान यहाँ प्रासंगिक हो उठते हैं
जिनमें राक्षसों द्वारा ऋषियों-मुनियों की तपस्या भंग करने के किस्से हैं । वही विध्वंसक
और सैडिज़्म वृत्ति हमें आज भी देखने को मिलती है । भ्रष्टाचार और प्रशासकीय स्वेच्छाचारिता
भारत के लिये बहुत बड़ी चुनौतियाँ बन कर छा गयी हैं ।
प्रशासकीय
स्वेच्छाचारिता के लिये दण्ड के कठोर प्रावधानों के अभाव ने भारत में प्रशासकीय निरंकुशता
को ख़ूब परवान चढ़ाया है जिसके कारण कार्यालयीन स्तर पर भ्रष्टाचार भी ख़ूब परवान चढ़ता
रहा है । यह एक ऐसी दुर्बलता है जिसने कार्यालयीन कार्यसंस्कृति को पूरी तरह समाप्त
कर दिया और भ्रष्टाचार की जड़ें गहरायी में फैलती चली गयीं ।
मैं यह मानता
हूँ कि नियमों-कानूनों की भरमार से भ्रष्टाचार को पोषण ही मिलता है । शासन-प्रशासन
की आदर्श स्थितियाँ अलिखित नियमों-कानूनों के साथ ही विकसित हो पाती हैं अन्यथा “तू डाल-डाल
मैं पात-पात” की तरह कानून और भ्रष्टाचार की
निरर्थक दौड़ ही चलती रहती है । आदर्श समाज को लिखित कानूनों की नहीं बल्कि विवेकपूर्ण
अलिखित परम्पराओं की अपेक्षा हुआ करती है । यह एक ऐसी संस्कृति है जिसे समाज स्वयं
गढ़ता है अन्यथा सत्ताओं को इसकी चिंता नहीं हुआ करती क्योंकि सत्तायें तो अव्यवस्थाओं
से ही पोषण पाने की अभ्यस्त रही हैं ।
प्रशासकीय
स्वेच्छाचारिता उस मनोवृत्ति की उपज है जो उत्पीड़न और हुकूमत के सिद्धांतों में विश्वास
रखती है । भारत में ऐसी मनोवृत्ति के लोगों की भरमार है जो प्रशासन को हुकूमत और अधीनस्थ
कर्मचारियों को अपनी प्रजा मानकर इस देश को खोखला करने में लगे हुये हैं । यह भारत
का दुर्भाग्य है कि अभी तक इस दिशा में किसी अभियान के रूप में गम्भीरतापूर्वक चिंतन
की आवश्यकता भी नहीं समझी जा रही है । फ़ाइलें नियमों-कानूनों की स्वैच्छिक परिभाषाओं
और व्याख्याओं में उलझा दी जाती हैं, फ़ाइलों की उर्वरता समाप्त हो चुकी
है, वे न्यूनतम कार्योत्पादक और न्यूनतम परिणामकारी भी नहीं हो
पातीं । इसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव मानव संसाधनों की युक्तियुक्त उपयोगिता पर पड़ता है
जिससे भारत की प्रतिभायें पलायन के लिये विवश होती रही हैं ।
हमारी बड़ी
से बड़ी व्यवस्थायें भी कार्यालयों में व्याप्त आधिकारिक क्रूरता और तद्जन्य अपराधों
को रोक पाने या उन्हें हतोत्साहित कर पाने में सफल नहीं हो पा रही हैं । यह हमारे सामाजिक
और नैतिक पतन का एक ऐसा आइना है जिससे अब किसी आधिकारिक अपराधी को आत्मग्लानि नहीं
होती, उसकी आत्मा उसके कुकृत्यों के लिये कभी धिक्कारती नहीं । आज हमारे प्यारे भारत
का यही चरित्र है जो देश और समाज को खाता चला जा रहा है ।
मैं बारबार
इसरो के वैज्ञानिक नम्बी नारायण की बात करता हूँ । पूरे देश में ऐसी न जाने कितनी प्रतिभायें
हैं जिन्हें हमारी व्यवस्था खा गयी । शायद हर चरित्रवान अधिकारी-कर्मचारी इस कुव्यवस्था
का शिकार होता रहा है ...और शायद ऐसी ही परिस्थितियों की दीर्घ परम्परा से उपजी सात्विक
प्रतिक्रियाओं ने हमारे अध्यात्मिक चिंतन को इतना समृद्ध किया है ।
यह बात बिल्कुल
स्पष्ट है कि प्रशासकीय स्वेच्छाचारिता को जब तक हम गम्भीर अपराध मानना प्रारम्भ नहीं
करेंगे तब तक इस कैंसर पर अंकुश लगाना सम्भव नहीं होगा । देश बहुत खोखला हो चुका है, अब प्रशासकीय
स्वेच्छाचारिता का उत्तरदायित्व तय करते हुये ऐसे अधिकारियों के विरुद्ध कठोर दण्डात्मक
कार्यवाही के लिये आवश्यक प्रावधान किये जाने और फिर निष्ठापूर्वक उनका क्रियान्वयन
किये जाने की आवश्यकता है ।
विरले ही
होते हैं जो किसी लोकहित के उद्देश्य को लेकर तप-लीन होते हैं किंतु तब विध्वंसक शक्तियाँ
अपनी पूरी प्रचण्डता के साथ तप भंग करने में लग जाती हैं । इन्हीं शक्तियों ने अयोध्या
के राजकुमार को वनगमन के लिये बाध्य किया, इन्हीं शक्तियों ने कृष्ण को मथुरा
छोड़ गुजरात में जाकर बसने के लिये विवश किया । आज भी हम अपने आसपास प्रचलित जिस तरह
की कार्यशैली से जूझने के लिये विवश हैं वह केवल समस्याएँ और उलझाव ही उत्पन्न करती
है । इस कार्यशैली में बाधायें उत्पन्न करने और षड्यंत्र रचना के लिये बड़ी सुलभताएँ
हैं जो हमारी नैतिकता और खोखले राष्ट्रवाद को कटघरे में खड़ा करती हैं । आख़िर हमारी
कार्यशैली ऐसी क्यों नहीं बन सकी जो व्यावहारिक हो… समाजोपयोगी हो ...शुभ परिणामकारी हो?
जब व्यवस्थापक
ही अव्यवस्था उत्पन्न करने की होड़ में लग जाये तो इससे समाज और राष्ट्र को होने वाली
क्षति का दण्ड उन्हें नहीं मिलता जो इसके लिये उत्तरदायी हैं बल्कि उन्हें मिलता है
जो निर्दोष हैं । उच्चाधिकारियों की ऐसी निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता इस देश को खोखला
कर रही है ।
हम सब
"सत्यमेव जयते" को उपदेशों का तत्व पाते हैं, जीवन में
व्यवहार का तत्व नहीं ...यह बहुत से लोगों का देखा और भोगा हुआ सत्य है । "सत्यमेव
जयते" हमारी वह यूटोपियन भूख है जो आज तक कभी पूरी नहीं हुयी "तमसमेव जयते"
हमारा वह सत्य है जिसे हम हर क्षण भोगने के लिये विवश होते हैं ।
भ्रष्टाचार
के विरुद्ध लड़ाई के ऐलान होते रहे, भ्रष्टाचार बढ़ते-बढ़ते सदाचार में
तब्दील हो कर समाज में स्वीकार्य हो गया । आज इस लड़ायी की बात भी करने वाला कोई नहीं
है । कहाँ चले गये वे चंद लोग जो भ्रष्टाचार को देश का सबसे बड़ा चैलेंज मानते थे?
सूरज को
डूबे बहुत वक़्त गुजर गया है, हमें एक मशाल जलानी ही होगी
...अन्यथा हमारे सर्वनाश को कोई शक्ति बचा नहीं सकेगी । ध्यान रखा जाय कि भ्रष्टाचार
सत्ता को नहीं, समाज को खाता है । सत्तायें तो बदलती रहती हैं,
कभी ये तो कभी वो ...तो अगली बार फिर ये ... । यही होता रहा है,
जनता के सामने विकल्प नहीं है इसलिये जागना समाज को ही होगा अन्यथा भ्रष्टाचार
उसे खा जायेगा ।
मैंने अभी
कहा कि सरकारी कार्यालयों में जड़ें जमा चुका भ्रष्टाचार एक सुव्यवस्थित तंत्र का परिणाम
है जिसमें नीचे से ऊपर तक और ऊपर से नीचे तक सारी कड़ियाँ आपस में जुड़ी हुयी हैं । भ्रष्टाचार
का विरोध करने वालों की कमी नहीं है किंतु वही लोग इन कड़ियों को जोड़े रखने की भी अपनी
भागीदारी निभाने में चूक नहीं करते । एक भी कड़ी टूटने का नाम नहीं ले रही । कुछ स्वभावगत
भ्रष्ट हैं और कुछ प्रतिक्रियात्मक भ्रष्ट हैं तो कुछ अपना बदला निकालने के लिये भ्रष्ट
बने हुये हैं । उसने मुझे लूटा, आज मुझे मौका मिला है तो मैं क्यों
छोड़ दूँ, ….क्या मिलेगा मुझे हरिश्चंद्र बनकर...! ऐसे बहुत सारे
तर्क हैं जो भ्रष्टाचार की कड़ियों को बड़ी दृढ़ता के साथ जोड़े हुये हैं । अब तो सरकारी
मीटिंग्स में भी अधिकारी लोग खुलकर फ़र्ज़ी बिल बनाने के लिये निर्देश देने लगे हैं ।
और ऐसे अधिकारियों के भ्रष्ट निर्देश की अवहेलना की सज़ा बहुत बुरी होती है जिसमें षड्यंत्रों
की भारी वारिश अधीनस्थ को कहीं का नहीं छोड़ती । ...फिर भी, किसी
न किसी कड़ी को तो टूटना ही होगा । जो कड़ी टूटेगी उसे अपना बहुत कुछ खोना भी होगा ।
भारतीय संस्कृति ने हमें बारम्बार यही संदेश दिया है ।
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