रविवार, 19 जनवरी 2020

नागरिकता पर टकराते नागरिक


वैचारिक क्षमता मनुष्य के लिये प्रकृति की एक अनुपम देन है । किंतु वैचारिक भिन्नताओं ने इस देन को मनुष्य के लिये श्रापित कर रखा है जिसके कारण वैचारिक टकराव पूरी दुनिया के लिये सदा से गम्भीर समस्या रही है । आधुनिक शिक्षा ने वैचारिक भिन्नताओं को और भी धारदार बनाने में बड़ी सक्रिय भूमिका निभायी है । यह धार पारस्परिक टकराव को और भी जटिल बनाती है और हम प्रायः आसन्न विश्वयुद्ध से सशंकित हो उठते हैं । मुश्किल तब और बढ़ती है जब शिक्षित वर्ग अतीत की घटनाओं से कुछ न सीखने की हठ करने और  वर्तमान घटनाओं की उपेक्षा करते हुये भविष्य की मनमानी तस्वीर बनाने के अपने विचार पर अड़ जाता है ।
मैं भारतीय नागरिकता संशोधन कानून पर छिड़ी एक अनावश्यक और घटिया बहस की बात कर रहा हूँ । लोग इस कानून और राष्ट्रीयनागरिकता पंजी के विरोध में सड़क पर उतर आये हैं । पूरे देश में हिंसा और आगजनी हो रही है, पुलिस पर पथराव हो रहे हैं, लोग हिंदुओं की कब्र खोदने और इस धरती से हिंदुओं का नाम-ओ-निशान मिटा देने के नारे लगा रहे हैं । इन घटनाओं को अंजाम देने वाली सक्रिय भीड़ को यह नहीं पता कि वे यह सब क्यों कर रहे हैं । बस, कुछ लोगों द्वारा उनसे कहा गया है और वे यह सब कर रहे हैं । कहने वाले लोग विशेष वर्ग के दूरदर्शी हैं जिन्हें वैचारिक पोषण देने के लिये उठ खड़े हुये हैं शिक्षित लोग, साहित्यकार, फ़िल्मकार, शिक्षार्थी और शिक्षक । ये वे लोग हैं जो भारत के अतीत को नकारते हुये बड़े शातिराना तरीके से हिंदुस्तान से हिंदुओं का अस्तित्व समाप्त कर देने पर तुले हुये हैं । ये लोग इस तथ्य को सिरे से नकार रहे हैं कि भारत विभाजन के बाद से पृथक हुये देशों में भारतीय मूल के हिंदुओं और उनके अन्य मतावलम्बियों को धार्मिक आधार पर प्रताड़ित किया जाता रहा है, उनके साथ बलात यौनदुष्कर्म और धार्मिक हिंसा होती रही है जिसके कारण पाकिस्तान और बांग्लादेश में उनकी जनसंख्या आनुपातिक रूप से कम होती रही है । वे गुलदस्ते की ख़ूबसूरती और गंगा-जमुनी संस्कृति का बखान करते हुये मुस्लिमों के पक्ष में खड़े होकर हिंदुओं के साथ होने वाले षड्यंत्र को बनाये रखना चाहते हैं यह जानते हुये भी कि मुस्लिम ज़िहादियों ने पूरी दुनिया में अपने आतंक को बनाये रखने में अग्रणी भूमिका निभायी है और वे ज़ेव्स, यहूदियों, पारसियों, यज़ीदियों एवं कुर्द आदि अन्य धार्मिक समुदायों को अपनी हिंसा का लक्ष्य बनाते रहे हैं । ये अतिबुद्धिजीवी और आत्मघाती लोग सीरिया की तबाही के कारणों पर चर्चा भी नहीं करना चाहते । सीरिया ही नहीं, इससे पहले पर्सिया और अखण्ड भारत के अफ़गानिस्तान, बलूचिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश और कश्मीर घाटी में होते रहे जातीय जनसंहार पर भी चुप रहना चाहते हैं । निश्चित ही यह सब हिंदुओं के अस्तित्व के लिये गम्भीर चुनौती है । चुनौती देने वालों में गज़वा-ए-हिंद के गाज़ियों के साथ वे शिक्षित हिंदू भी सम्मिलित हैं जो धर्मनिरपेक्षता की ढाल लेकर मुस्लिमों के पक्ष में हिंदुओं के ख़िलाफ़ मैदान में उतर चुके हैं । ये धर्मनिरपेक्ष लोग मुसलमानों के लिये तो धार्मिक आधार पर चिंतित होते हैं किंतु धार्मिक आधार पर ही हिंदुओं के साथ होने वाले धार्मिक उत्पीड़न को बनाये रखना चाहते हैं । पुरानी शैली में कहूँ तो राक्षसी मानसिकता अपनी सम्पूर्ण विद्वता के साथ सीता के अपहरण के लिये सदा ही प्रयासरत रही है ...आज भी है ।
नागरिकता संशोधन कानून और राष्ट्रीय-नागरिकता पंजीयन दोनों अलग-अलग विषय हैं जिन्हें विरोधियों द्वारा एक साथ मिलाकर पेश किया जा रहा है । दूसरी बात यह कि नागरिकता संशोधन कानून विदेशी भारतवंशियों को नागरिकता देने के लिये है, भारत में रह रहे नागरिकों की नागरिकता छीनने के लिये नहीं, जैसा कि दुष्प्रचार किया जा रहा है । आज जब विदेशी अल्पसंख्यक भारतवंशियों को भारत की नागरिकता देने के वादे को पूरा किया जा रहा है तो हमें यह स्मरण कर लेना चाहिये कि भारत विभाजन के समय मोहनदास करमचंद गांधी और समकालीन अन्य ज़िम्मेदार नेताओं द्वारा खंडित देश के विदेशी हो चुके अल्पसंख्यकों को, वे जब चाहें तब भारत आ सकते हैं, के वादे के साथ भरोसा दिलाया था ।   
नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने वालों का एक अज़ीब सा तर्क है कि वे इसका विरोध केवल इसलिए कर रहे हैं क्योंकि इस संशोधन के द्वारा धार्मिक आधार पर भेदभाव करते हुये मुस्लिमों को वंचित कर दिया गया है । मैं इसे कुतर्क ही कहना चाहूँगा, जैसे कोई अमीर आदमी यह कहे कि वह कुपोषित बच्चों को दूध देने का विरोध केवल इसलिये कर रहा है क्योंकि सरकार उस अमीर आदमी के बच्चे को भी यही सुविधा क्यों नहीं दे रही है ।  
नागरिकता संशोधन कानून को लेकर की जा रही काँव-काँव में इसे मनुवादी घातक प्रभाव, दलित विरोधी मानसिकता, समाज विध्वंसक कार्यवाही, देश विभाजनकारी भूमिका और हिंदू राष्ट्र की स्थापना के लिये किये जा रहे षड्यंत्र की संज्ञा दी जा रही है । यह अद्भुत है कि इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना पर किसी को ऐतराज़ नहीं होता किंतु हिंदुस्तान में हिंदू राष्ट्र की कल्पना से ही लोग चीखना शुरू कर देते हैं ।
नेताओं, सेलिब्रिटीज़ और शिक्षित लोगों द्वारा यह लगातार दुष्प्रचार किया जा रहा है कि नागरिकता संशोधन कानून लागू होने से मुसलमानों और दलितों को भारत छोड़ना पड़ेगा, भ्रष्टाचार बढ़ जायेगा और ग़रीबों पर टैक्स की चोट पड़नी शुरू हो जायेगी । यानी हमारे देश के लुछ शिक्षित लोग आम जनता और पूरी दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि यदि आम के वृक्ष नहीं काटोगे तो लीची के वृक्ष का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा, धरती पर केवल आम ही आम दिखायी देंगे, ग्लोबल वार्मिंग बढ़ जायेगी और गेहूँ की फसल की जान निकल जायेगी । यहाँ बड़े शातिराना तरीके से दलितों को हिंदुओं से पृथक किए जाने की अवसरवादिता का भी एक नमूना दिखायी देता है ।
कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने पूरे विश्वास के साथ यह भी कह दिया कि यदि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़गानिस्तान के करोड़ों नागरिकों को भारत की नागरिकता दे दी जायेगी तो हमारे हिस्से के रोजगार के अवसर समाप्त हो जायेंगे और हमारे लिये भुखमरी की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी । यह उतना ही अच्छा कुतर्क है जितना अच्छा यह कि यदि किसी मरीज के नासूर का इलाज़ करना शुरू कर दिया जायेगा तो देश के हर नागरिक को अपना सीज़ेरियन ऑपरेशन करवाना पड़ेगा जिसका दुष्प्रभाव यह होगा कि धरती से मेढकों का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा, चिड़ियाँ उड़ना बंद कर देंगी और तितलियों के पंख जल जायेंगे ।
इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिये कि भारत का बेड़ा गर्क करने वालों की भीड़ में उच्च शिक्षितों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है जिसके कारण शिक्षितऔर बुद्धिजीवीजैसे शब्द पिछले कुछ दशकों से गालियों के प्रतीक बन गये हैं ।
हे आत्मघाती अतिबुद्धिजीवी शिक्षित लोगो! भारत का आम नागरिक जानना चाहता है कि आपकी चिंताओं के केंद्र में केवल मुसलमान ही क्यों है, यज़ीदी, ज़ेव्स, कुर्द या कश्मीरी पंडित क्यों नहीं है? आपकी धर्मनिरपेक्षता ठहरी हुयी क्यों है, उसमें तरलता क्यों नहीं है? आपको हिंदुओं के साथ होने वाले अत्याचार दिखायी क्यों नहीं देते? आपको हिंदू लड़कियों के साथ पाकिस्तान और बांग्लादेश में होने वाली यौनहिंसा की क्रूरता और बलात धर्मांतरण की पीड़ा व्यथित क्यों नहीं करती?
भारत के सुषुप्त नागरिको! हमें धार्मिक सहिष्णुता और धर्मनिरपेक्षता के बीच पसरे विस्तृत मरुस्थल को देखना होगा । हमें धर्मनिरपेक्षता के पक्षपातपूर्ण छल को समझना होगा । हम किसी भी धर्म के अस्तित्व को समाप्त किये जाने के पक्ष में बिल्कुल नहीं हैं और यह चाहते हैं कि सभी समुदाय अपने-अपने विश्वासों और मतों की तो रक्षा करें किंतु अन्य लोगों के विश्वासों और मतों को उपहत करने का हठ छोड़ दें । अपने निजी विश्वासों के साथ स्वतंत्रता की एक सीमा होनी ही चाहिये जिससे दूसरों के विश्वासों को आघात न पहुँचे । ध्यान रहे, हमारी असीमित स्वतंत्रता दूसरों की स्वतंत्रता के अधिकार को सीमित ही नहीं करती बल्कि बंदी बना लेती है ।        

और खरी बात यह कि लोकतंत्र की रक्षा के लिये तैनात व्यवस्था के पास यदि दण्ड की लाठी नहीं होगी तो लोकतंत्र को अलोकतंत्र बन जाने से कोई नहीं रोक सकेगा ।

बुधवार, 8 जनवरी 2020

अप्सरायें और मेढक


तारों से
अब रोशनी नहीं मिलती,
गर्मी बहुत है फ़िज़ाँ में,
पता नहीं क्यों फिर भी
इस मुल्क में
अब बर्फ़ नहीं गलती ।

वे कलाकार थे
अब सौदागर हो गये हैं
कला भी बेचते हैं
और आदर्श भी
मौका मिले
तो मुल्क भी बेच देंगे
वे सौदागर हैं
सिर्फ़ सौदागर ।

अप्सराएँ भी कब नाची हैं भला
किसी गाँव की चौपाल पर
वे तो आरक्षित हैं
केवल देवलोक में नाचने के लिए ।
अप्सराओं से क्या आशा
वे थीं ही कब हमारी
जो अब होंगी ।

शादी होनी थी, नागरिकता संशोधन कानून की
रिश्ता तय हुआ ही था
कि कुछ उटकाने वाले आ गये
उटकाने लगे रिश्ता  
...करने लगे
यहाँ वहाँ दंगे ।
कुछ आगजनी हुयी
कुछ मौतें हुयीं
कुछ घर तबाह हुये
कुछ मुल्क तबाह हुआ
हल्ला हुआ
तो निकल आये मौसमी मेढक
जो निकलते हैं हरबार
सिर्फ़
अपने मतलब के मौसम में ही ।
टर्राने लगे मेढक
...एक ही राग में
...ले के रहेंगे आज़ादी ।

नागरिकता कानून फेक दिया नेपथ्य में
...सामने ले आये अ-नागरिकता कानून
...फैलाने लगे अ-राजकता
गाने लगे लाल सलाम लाल सलाम ।


बहुत पढ़े लिखे हैं
मेढक मेरे देश के
...कुछ विद्वान हैं
...कुछ गंधर्व हैं 
ये अपने ही मौसम को जानते हैं,
ये अपने ही राग को गाते हैं  
ये नहीं मानते
भारत के छह मौसम,
ये नहीं गाते राग पहाड़ी  
चीखते हैं सिर्फ़
गंगा-जमुनी तहज़ीब
...जो नहीं होती कोई तहज़ीब ।
किंतु मैं
शिकायत करूँ भी तो किससे?
धधक उठे हैं चिराग
घर के ही कुछ कोनों में ।
आओ! हम आग बुझाएँ  
अँधेरों से तो बाद में भी निपट लेंगे,
पहले घर तो बचाएँ ।

रविवार, 5 जनवरी 2020

नागरिकता क़ानून संशोधन बना हंगामा



विदेशी धरती से भारतीय छात्रों द्वारा भारतीय क़ानून का विरोध प्रदर्शन...

2020 का साल अभी पूरी तरह से अपनी आँखें खोल भी नहीं पाया कि जार में बंद मेढकों की तरह भारत वंशियों ने विदेशी धरती पर भी अपने कारनामे दिखाने शुरू कर दिये ...बिना इस बात की परवाह किये कि उनकी इन हरकतों का स्थानीय निवासियों के मन-मस्तिष्क पर क्या प्रभाव पड़ेगा । बुधवार और गुरुवार को लंदन, न्यू यार्क, पेरिस, वाशिंगटन डी सी, बर्लिन, जेनेवा, द हाग, बार्सिलोना, सैन फ़्रांसिस्को, टोक्यो, एम्स्टर्डम और मेलबॉर्न जैसे शहरों में भारतीय छात्र और शिक्षक सड़कों पर आ गये... किसी ज़श्न के लिये नहीं बल्कि भारत सरकार की नीतियों और निर्णयों के विरोध में, …उन नीतियों और निर्णयों के विरोध में जो भारत, भारतीयता और मानवता के अस्तित्व की रक्षा के लिये बनाये गये हैं ।  
भारतीय नागरिकता संशोधन कानून, राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी और नागरिकता की राष्ट्रीय पञ्जी को लेकर विदेशी धरती से भारतीय छात्रों द्वारा भारतीय क़ानून के लगातार विरोध प्रदर्शन से हमारा यह भ्रम टूट गया है कि विख्यात विदेशी विश्व विद्यालयों में पढ़ने वाले छात्र बहुत प्रखर और सुलझे हुये होते हैं । जब यू.एस. के कोलम्बिया जैसे विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले लगभग एक सौ भारतीय छात्र यह कहते हुये कि भारतीय नागरिकता संशोधन कानून अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिमों और दलितों के मौलिक एवं राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध है, विदेशी धरती पर विरोध प्रदर्शन करते हैं और भारतीय नागरिकता संशोधन कानून की प्रतियाँ फाड़ते हैं तो मुझे संदेह होता है कि ये छात्र देश-दुनिया और मानवता को अपने जीवन में कभी कुछ दे भी सकेंगे या केवल कागज पर छपी हुयी डिग्रियाँ ही बटोर सकेंगे ?

पहली नज़र में लगता है कि भारत में होने वाली गतिविधियाँ इतनी जनविरोधी और दमनकारी हैं कि विदेशियों से भी चुप नहीं रहा जाता और उन्हें विरोध प्रदर्शन के लिये सड़क पर उतरना पड़ता है । प्रदर्शनकारियों द्वारा बनाये गये वीडियो उनकी चुगली के लिये काफी हैं । इन प्रदर्शनों में भारतवंशियों के चेहरे नज़र आते हैं जिनमें वर्तमान बांग्लादेश और पाकिस्तानी नागरिकों की संख्या अधिक हुआ करती है । पाकिस्तानी और बांग्लादेशी नागरिकों को लगता है कि घुसपैठ कर भारत जाकर बस गये उनके भाई-बंधु अब मनमानी नहीं कर पायेंगे । भारत में सरकार विरोधियों और वामपंथियों की फ़ौज उन्हें पूरा समर्थन देने के लिये हमेशा तैयार रहती है ।
विदेशी विश्वविद्यालयों में विरोध हो रहा है हमारे कानून का क्योंकि हम ख़ामोश हैं । भारत में अफ़वाहें फैलायी जा रही हैं जिनसे हिंसा और आगजनी की घटनायें हो रही हैं क्योंकि हम ख़ामोश हैं । यह सब इसलिये हो रहा है क्योंकि जिन्हें जेल में होना चाहिये वे आज़ाद हैं और जिन्हें बोलना चाहिये वे ख़ामोश हैं ।
भारत से बाहर उत्पीड़न के शिकार हो रहे विदेशी हो चुके भारतवंशी अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता देने से सम्बंधित संशोधित कानून और सरकार की नीतियों का देश भर में विरोध हो रहा है । सदन में हार चुका विपक्ष सदन से बाहर युद्ध के लिये ताल ठोंक चुका है । लोग पत्थर फेंक रहे हैं, पुलिस वालों को पीट रहे हैं, सरकारी और निजी सम्पत्तियों को तोड़ रहे हैं या उनमें आग लगा रहे हैं । अतिबुद्धिजीवी लोग बे-सिर-पैर की बातें करके आम जनता को भड़का रहे हैं । पूरे देश में अराजकता उत्पन्न करने की सारी कोशिशें की जा रहीं । विरोधप्रदर्शनकारियों में ऐसे अतिबुद्धिजीवियों की संख्या बहुत ज़्यादा है जिन्हें यह भी पता नहीं होता कि वे किस बात का विरोध करने सड़क पर पत्थरबाजी कर रहे हैं या पत्थरबाजों का समर्थन कर रहे हैं ।
भारत में कुछ ऐसे भी मुद्दे हैं जिन पर कभी हंगामा नहीं हुआ और जिन्हें हमेशा नेपथ्य में धकेला जाता रहा । उन्नीस सौ सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक में कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों का हिंसक निर्वासन होता रहा, उनकी बेटियों से यौनदुष्कर्म होते रहे, पुरुषों और बच्चों की हत्यायें होती रहीं, घोषणा करके खुले आम उनकी सम्पत्तियों को लूटा जाता रहा तब इसी भारत में कोई हंगामा नहीं हुआ ।
पिछले कई दशकों से असम के कई जिलों में बांग्लादेशी मुसलमानों की घुसपैठ होती रही । कुछ जिलों में तो इस घुसपैठ के कारण वहाँ अल्पसंख्यक हो गये हिंदुओं की ज़िंदगी नारकीय होती रही, उनकी बेटियों से छेड़छाड़ और यौनदुष्कर्म होते रहे तब इसी भारत में कोई हंगामा नहीं हुआ । सब कुछ नेपथ्य में जाकर विलीन होता रहा । क्या ये सारी स्थितियाँ भारत और भारत के हिंदुओं के लिये आत्मघाती नहीं हैं ?
...और आज जब घुसपैठियों पर लगाम कसने के लिये कानूनी उपाय किये जा रहे हैं तो भारत के ही विपक्षी दल भारत के ख़िलाफ़ एक गैरज़रूरी जंग के लिये उठकर खड़े हो गये हैं ।   
नागरिकता संशोधन कानून पर बरपा हंगामा हमें यह सोचने पर मज़बूर करता है कि यदि अभिव्यक्ति की आज़ादी का यही अर्थ है तो क्या वास्तव में भारत के लोगों को यह आज़ादी मिलनी चाहिये ? मैं पूरी दृढ़ता से कह सकता हूँ कि ...बिल्कुल नहीं । इस तरह की हिंसक और विघटनकारी आज़ादी की अपेक्षा प्रतिबंधों की लगाम कहीं अधिक रचनात्मक और सर्वहारा के लिये कल्याणकारी है ।
नागरिकता संशोधन कानून पर सदन में हार चुके राजनीतिक दल अफ़वाहों के सहारे तूफ़ान लाने की तैयारी में जुट गये हैं । हर बात पर विरोध और हंगामा करना विपक्ष का धर्म बन चुका है । मैं अक्सर सोचता हूँ कि क्या पक्ष और विपक्ष दोनों को चुनावों के बाद एक साथ मिलकर देश की बेहतरी के लिये काम नहीं करना चाहिये! क्या विपक्ष का धर्म केवल विरोध करना ही है, और क्या वे अपनी सारी ऊर्जा विघटनकारी हरकतों में ही नष्ट करना सीख सके हैं । आख़िर सभी राजनैतिक दलों द्वारा मिलजुल कर देशसेवा की अवधारणा को अभी तक विकसित क्यों नहीं किया जा सका? विपक्ष के होने का उद्देश्य क्या केवल सत्ता पाने के लिये संघर्षरत रहना ही रह गया है ?       
...और इन सारे हंगामों के बीच यह ख़बर भी है कि रूस, यूके, यू एस ए, फ़्रांस और इज़्रेल ने अपने नागरिकों को भारत यात्रा न करने के लिये आगाह कर दिया है । भारत की इस अमंगलकारी छवि के लिये दोषी कौन है? भारत में होने वाली गतिविधियों को लेकर विदेशी धरती पर होने वाली प्रतिक्रियाओं के पीछे कौन है?