रविवार, 16 फ़रवरी 2020

सी.ए.ए. का विरोध यानी मानवीय संवेदनाओं का विरोध


भारतीय नागरिकता कानून संशोधन के विरोध प्रदर्शन के एक मामले में मुम्बई हाईकोर्ट ने एक याचिका पर सुनवायी करते हुये निर्णय सुनाया है कि किसी कानून का विरोध प्रदर्शन करना राष्ट्रद्रोह या देश के साथ गद्दारी करना नहीं है । सुप्रीम कोर्ट के भी एक न्यायाधीश डी. वाय चंद्रचूड़ मानते हैं कि असहमति पर अंकुश लगाने के लिए सरकारी तंत्र का इस्तेमाल डर की भावना पैदा करता है । अहमदाबाद में गुजरात हाई कोर्ट के ऑडिटोरियम में 15वें पी. डी. मेमोरियल लेक्चर में डी. वाई. चंद्रचूड़ ने 'असहमति' को लोकतंत्र का 'सेफ्टी वॉल्व' भी बताया । उन्होंने कहा, 'असहमति को एक सिरे से राष्ट्र-विरोधी और लोकतंत्र-विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण एवं विचार-विमर्श करने वाले लोकतंत्र को बढ़ावा देने के प्रति देश की प्रतिबद्धता की मूल भावना पर चोट करती है”।
सेफ़्टी बॉल्व वाली बात मनोवैज्ञानिक है और लोकतंत्र के लिए आवश्यक भी । किंतु यह भी सत्य है कि देश-काल और वातावरण को देखते हुये कही गयी किसी बात के अर्थ भी संदर्भनिरपेक्ष नहीं हो सकते । एक आम आदमी होने के नाते, न्यायाधीशों की समसामयिक टिप्पणियों के अर्थ ग्रहण करने की स्वतंत्रता हम सभी को प्राप्त है ।   
हम पुनः आते हैं मुम्बई हाईकोर्ट के ताजे फैसले पर, जिसमें कहा गया है कि “किसी कानून का विरोध प्रदर्शन करना राष्ट्रद्रोह या देश के साथ गद्दारी करना नहीं है”। .. अर्थात सीएए, एनआरसी और एनपीआर का विरोध करना लोकतांत्रिक है जबकि इनका समर्थन करना अलोकतांत्रिक और फासीवाद है । हर प्रकार के विचार और क्रियान्वयन का विरोध यदि उचित है और विरोध करने वाले का अधिकार है तो उसी विचार और क्रियान्वयन के समर्थन को अनुचित और अनधिकार स्वीकार करना होगा । दूसरी ओर इस अर्थ की एक ध्वनि यह भी है कि हमें भी जज साहब के निर्णयों और प्रतिक्रियाओं के विरोध प्रदर्शन का मौलिक अधिकार प्राप्त है । किंतु तब ऐसी स्थिति में न्यायालय की अवमानना का कोई अर्थ नहीं रह जाता ।  
जज साहबान बड़ी चालाकी से अपने निर्णय और अपनी प्रतिक्रियाओं को विवादास्पद बना कर लोकतंत्र का बहुत बड़ा अहित करने का शौक फ़रमा रहे हैं । सीएए के विरोध प्रदर्शन को जज साहब आम आदमी की असहमति और मौलिक अधिकार मानने का निर्णय लेते समय असहमति के स्वरूप और मौलिक अधिकार की सीमा की बात को गोल कर जाते हैं । इसे भूल कहा जाय या धूर्तता यह आम आदमी के विवेक पर छोड़ देना उचित होगा ।
तो मामला यह है कि कुछ लोग जो संविधान और सर्वोच्च न्यायालय को मानने से इंकार कर देते हैं, वे सीएए के सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन की अनुमति न दिये जाने के विरोध में स्थानीय प्रशासन के विरुद्ध मुम्बई की शीर्ष अदालत का दरवाज़ा खटखटाने का पाखण्ड करते हैं । शीर्ष अदालत सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन को नागरिकों का मौलिक अधिकार मानते हुये उनके पक्ष में फैसला सुनाती है । वे भारत के एक ऐसे कानून का विरोध कर रहे हैं जिससे किसी को कोई क्षति होने की सम्भावना नहीं है बल्कि धार्मिक भेदभाव के कारण दुःखी और पीड़ित भारतवंशियों के साथ मानवीय न्याय होने की सुनिश्चितताएँ हैं । सीएए का विरोध मानवीय संवेदनाओं का विरोध है । सीएए का समर्थन मानवीय करुणा का समर्थन है । और अदालत कहती है कि सीएए का विरोध आम आदमी का मौलिक अधिकार है । मैं भी इस देश का एक आम आदमी हूँ और इस नाते यह जानना चाहता हूँ कि क्या किसी समाज को ऐसे भी किसी मौलिक अधिकार की आवश्यकता है?
किंतु-परंतु की यहाँ कोई गुंजाइश नहीं है । विरोध प्रदर्शन कब हिंसक हो जाय इस बात की सुनिश्चितता कोई नहीं करना चाहता, इसमें किसी की कोई रुचि नहीं । शाहीन बाग में विरोधियों द्वारा हिंसा किए जाने की ख़बर नहीं है । हिंसा के कितने स्वरूपों को जानते और पहचानते हैं आप? एक आदमी अपनी हर उचित या अनुचित बात को मनवाने के लिए अन्न-जल त्यागने की धमकी देता है, लोग उसकी इस धमकी से डर जाते हैं और एक ज़िद्दी आदमी के प्राणों की रक्षा के लिए उसकी हर बात को मान लेते हैं ...ऐसी बातों को मान लेते हैं जिनका दुष्प्रभाव अनिश्चित काल के लिए एक विराट जन समुदाय पर पड़ने वाला है । वैचारिक हिंसा के इस सर्वाधिक क्रूर स्वरूप में किसी भी कोण से मैं आज तक अहिंसक स्वरूप को नहीं देख सका ...और आप इसे अहिंसा कहते हैं!

मदरसे की एक बच्ची एक गीत पेश करती है जिसमें भारत के प्रधानमंत्री का नाम लेकर अपशब्द कहे जाते हैं । श्रोता बच्चे तालियाँ बजाते हैं और प्रधानमंत्री के लिए अपमानजनक नारे लगाते हैं । आप इसे एक नाबालिग बच्ची के मन की भावना और लोकतंत्र का सेफ़्यी ब्प्ल्व कह कर उसका बचाव करते हैं बिना कोई उत्तरदायित्व तय किए कि उस बच्ची को मदरसे में ऐसा करने की अनुमति देने वालों में सभी लोग बालिग और ज़िम्मेद्दार लोग मौज़ूद हैं । उधर दिल्ली में नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री के लिए अपमानजनक टिप्पणी करने वाले के ख़िलाफ़ कार्यवाही की माँग की जाती है ...लेख लिखे जाते हैं ...और नैतिकमूल्यों-मानवीयमूल्यों-फासीवाद-हिंदूआतंकवाद जैसे भारीभरकम शब्दों के साथ बलात्कार किया जाता है ।

अगवा कर लिया गया है दीपक ...अगवा कर लिया गया है कानून... अगवा कर लिया गया है संविधान ....अगवा कर लिये गये हैं महापुरुष ...तुम किस सभ्यता की बात करते हो! देख कर भी नहीं देखतीं आँखें ....सुन कर भी नहीं सुनते कान...मनन करके भी नहीं मानता मन ...कि घिर आये हैं अँधेरे ...बेशुमार गूँजते हैं अट्टहास ...चढ़ा दो फाँसी पर सत्य को ...जलता है जिसका मात्र एक ही दीपक ...पाता है ख़ुद को असहाय । मिटा दो दीपक का अस्तित्व ,,,पूरे मुल्क में खोद डालो कब्रें ...दीपक की क्या औकात ...कि रोक सके अँधेरों की हैवानियत ।

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