रविवार, 23 फ़रवरी 2020

तू चल मैं आता हूँ



एक समय था जब वैज्ञानिकों के लिए बहुत आदर था मेरे मन में । उनकी विलक्षण बुद्धि, चमत्कारी उपलब्धियाँ, जीवन को सरलतम बनाने की क्षमताएँ ...किसी के लिए भी आकर्षण और जिज्ञासा का कारण हो सकती हैं । किंतु अब मेरा दृष्टिकोण पूरी तरह बदल गया है । अब मैं देख पा रहा हूँ उस क्रूर अभिषाप को भी जो समवाय सम्बंध से जुड़ा हुआ है इन तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों के साथ ।
कोई वैज्ञानिक अपने पास नहीं रखता अपनी कोई उपलब्धि, अपना कोई चमत्कार ...अपना कुछ भी । वह दे देता है सब कुछ उस लोक को जो नहीं होता है उसके लिए लेश भी उपयुक्त पात्र । परिणाम होता है वैज्ञानिक उपलब्धियों का दुरुपयोग ।
आप मेरी दृष्टि से देखेंगे तो दिखाई पड़ जायेगा कि हर नवीन वैज्ञानिक उपलब्धि पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले व्यापारी वैज्ञानिक उपलब्धियों का निर्मम दोहन करने के अभ्यस्त हुआ करते हैं । ...और इस सबको रोकने की ज़िम्मेदारी ले रखी है जिन्होंने वे सब कोर्निश करने लगे हैं रोटेशील्ड के दरबार में । व्यापारी विष का सौदागर बने या एटम बम का, इस सौदेबाजी से जनजीवन पर क्या दुष्परिणाम होंगे ..इससे भी कोई प्रयोजन नहीं होता सरकारों को । कोई वैज्ञानिक नई खोज करता है, एक नयी डिवाइस बनती है, व्यापारी उसका उत्पादन करता है और फिर उस उत्पाद को सौंप देता है उन असंख्य अकुशल हाथों में जिन्हें नहीं पता होता उस उत्पाद का क ख ग भी । मोबाइल फ़ोन जैसे एक आम डिवाइस का सही उपयोग कितने लोग कर पाते हैं ? …और दुरुपयोग कितने लोग करते हैं ...किन-किन रूपों में करते हैं ...यह अब किसी से छिपा नहीं रहा । दूरसंचार की इसी उपलब्धि ने सायबर क्राइम को जन्म दिया और आज पूरी दुनिया के लिये एटम बम से भी अधिक बड़ा ख़तरा सायबर क्राइम से हो गया है । दुनिया भर के दिव्य-आयुध मूर्खों के हवाले कर दिए गये हैं और हम गर्वोन्मत्त हैं कि हमसे बड़ा सभ्य और विकसित और कोई प्राणी नहीं ।
दर-असल यह सब लिखने से पहले मेरे मन में एक दुःख था ...देशी गाय के शुद्ध दूध की अनुपलब्धता को लेकर । वर्षों बाद एक बार मुझे गाँव जाने का अवसर मिला । मैंने देखा कि जिस गाँव में कभी हर दरवाजे पर कुछ पशुधन खड़ा दिखायी दिया करता था वहाँ अब सूनापन है । बैलों का स्थान ट्रेक्टर ने ले लिया, गोबर का स्थान केमिकल फ़र्टीलाइज़र्स ने ले लिया और गाय-भैंस का स्थान शहर से आने वाले डेयरीवाले के इंतज़ार ने ले लिया है । गाँव के लोग अब शहर की डेयरी से आने वाले दूध पर निर्भर हैं जो पानी मिला हो सकता है, नकली हो सकता है ...या फिर बॉस टॉरस नामक एक नकली गाय का हो सकता है जिससे मोटापा-हृदयरोग-मधुमेह या कैंसर होने की सम्भावनायें होती हैं । मुझे आश्चर्य हुआ था, गाँवों की दुनिया इतनी कैसे बदल गयी ...और बदलाव भी कैसा ...इतना दुःखदायी ...इतने अभावों और वंचनाओं  से भरा हुआ !
गाँव के लोग अब अपनी फसलों की निराई नहीं किया करते, हर्बीसाइड्स जो आ गये हैं ..जिन्होंने छीन लिया है गायों-भैंसों के मुँह का हरा निवाला और किसानों की मांसपेशियों को बना दिया है शिथिल । नन्हें बच्चों की किताब से वह कविता भी हटा दी गयी है जिसमें खेत के साझेदारों - कौवे और गिलहरी का काव्यात्मक संवाद हुआ करता था । गिलहरी किसी भी काम के लिये कहती तो कौवा एक ही उत्तर देता – तू चल मैं आता हूँ, चुपड़ी रोटी खाता हूँ, ठण्डा पानी पीता हूँ, हरी डाल पर बैठा हूँ । कमेरी गिलहरी खेत जोतने से लेकर बीज बोने, निरायी करने, पानी देने और फसल काटने तक के सारे काम अकेले ही करती रही । आलसी कौवे ने कुछ भी नहीं किया, यहाँ तक कि अपने हिस्सा का अनाज उठाकर घर भी नहीं ले गया जो अंततः वारिश में बह गया ।
अब इस प्रेरणास्पद कहानी का कोई औचित्य नहीं रहा । नई रोशनी के बच्चे नहीं जानते कि निराई किसे कहते हैं । हर्बीसाइड्स ने खा डाली हरियाली ...और खा डालीं हमारी इकोफ़्रेण्ड्ली कृषि परम्परायें ।
कुछ दशक पहले तक जो बीमारियाँ राजरोग के नाम से जानी जाती थीं वे अब निहायत ग़रीबों और मेहनतकश मज़दूरों को भी होने लगी हैं । चिकित्सा के ढेरों सिद्धांत उलट-पुलट होने लगे हैं, विज्ञान का सत्य अब यूनीवर्सल ट्रुथ नहीं रहा । ...और मैं इस सबको एक आसन्न संकट की पदचाप के रूप में सुन पा रहा हूँ ...स्पष्ट सुन पा रहा हूँ । शायद हर बार किसी सभ्यता के नष्ट होने का प्रमुख कारण वैज्ञानिक ही होते होंगे जो आज तक यह नहीं समझ पाये कि कोई दिव्यायुध किसी मूर्ख हाथ को नहीं सौंपा जाता ।  

1 टिप्पणी:

टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.