अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,
लोकतांत्रिक मूल्यों,
आस्था,
व्यक्तिगत विचार,
क्रिटिक और लोकतंत्र के सेफ़्टी बॉल्व
के नाम पर कोई भारत के प्रधानमंत्री के चित्र पर जूते मारने और थूकने का वीडियो
बनाकर अपलोड करता है तो कोई गालियों के साथ-साथ अमर्यादित टिप्पणियाँ करता है । विरोध
और आलोचना लोकतंत्र की पवित्रता बनाए रखने के लिये आवश्यक हैं किंतु विरोध का
स्वरूप क्या यही होना चाहिए? यह
कैसी अमर्यादित और ज़ाहिलाना स्वतंत्रता है?
बेशक! इस तरह की ज़ाहिलाना हरकतों ने मुझे
इस तरह की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति का पूरी दृढ़ता के साथ विरोध करने के लिए मज़बूर
कर दिया है ।
निस्संदेह,
यह मोदी के राजनीतिक विरोध के बहाने हिंदुत्व
का खुला विरोध है …गज़वा-ए-हिंद
का आग़ाज़ है । मैं इसे कम्युनो-एथ्निक-रिलीजियस मॉब लिंचिग मानता हूँ ...जो
हिंदुत्व के साथ-साथ इस्लाम में आस्था न रखने वालों के भी ख़िलाफ़ एक खुली जंग है । अब
हमें यह मानने से कोई गुरेज़ नहीं होना चाहिये कि गंगा जमुनी तहज़ीब के ढकोसले के बाद
भी भारत में धार्मिक ध्रुवीकरण को कभी भी रोका नहीं जा सका । और आज की स्थिति यह
है कि भारतीय समाज एक और भारत विभाजन की ओर बहुत आगे तक बढ़ चुका है । इसे रोकने की
ज़िम्मेदारी किसकी है? यह हिंदुत्व पर धार्मिक मॉब लिंचिंग है
जो सही अर्थों में सेक्युलरिज़्म का वास्तविक
चेहरा है ।
मदरसों में गंगाजमुनी संस्कृति
और भाईचारे के अद्भुत ज्ञान की छटा अब बाहर भी रिसकर आने लगी है,
यह भयानक है ...पूरी तरह दहशत फैलाने
वाले इरादों से परिपूर्ण...! मदरसों और
मदरसा कल्चर वाले सेक्युलरिस्ट शिक्षण संस्थानों की तस्वीर अब बहुत कुछ साफ़ हो
चुकी है । सोने वाले अभी भी सो रहे हैं,
दूसरी ओर सेना और सुरक्षा बलों पर आये
दिन होने हमलों से देश की नब्ज़ को टटोला जा चुका है । तालिबानों यानी किशोरवय
छात्र-छात्राओं के
मुँह से प्रधानमंत्री मोदी को गालियाँ दिलवायी जा रही हैं,
कहीं नाटक के माध्यम से,
कहीं वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के
माध्यम से तो कहीं गीतों और कविताओं के माध्यम से । और जब इन पर कानूनी कार्यवाही
होती है तो भारत का अतिबुद्धिजीवी वर्ग “नन्हें बच्चों के प्रति हुकूमत की क्रूरता”,
“दमनात्मक कार्यवाही”,
“सत्य का दमन”,
“कला और साहित्य को बंधक बनाने की
कोशिश”, “फासीवाद”,”अभिव्यक्ति
की आज़ादी” और “क्रिटिक-कल्चर” जैसे जुमलों के साथ सुरक्षाकवच बन कर मैदान में कूद
पड़ता है । अब इस धोखे में रहने की ज़रूरत नहीं कि सारी दुनिया की निगाहें हमारी इन
हरकतों पर नहीं हैं । सारी दुनिया समझ रही है कि हम कितने खोखले और अपने घर के
गद्दारों से घिरे हुये असहाय और निर्बल प्रजा हैं । दुनिया में चीलों और सियारों
की कमी नहीं जो मौका पाते ही हमारे ऊपर झपट पड़ने के लिए तैयार बैठे हैं । और हम
हैं कि बा-ख़बर होते हुये भी बे-ख़बर होने का अभिनय कर रहे हैं ।
हमारा समाज एक और भारत विभाजन
की दिशा में निरंतर आगे बढ़ता जा रहा है,
भले ही कुछ लोग इसके लिए तैयार न हों ।
इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा ...सब कुछ अनियंत्रित किंतु पूर्वनियोजित है और हम सब
भीड़ के चुंगुल में फँसते जा रहे हैं । गान्धी भी तैयार नहीं थे किंतु भारत विभाजन
हो कर रहा । “ले के रहेंगे हिंदुस्तान”,
“इस्लाम की हुकूमत”,
“शरीया कानून लागू करके रहेंगे”,
हिंदुओं का नाम-ओ-निशान मिटा देंगे”
...जैसे उत्तेजक नारे ख़ुले आम लगाये जा रहे हैं और हम अपने पूर्वजों की विरासत को सहेजने
के लिये “हिंदू राष्ट्र की अवधारणा” का नाम तक लेने में काँप जाते हैं । क्या अब भी
किसी को यह बताने की आवश्यकता है कि वैचारिक मॉब लिंचिंग का दायरा बढ़ता जा रहा है
....पूरी राजनीति मॉब लिंचिंग का शिकार हो चुकी है!
भारत के इस अराजक होते अभारतीय
समाज को अंकुश में करने के लिये लोकतंत्र के स्वरूप पर गहन चिंतन मंथन करना होगा ।
हिंदुत्व पर चारों ओर से हो रहे प्रहार
से स्पष्ट है कि भारत को एक और इस्लामिक देश बनने के लिये तैयार किया जा रहा है । मदरसे
अराजकता और आतंक के केंद्र हो चुके हैं । बच्चों के कोमल मस्तिष्क में बोये जाने
वाले ये नफरत के बीज किसी राजनीतिक दल विशेष के लिए नहीं बल्कि किसी क़ौम के लिये
हैं । हम एक और भारत विभाजन नहीं चाहते इसलिए संविधान में एक और संशोधन की
आवश्यकता है ...धार्मिक आधार पर खोले गये सभी विद्यालय बंद होने चाहिये । शिक्षा
में एकरूपता ज़रूरी है । मैं समझना चाहता हूँ कि गंगा जमुनी तहज़ीब और भाई चारे की
अद्भुत मिसाल पेश करते इन मदरसों की ज़रूरत दुनिया की किसी भी कौम के लिये क्यों होनी
चाहिये ?
मैं यह भी समझना चाहता हूँ कि शिक्षण संस्थाओं और सामाजिक जीवन में व्यक्तिगत आस्थाओं
के सार्वजनिक प्रदर्शनों, विरोध
का स्तर और उसकी तीव्रता कितनी होनी चाहिये ?
दुर्भाग्य से लोकतांत्रिक देश भारत में
आज तक इसके लिए कोई पैमाना नहीं निर्धारित किया जा सका है ...फ़िर भी यह अंदाज़ तो
लग ही चुका है कि यह थ्रेश होल्ड से कहीं बहुत ज़्यादा है !
क्या अब एक कानून ऐसा भी नहीं बनना चाहिए
जो विरोध का स्तर और उसकी मर्यादा को तय कर सके ?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.