अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के बाद अब यह “अनुभूति की स्वतंत्रता” का नया काल प्रारम्भ हो चुका है
। मामला है जनाने ज़िस्म में मर्दाने मूड और मर्दाने ज़िस्म में जनाने मूड की अनुभूति
का । उम्र है गधा-पचीसी की और संविधान है बिल्कुल ताजा-ताजा जिसकी टर्मिनोलॉज़ी भी अभी
तक कुछ लोगों के अतिरिक्त आम लोगों को ठीक से नहीं मालुम ।
जन्म के
समय अस्पताल की नर्स ने जिस जवजात को लड़की के रूप में पहचाना था वह आज पंद्रह साल
के बाद नहीं चाहती कि उसे लड़की के रूप में सम्बोधित किया जाय । उसकी मर्ज़ी के
ख़िलाफ़ दिया गया सम्बोधन उसे अपमानजनक लग सकता है और ऐसा करना उसके मानवीय अधिकारों
का हनन है । आज हमारी नयी पीढ़ी ने अपने परिचय और अपनी नयी-नवेली जीवनशैली के लिये
एक नया और अद्भुत संविधान बना लिया है जिसमें तीन, चार या छह प्रकार के
लिंग न होकर पूरे बावन प्रकार के लिंग भेद किये गये हैं । धर्म, जाति और लिंग के अनुसार समाज में किसी भेदभाव को अस्वीकार करने वाली नयी
क्रांतिकारी पीढ़ी ने अपने लिये बावन प्रकार के लिंग भेद स्वीकार कर लिये हैं,
नयी पीढ़ी के चिंतन में यह आश्चर्यजनक विरोधाभास है ।
आज की
प्रगतिशील नयी पीढ़ी “टीन टाक” (किशोरवार्ता) में “ज़ेण्डर
प्रोनाउन” और “सेक्स एक्स्प्रेशन”
पर गम्भीर चिंतन करने लगी है । ये इतने नये शब्द हैं कि इन्हें अभी
शब्दकोष में स्थान नहीं मिल सका है । मोतीहारी वाले मिसिर जी निराश होकर कहते हैं
कि दुनिया में समस्याओं के अम्बार लगे हैं, मानव सभ्यता
विनाश के कगार पर खड़ी है और नयी पीढ़ी “ज़ेण्डर प्रोनाउन”
और “सेक्स एक्स्प्रेशन” जैसे
अस्तित्वहीन शब्दों को गढ़ने और उनकी व्याख्या में डूबी हुयी है ।
हर तरह
के विभेद का विरोध करने वाली किशोर पीढ़ी ज़ेण्डर आइडेंटिटी और सेक्सुअल ओरिएण्टेशन
को अलग-अलग दृष्टि से देखना चाहती है । आज से मात्र तीन दशक पहले तक पर्वर्टेड
सेक्सुअल बिहैविअर को भारतीय समाज में वर्ज्य माना जाता था ...इतना वर्ज्य कि लोग
इस पर चर्चा भी नहीं करना चाहते थे किंतु अब ऐसा नहीं है । नयी पीढ़ी बड़े गर्व के
साथ अपने पर्वर्टेड सेक्सुअल बिहैविअर का परिचय “ट्रांस”, “गे” या “लिस्बियन” कहकर देने लगी है । यह एक ऐसी किशोर अपसंस्कृति है जिस पर समाजशास्त्रियों
को गम्भीर चिंतन-मनन करने की आवश्यकता है और इसे यूँ ही भाड़ में नहीं जाने दिया जा
सकता ।
हमारी
सभ्य नयी पीढ़ी नहीं चाहती कि उन्हें उनके उस लिंग से पहचाना जाय जो वे जन्म से अपनी
एनाटॉमिकल संरचना के साथ लेकर आये हैं बल्कि वे चाहते हैं कि उन्हें उनके मूड और अनुभूति
के अनुसार पहचाना जाय । यह हमारे समाज के एल.जी.बी.टी.क्यू. प्लस क्रांति के अगले
चरण का एक हिस्से जैसा प्रतीत होता है । ख़ुलासा यह है कि यदि किसी लड़के का मूड है
कि आज उसे लड़की के रूप में जाना व पहचाना जाय किंतु आपने ऐसा नहीं किया तो उसे
बहुत बुरा लग सकता है और यह उसके मानवीय अधिकारों और अभिव्यक्ति व अनुभूति की
स्वतंत्रता का हनन होगा । यही बात लड़कियों के बारे में भी है । हमारी नितांत ताजी
नयी पीढ़ी में एक वर्ग ऐसा भी हो जो अपनी एनाटॉमिकल संरचना (Cisgender) के साथ ही अपनी पहचान बनाये रखना चाहता है, ऐसे
लोगों को “स्ट्रेट” की संज्ञा दी गयी
है और उन्हें दकियानूस व पिछड़ा हुआ माना जाने लगा है ।
टीनेज़’र्स
कांस्टीट्यूशन ऑफ़ सेक्स एण्ड ज़ेण्डर आइडेंटिटी के अनुसार – “Gender
identity is not about someone’s anatomy, it is about who they know them self to
be. There are many different gender identities, including male, female,
transgender, gender-neutral, non-binary, agender, pangender, genderqueer,
two-spirit, cisgender, third gender, gender fluid, and all, none or a
combination of these”.
“Gender
expression is about how someone acts and presents themselves to world. For
example, does someone wear makeup? Do they wear dresses? Do they prefer to only
wear pants? Gender expression is not related to someone’s gender or sex but
rather about personal behaviors and interests. A cisman may wear nail polish or
a trans woman may not like wearing dresses. Sometimes people don’t express
their gender in the way they would like to because they don’t feel safe to do
so. This is why it’s important to not assume someone’s gender just based how
they look, but rather by checking in
with them. Gender expression is also deeply tied to culture”.
अंग्रेज़ी
के शब्दकोष में आपको agender,
pangender, genderqueer, two-spirit, cisgender, और gender
fluid जैसे गढ़े हुये नये शब्द अभी खोजने से भी नहीं मिल सकेंगे ।
सोशल मीडिया पर हमारे टींस अपने नाम के साथ अपने लिये सम्बोधित किए जाने वाले Gender
pronoun के कोड भी लिख दिया करते हैं, यथा –
She/her या him/he या zi/hir या they.
“ज़ेण्डर प्रोनाउन” और “सेक्स
एक्स्प्रेशन” को लेकर नवनिर्मित टीनेज़’र्स
संविधान पर गौसगंज वाले गुस्सैल शुक्ल जी की टिप्पणी कुछ इस तरह की है – “भाई साहब! जब गंगा ही मैली हो चुकी है तो समाज कैसे निर्मल रह सकता है !
बर्गर-पिज्जा खाऊ पीढ़ी के सामने आजीविका की कोई समस्या नहीं है,
देह अपने ही बोझ से भारी है, दिमाग खाली है,
ऊपर से माँबाप ने बच्चों को संटियाना भी बंद कर दिया है और
लेफ़्टियाना सिद्धांत इन ना-लायकों के मनोविनोद के लिये कम पड़ने लगे हैं । तो
भाईसाहब! बात ये है कि एल.जी.बी.टी. क्यू प्लस की सतरंगी लहर इनके दिमाग में भी
घुस गयी है । अब या तो कोरोना को अपना धर्म निभाने दिया जाय या फिर इस सड़ाँध को
रोकने के लिये एक और विवेकानंद की प्रतीक्षा की जाय”।
फ़िलहाल हम
इस उधेड़बुन में हैं कि अपने प्रगतिशील और क्रांतिकारी टीन्स को बावन लिंगों वाले इस
कूप से बाहर कैसे निकालें ।