मोतीहारी वाले मिसिर जी भारतीय
राजनीति के दो मूल तत्व बताते हैं, प्रथम यह कि “राजनीति एक ऐसी बटलोई है जिसमें कुछ भी पका कर
खाया जा सकता है। बस, खाने
वाले में दृढ़इच्छा शक्ति होनी चाहिये। क्रांतियों और युद्धों का इतिहास बताता है
कि पकाने वाला कोई और होता है, खाने
वाला कोई और होता है”। और
द्वितीय यह कि “भारत
में भले ही गणतंत्र और राजतंत्र के लिए सदा संघर्ष होता रहा है किंतु यहाँ की
प्रजा राजतंत्र के लिए स्वयं को सर्वाधिक उपयुक्त प्रमाणित करती रही है”।
वे यह भी बताते हैं कि आम भारतीय अपने
नायक को मनुष्य के रूप में नहीं बल्कि केवल भगवान के रूप में ही स्वीकार करना
चाहता है। भगवान कृष्ण, भगवान
बुद्ध, भगवान
भीम, भगवान
गांधी, भगवान
नेहरू, भगवान लालू और उनके पुत्र, भगवान मुलायम, भगवान ... आदि इसके उदाहरण हैं। भगवानों के
सहारे सत्ता कबाड़ने में बहुत बड़ा सहयोग मिलता है। जब हम अयोग्य किंतु धूर्त होते
हैं तो हमें अपने प्रभुत्व के लिए एक भगवान गढ़ने और उसका भक्त होने की आवश्यकता
होती है। हम भगवान के नाम पर सत्ता के लिए संघर्ष करते हैं और राजा बनते हैं।
भगवानों की श्रेणी में माओजेदांग, कार्ल
मार्क्स, लेनिन
और स्टालिन के बाद इंदिरा, सोनिया, राहुल और मोदी भी आते हैं। जब हम किसी व्यक्ति
और उसकी बातों को धरती का अंतिम सत्य मानने लगते हैं तो वह व्यक्ति भगवान हो जाता
है और उसकी कही हर बात ईश्वरीय आदेश हो जाया करती है। राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक गुण्डागर्दी का इतना व्यापक
स्वरूप और कहीं देखने को नहीं मिलेगा।
भारतीय राजनीति के उत्कर्ष और अपकर्ष के
उभय तत्वों का मंत्रज्ञान भगवान बुद्ध ने एक बार अजातशत्रु के मंत्री वर्षकार को भी
दिया था।
“नृपराज्य-गणराज्य-नृपराज्य” –सत्ता व्यवस्था का यह एक स्वाभाविक चक्र है।
भारत में लगभग एक हजार साल तक गणतंत्रात्मक और राजतंत्रात्मक परम्पराओं को स्थापित
करने के लिए तत्कालीन सत्ताओं में संघर्ष होता रहा है। गणराज्य नृपराज्य में और
नृपराज्य गणराज्य में बदलते रहे हैं। महावीर स्वामी और गौतम बुद्ध के समय में
उत्तरपूर्वी भारत गणराज्यों का प्रधान क्षेत्र था जिनके मुख्य प्रतिनिधि लिच्छवि, विदेह, शाक्य, मल्ल, कोलिय, मोरिय, बुली और भग्ग आदि हुआ करते थे।
एक बार अजातशत्रु ने अपने मंत्री
वर्षकार को गौतम बुद्ध के पास भेजकर वज्जीसंघ को जीतने का उपाय पूछा। बुद्ध ने
आनंद को संबोधित करते हुये अप्रत्यक्ष रूप से मंत्री वर्षकार को उत्तर दिया – “हे आनंद!
- जब तक वज्जियों के अधिवेशन एक पर एक
और सदस्यों की प्रचुर उपस्थिति में संपन्न होते हैं;
- जब तक वे अधिवेशनों में एक मन से
बैठते हैं, एक मन
से उठते हैं और एक मन से संघकार्य सम्पन्न करते हैं;
- जब तक वे पूर्वप्रतिष्ठित व्यवस्था
के विरोध में नियमनिर्माण नहीं करते, पूर्वनियमित नियमों के विरोध में नवनियमों की
अभिसृष्टि नहीं करते और जब तक वे अतीत काल में प्रस्थापित वज्जियों की संस्थाओं और उनके सिद्धांतों के अनुसार कार्य करते हैं;
- जब तक वे वज्जि-अर्हतों और गुरुजनों
का सम्मान करते हैं, उनकी
मंत्रणा को भक्तिपूर्वक सुनते हैं;
- जब तक उनकी नारियाँ और कन्यायें
शक्ति और अपचार से व्यवस्थाविरुद्ध व्यसन का साधन नहीं बनायी जातीं;
- जब तक वे वज्जिचैत्यों के प्रति के
प्रति श्रद्धा और भक्ति रखते हैं, जब तक
वे अपने अर्हतों की रक्षा करते हैं, उस समय तक हे
आनंद! वज्जियों का उत्कर्ष निश्चित है, अपकर्ष सम्भव नहीं।“।
अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध के संदेश में
छिपे निहितार्थ को समझा और लिच्छविगणतंत्र की व्यवस्था में पारस्परिक फूट, संस्था सिद्धांतों के बहिष्कार, नैतिक व चारित्रिक पतन, आर्थिकभ्रष्टाचार, कदाचार, स्वेच्छाचारिता, गुरु और स्त्री का अपमान, वेश्यावृत्ति और लोकरक्षा के प्रति उदासीनता आदि
दुर्गुणों को संचारित करके लिच्छवि गणतंत्र की जड़ें काट डालीं और वैशाली गणतंत्र को
समाप्त कर मगध राजतंत्र स्थापित किया। बाद में लॉर्ड मैकाले ने भी यही मंत्र ब्रिटिश
सत्ता को देकर भारत की जड़ें काट डालीं और भारत को सदियों के लिए अपना वैचारिक और आर्थिक
दास बना लिया। ...और अब भारत का गणतंत्र एक बार फिर राजतंत्र को आमंत्रित कर रहा है।
भारत के सभी गण-सदस्यों में गौतम बुद्ध शाक्य के उसी सिद्धांत की नकारात्मक व्याख्या
और पालना की होड़ लगी हुयी है। ममता, लालूपुत्र, मुलायमपुत्र और सोनियापुत्र ही नहीं बल्कि अन्य कई लोग भी यदि सम्पूर्ण भारत
नहीं तो कम से कम एक-एक राज्य के स्वतंत्र शासक बनने के लिए ही सही, किसी भी स्तर तक गिरने के लिए तैयार हैं।