शुक्रवार, 26 अगस्त 2022

खदबदाहट

आज से लगभग 137 वर्ष पूर्व कुछ लोगों ने भारत में एक वृक्षारोपण किया था जिसपर कई पंछियों ने समय-समय पर अपना बसेरा बनाया। अब एक-एक कर कई पंछी दशकों पुराने पेड़ को छोड़कर कहीं और के लिए उड़ान भरने लगे हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों की बौछारें भी आने लगी हैं। कहा जा रहा है कि दशकों पुराना पेड़ अब लोकतांत्रिक नहीं रहा। पेड़ से लटकी डालों ने स्पष्टीकरण दिया है कि जो पंछी उड़ कर कहीं और जा रहे हैं वे आवश्यकता से अधिक महत्वाकांक्षी होते जा रहे थे और वृक्ष के मालिक (जवाहरलाल नेहरू) का स्थान स्वयं लेना चाहते थे। पंछियों ने इस स्पष्टीकरण को यह कहते हुये अस्वीकार कर दिया है कि यह उड़ान, महत्वाकांक्षा के लिए नहीं बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों की पुनर्स्थापना के लिए है। यानी खदबदाहट सत्ता की नहीं बल्कि वैचारिक है। और हाँ! 18 दिसम्बर 1885 को यह वृक्षारोपण किया था ब्रिटिश नागरिक ए. ओ. ह्यूम, दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा जैसे कुछ लोगों ने, किंतु बाद में गांधी जी ने नेहरू जी को इसका मालिक बना दिया। नेहरू अब नहीं रहे किंतु उस वृक्ष पर एकमात्र स्वामित्व आज भी उन्हीं का माना जाता है।

इतिहास के पृष्ठों में लिखा है कि स्वतंत्रता से पूर्व अप्रैल 1946 में ब्रिटिश इण्डिया की 15 कांग्रेस राज्य समितियों को अपना अध्यक्ष चुनना था जिसे वायसराय की एक्ज़ीक्यूटिव काउंसिल का वाइस प्रेसीडेंट बनाया जा सके, काउंसिल के वाइस प्रेसीडेंट को ही सत्ता हस्तांतरण के बाद स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री भी नामांकित किया जाना तय था। अंग्रेजों ने कांग्रेस के अतिरिक्त तत्कालीन अन्य किसी भी क्रांतिकारी दल को सत्ता हस्तांतरण के लिए उपयुक्त नहीं माना और कांग्रेस को ही भारत का भाग्यविधाता मनोनीत कर दिया।

इससे पहले 1940 में रामगढ़ अधिवेशन में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया था जो अप्रैल 1946 तक अपने पद पर बने रहे। भविष्य की राजनैतिक सम्भावनाओं को देखते हुये वे आगे भी अध्यक्ष बने रहना चाहते थे किंतु 20 अप्रैल 1946 को गांधी ने नेहरू के पक्ष में अपनी एकमात्र पसंद से सभी प्रतिद्वंदियों को सूचित किया जबकि कांग्रेस के अन्य लोग सरदार वल्लभ भाई पटेल को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते थे इसलिए 15 में से 12 राज्य समितियों में पटेल को ही कांग्रेस अध्यक्ष बनाये जाने की स्वाभाविक सहमति बनी। यह वह समय था जब प्रदेश कांग्रेस कमेटी ही अध्यक्ष को मनोनीत कर सकती थी या चुन सकती थी।  

ब्रिटिश सत्ता वाले 15 में से 12 राज्य समितियों ने पार्टी अध्यक्ष के लिए पटेल को नामित किया जबकि नेहरू को एक भी प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने नामित नहीं किया। गांधी की इच्छा को पूरा करते हुये कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य आचार्य कृपलानी द्वारा नेहरू का नाम एक कागज पर लिखकर प्रस्तावित किया गया जबकि इसके लिए उनके पास कोई अधिकार नहीं था। यह पूरी तरह घरमानी मनमानी थी जिसमें आम सहमति का कोई स्थान नहीं था। सुभाष चंद्र बोस को पहले ही किनारे लगाया जा चुका था। तत्कालीन भारतीय राजनीति में गांधी की इच्छा, असहयोग, हठ और आमरण अनशन की धमकी ही सर्वोपरि हुआ करती थी। दूसरी ओर अनधिकृत और अलोकतांत्रिक रूप से सरदार पटेल पर दबाव डाला जाने लगा कि वे नेहरू के पक्ष में अपना नाम वापस ले लें। नेहरू अतिमहत्वाकांक्षी थे, वे कांग्रेस में दूसरा स्थान लेने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थे, नेहरू की महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए गांधी का पूरा समर्थन ही नहीं बल्कि हठ भी सर्वोच्च था। मौलाना आज़ाद और राजेंद्र प्रसाद जैसे नेताओं को इसका सदा पश्चाताप बना रहा कि उन्होंने गांधी की इच्छा पूरी करने के लिए सत्य और निष्ठा का गला घोंटते हुये नेहरू का समर्थन किया।

यह खदबदाहट भारत के सभी राजनैतिक दलों में है, चाहे वह सत्ता में हो या विपक्ष में। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षायें सत्य और निष्ठा का गला घोटती रही हैं। विभिन्न पेड़ों से उड़कर यत्र-तत्र विचरण कर रहे सभी पंछियों को एक मंच पर एकत्र होकर अब देश और समाज के बारे में सोचना चाहिये। यूँ भी, स्वतंत्रता के समय अधिकांश देशी राज्य स्वतंत्र थे और कभी ब्रिटिश राज्य के अधीन नहीं रहे जबकि स्वतंत्रता के बाद उन सभी राज्यों का एन-केन-प्रकारेण भारत संघ या पाकिस्तान में विलय किया गया था।  

यदि सम्भव हो तो सड़े हुये लोकतंत्र, जो अब निरंकुशतंत्र में बदल चुका है, को हटाकर भारत में पुनः एक विशाल राजतंत्र स्थापित किया जाना चाहिए। याद कीजिये, ईसापूर्व 321 में चंद्रगुप्त ने नंद वंश के घनानंद को हराकर तत्कालीन गणतांत्रिक व्यवस्था समाप्त करते हुये मौर्य वंश की राजतंत्रात्मक व्यवस्था स्थापित की थी।

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