रविवार, 21 अगस्त 2022

समुद्र गुप्त और इस्लाम

        यू-ट्यूब पर “आलमी जंक्शन” ने बताया कि गुप्तवंश के सम्राट चंद्रगुप्त (कार्यकाल 319 ईसवी से 335 ईसवी) के पुत्र महाराजाधिराज समुद्रगुप्त (जन्म 318-अवसान 380 ईसवी, कार्यकाल 335-375 ईसवी) का मोहम्मद साहब से रिश्ता था। किस्सा यूँ बताया गया कि सम्राट चंद्रगुप्त का विवाह एक पारसी बादशाह ख़ुशरू परवेज़ की बेटी मेहरबानो से हुआ था। विवाह के बाद मेहरबानो का नाम बदलकर चंद्रलेखा रख दिया गया। इस विवाह से चंद्रगुप्त को जो बेटा हुआ उसका नाम समुद्रगुप्त रखा गया। बादशाह ख़ुशरू परवेज़ की एक और बेटी थी जिसका नाम था शहरबानो। मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन ने ईरान पर हमला करके बादशाह और उसकी बेटी को कैद करके मदीना भेज दिया और ईरान में इस्लाम की हुकूमत स्थापित की। बाद में इमाम हुसैन ने बादशाह की बेटी शहरबानो से शादी कर ली जिससे एक बेटा हुआ, नाम रखा गया “अली-अकबर-इब्न-ए-इमाम-हुसैन” (कहीं-कहीं इस नाम के स्थान पर अली-इब्न-हुसैन-ज़ैनल-आबिदीनभी लिखा हुआ मिलता है)। तो इस तरह समुद्रगुप्त और अली-अकबर-इब्न-ए-इमाम-हुसैन आपस में मौसेरे भाई हुये।

आलमी जंक्शन ने किस्से को आगे बढ़ाते हुये बताया कि जब कर्बला का युद्ध हुआ तो इमाम हुसैन ने समुद्रगुप्त को पत्र लिखकर सेना भेजने का संदेश दिया। समुद्रगुप्त ने राहिब दत्त नामक ब्राह्मण की अगुआई में एक सैन्य टुकड़ी ईराक की ओर भेज दी। समुद्रगुप्त की सैन्यटुकड़ी जब ईराक में कर्बला के मैदान तक पहुँची तब तक युद्ध समाप्त हो चुका था और इमाम हुसैन को मारा जा चुका था। ब्राह्मण सेनापति राहिब दत्त को मोहम्मद साहब के नवासे की हत्या से गहरा दुःख हुआ और उन्होंने उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद पर हमला करके बदला ले लिया। बाद में उस भारतीय सैन्य टुकड़ी के लोग वहीं बस गये और हुसैनी ब्राह्मण के नाम से प्रसिद्ध हो गये।

तो आलमी जंक्शन के अनुसार यह किस्सा है हुसैनी ब्राह्मणों का। बताया जाता है कि पञ्जाब और उसके आसपास पाये जाने वाले दत्त लोग अपने पूर्वज राहिब दत्त की स्मृति में स्वयं को हुसैनी ब्राह्मण मानने लगे हैं।

 

“आलमी जंक्शन” का यह किस्सा मज़ेदार लगता है किंतु इस किस्से पर भरोसा करने से पहले इसका ऐतिहासिक विश्लेषण आवश्यक है।

1-    किस्से के अनुसार कर्बला का युद्ध इस्लामिक उत्तराधिकार के लिए उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद प्रथम और हुसैन-इब्न-अली के बीच लड़ा गया। तारीख़ थी 10 अक्टूबर 680 ईसवी। जबकि गुप्तवंश के सम्राट चंद्रगुप्त (319-335) के पुत्र समुद्रगुप्त का कार्यकाल है - 335-375 ईसवी, अर्थात सम्राट समुद्रगुप्त की मृत्यु के तीन सौ पाँच साल बाद कर्बला का युद्ध लड़ा गया था जिसमें समुद्रगुप्त के सैन्यसहयोग का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। समुद्रगुप्त और हुसैन-इब्न-अली के किस्से को इतिहास की तारीख़ों ने गवाही देने से बिल्कुल मना कर दिया है तो भी इस किस्से के अगले हिस्से का विश्लेषण अभी शेष है।

2-    इतिहास के अनुसार ईसवी सन 680 में उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद प्रथम ने पैगम्बर मोहम्मद के नवासे हुसैन-इब्न-अली की कर्बला के मैदान में हत्या कर दी और अगले तीन साल तक यानी 683 में अपनी मृत्यु के अंतिम क्षण तक हुकूमत की। “आलमी जंक्शन” के अनुसार (कर्बलायुद्ध के तीन साल बाद 683 में) समुद्रगुप्त के ब्राह्मण सेनापति राहिब दत्त ने उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद को युद्ध में मारकर इमाम हुसैन की मौत का बदला लिया और वहीं बस गये। अद्भुत, भारतीय सेना ने विदेशी धरती पर तीन साल तक प्रवास करते हुये हुसैन का बदला लेने के लिए प्रतीक्षा की!   

3-    यदि यह मान भी लिया जाय कि समुद्रगुप्त की सेना के सेनापति राहिब दत्त ने उम्मैयद ख़लीफ़ यज़ीद को मारकर हुसैन की मौत का बदला लिया तो भी भारतीय सेना का यज़ीद से इमाम हुसैन का बदला लेने के लिए तीन साल तक ईराक में प्रवासी बनकर रहना किसी भी दृष्टि से व्यावहारिक प्रतीत नहीं होता।

4-    ऐतिहासिक अभिलेखों के अनुसार समुद्रगुप्त को लिच्छवि दौहित्र भी कहा जाता था जिसका अर्थ है “लिच्छवियों का नाती”। वास्तव में, चंद्रगुप्त का विवाह ईरानी बादशाह ख़ुशरू परवेज़ की बेटी मेहरबानो से नहीं बल्कि लिच्छवि राजकुमारी “कुमार देवी” के साथ हुआ था जिनके संयोग से लिच्छवि दौहित्र समुद्रगुप्त का जन्म हुआ था।

5-    पर्शिया के सासानियन बादशाह ख़ुशरू परवेज़ का शासनकाल ईसवी सन् 590 से 628 ईसवी तक रहा है। ईरान में ख़ुशरू नाम का एक और राजा हुआ है जिसका जन्म हुआ था 512 ईसवी में और मृत्यु हुयी थी 579 ईसवी में, उसने ईरान पर 531 से 579 तक राज्य किया था किंतु शहरबानो और मेहरबानो नाम की उसकी किसी शहज़ादी का नाम इतिहास में नहीं मिलता।

6-    इतिहास गवाही देता है कि हुसैन-इब्न-अली की पत्नियों में से एक शहरबानो सासानिद साम्राज्य के अंतिम राजा यज़्देज़र्द तृतीय की बेटी थी जिनसे अली-अकबर-इब्न-ए-इमाम-हुसैनया “अली-इब्न-हुसैन-ज़ैनल-आबिदीन” का जन्म हुआ था। पर्शिया के अंतिम सासानियन राजा यज़्देगर्द तृतीय का कार्यकाल ईसवी सन् 632 से 651 तक रहा है। किंतु इतिहास में मेहरबानो नाम की इनकी किसी बेटी का कोई उल्लेख नहीं मिलता। वास्तव में, हुसैन-इब्न-अली के बेटे अली-इब्न-हुसैन-ज़ैनल-आबिदीन का जन्म राजा यज़्देज़र्द-तृतीय की बेटी शहरबानो से हुआ था न कि राजा ख़ुशरू परवेज़ की किसी बेटी से। 

सावधान! जो लोग मानते हैं कि इतिहास अपने घर की खेती है, जैसा चाहो बो डालो और काट डालो, ऐसे लोगों के दूरदर्शी उद्देश्यों को यदि समय रहते नहीं पहचाना गया तो सभ्यता समाप्त होने में देर नहीं लगेगी, भले ही वह कितनी भी समृद्ध क्यों न हो।

कौन हैं हुसैनी ब्राह्मण

सनातनी हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच महाभारत काल का एक पुराना सम्बंध बताया जाता है। यूँ, यह एक गम्भीर शोध का विषय है कि महाभारत युद्ध में कौरव पक्ष की सेनाओं की पराजय के बाद पराजित राजाओं और उनकी सेनाओं का क्या हुआ? कुछ लोग बताते हैं कि कौरवों के वध के बाद कौरव पक्ष के बहुत से लोग गांधार जा कर बस गये और कुरु कहलाए। कालांतर में गांधार के सनातनियों, जिनमें सभी वर्णों के लोग थे, और कुरुओं ने पश्चिम की ओर प्रस्थान किया और ईराक आदि अरब देशों में यत्र-तत्र बस गये। अरबों की देखा-देखी इन्होंने भी अपने कई कबीले बना लिये और वहाँ के रहन-सहन को अपना लिया। पैगम्बर मोहम्मद का सम्बंध जिस कुरेश कबीले से बताया जाता है वह कुरुवंशियों का ही एक कबीला था यही कारण है कि कुरेश कबीले के लोग अपने पूर्वजों की तरह शिव को अपना आराध्य मानते रहे। बताया जाता है कि कुरेश या कुरेशी लोगों ने अरब में कई शिव मंदिरों की स्थापना की थी, पैगम्बर मोहम्मद के सगे चाचा कई शिवमंदिरों के पुजारी थे। अरब में यत्र-तत्र बसे सनातनियों ने स्थानीय लोगों से अपने सम्बंध स्थापित किये और वहीं की सभ्यता में रच बस गये, इन्हीं में से कुछ लोग स्वयं को हुसैनी ब्राह्मण मानते हैं। दत्त उपनाम वाले इन ब्राह्मणों को मोहियाल भी कहा जाता है जिसका अर्थ है भिक्षाटन करने वाले ब्राह्मण नहीं बल्कि भूस्वामी और योद्धा ब्राह्मण।

एक किस्सा यह भी है कि गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा महाभारत युद्ध में घायल हो गये थे और पराजय की पीड़ा एवं लज्जा के कारण गांधार की ओर पलायन कर गये। उनके वंशज भी कालांतर में अपनी मुख्यभूमि भारत से दूर अरब की ओर ही आगे बढ़ते रहे। इंद्रप्रस्थ और हस्तिनापुर एक तरह से इन सभी के लिए सदा के लिए त्याज्य हो चुके थे। अश्वत्थामा के वंशजों में इंद्रप्रस्थ और हस्तिनापुर के लिए घृणा एवं आक्रोश था यही कारण है कि महाभारत युद्ध के बाद अरब देशों की ओर गये सनातनियों में भारत के प्रति आक्रामक भाव बना रहा। ब्राह्मण होने के कारण अश्वत्थामा के अरबी वंशजों ने कालांतर में हुसैनी ब्राह्मण के रूप में अपनी पहचान बना ली।     

पता नहीं इन किस्सों में कितना इतिहास है, कितना अनुमान है और कितना गल्प! जो भी हो, यह भी एक मज़ेदार किस्सा है, जिसकी पड़ताल आवश्यक है।

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