शनिवार, 20 अगस्त 2022

सनातनसंस्कृति की मर्यादा

    एक गर्भवती महिला के साथ सामूहिक यौनदुष्कर्म करने वाले ग्यारह अपराधियों को पंद्रह वर्ष का दण्ड भुगतने के बाद बंदीजीवन के आचरण और सुधार के आधार पर रीमिशन पॉलिसी के अंतर्गत कारावास से मुक्त कर दिया गया।

आरोप यह भी है कि एक राष्ट्रवादी राजनीतिक दल और एक हिंदुत्ववादी संगठन के कार्यकर्ताओं द्वारा मुक्त हुये अपराधियों का फूलमाला और मिठाई से स्वागत किया गया, गोया पाकिस्तान की जेल से मुक्त हो कर आये शूरवीर भारतीय सैनिक हों। इस तरह का स्वागत कोढ़ में खाज पैदा करने वाला है। जघन्य अपराधियों का स्वागत यदि उनके घर के सदस्यों द्वारा भी किया जाता है तो ऐसा कृत्य हमारे नैतिक, वैचारिक, सांस्कृतिक और सामाजिक पतन का द्योतक है। निस्संदेह, बलात् यौनदुष्कर्म और वह भी सामूहिक दुष्कर्म जघन्य और अक्षम्य प्रकृति का अपराध है। आयु, धर्म और शत्रुता के आधार पर इसकी क्रूरता और अमानवीयता को हल्के में लिया जाना किसी भी सभ्यसमाज के लिए आत्मघाती है। प्रकृति ऐसे समाज को फलने-फूलने का कोई अधिकार नहीं देती। यदि यह अजमेर शरीफ़ में विश्व के सबसे बड़े और सबसे सुनियोजित यौनदुष्कर्म एवं गजवा-ए-हिन्द के प्रत्याक्रमण के रूप में है तो भी ऐसे निकृष्ट विचारों और कृत्यों का स्वागत नहीं किया जा सकता। युद्ध और प्रतिरोध की शालीन मर्यादा ही सनातन संस्कृति की विशेषता है, यहाँ इस प्रकरण में किसी भी किंतु-परंतु का कोई स्थान नहीं हो सकता। यदि हम भी यौनदुष्कर्म के अपराधियों का स्वागत और महिमामण्डन करना प्रारम्भ कर देंगे तो सनातन हिन्दूसभ्यता पर गर्व करने वाले लोगों और मोहम्मद-बिन कासिम में क्या अंतर रह जायेगा?   

सभ्य समाज के द्वारा ऐसे जघन्य अपराधियों का स्वागत किया जाना निंदनीय ही नहीं अपराधियों को प्रोत्साहित करने का आपराधिक कृत्य भी है। तथापि बिलकिस बानो के बहाने हिंदूविरोधी मानसिकता को एक बार फिर धार्मिक विवाद को हवा देने का अवसर मिल गया है और इसके साथ ही बिल्किस बानो दुष्कर्म के अपराधियों की रिहाई के औचित्य पर भी बहस प्रारम्भ हो चुकी है। यह बहस स्वागतेय है किंतु इसकी सीमा में निर्भया कांड के उस दुर्दांत अपराधी की रिहाई के औचित्य पर भी सोचा जाना चाहिए जिसे अवयस्कता के आधार पर न केवल मुक्त किया गया बल्कि उसे शासन की ओर से स्वावलम्बन और सुरक्षा भी उपलब्ध करवायी गयी।     

यौनदुष्कर्म के अपराधियों के लिए मृत्यु के अंतिम क्षण तक के कारावास के दण्ड से कुछ भी कम नहीं होना चाहिए। वास्तविकता यह है कि न्यायव्यवस्था और हमारा दंडविधान क्रूर अपराधियों को हतोत्साहित और भयभीत नहीं बल्कि निर्भय बनाने वाला है। क्या यह हमारी चिंता का विषय नहीं होना चाहिये!     

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