दक्षिणपंथ की तरह वामपंथ में भी परम्परायें होती हैं जिनका पालन किया जाता है । वामपंथ की तरह दक्षिणपंथ में भी क्रांति को एक आवश्यक घटना के रूप में स्वीकार किया जाता है। फिर अंतर क्या है इन दोनों में? यह अंतर है अपेक्षा और बाध्यता को लेकर। दक्षिणपंथ में कट्टरता का कोई स्थान नहीं होता जबकि वामपंथ कट्टरता को शांति और व्यवस्था के लिए आवश्यक मानता है। सोवियत रूस के विघटन के पीछे वामपंथ की इसी कट्टरता की भूमिका थी।
दक्षिणपंथ में देश-काल-वातावरण
के अनुसार व्यवस्थाओं और परम्पराओं के पालन की अपेक्षा की जाती है जबकि वामपंथ में
देश-काल-वातावरण की उपेक्षा कर पश्चिमी व्यवस्थाओं और परम्पराओं के पालन की बाध्यता
थोपी जाती है।
यह दुष्प्रचार है कि दक्षिणपंथ
में क्रांति का कोई स्थान नहीं होता। विश्व के प्रथम गणतांत्रिक देश में राजा के विरुद्ध
प्रजा को क्रांति का अधिकार था और उन्होंने यह किया भी। वज्जीसंघ के अट्टकुल राजाओं
के पतन के विरुद्ध हुयी क्रांति इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। इस क्रांति की प्रच्छन्न
नायिका थी आम्रपाली।
भारतीय राजनीति के इतिहास में
वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जिस तरह अमर्यादित भाषा और लांछनों के साथ अपमानजनक
विरोध का सामना करना पड़ता है वह अपूर्व है। इस राजनीतिक आक्रमण में विभिन्न
विचारधाराओं के लोग एकसाथ खड़े दिखाई देते हैं। यह सत्ता का संघर्ष है या फिर
विचारधाराओं का!
दो बातें हैं, सत्ता के लिए विचारधारा, और विचारधारा के लिए सत्ता। हम सब आये दिन सत्ता के लिए
विचारधाराओं को पल-पल बदलते देखते हैं । कभी भाजपा से सपा में तो कभी सपा से
कांग्रेस में ...। जब वैचारिक विश्लेषण एवं मूल्यांकन का अभाव होता है और सत्ता ही
प्रमुख होती है तो दल-बदल जैसी घटनायें होती हैं। यह राजनीतिक पतन का संकेत है ।
विचारधाराओं में परिवर्तन का आधार यदि विश्लेषण एवं मूल्यांकन हो तो यह स्वाभाविक
है और इसे होना चाहिए, इस आधार पर किया गया दलबदल
उपयुक्त हो सकता है या फिर स्वार्थपूर्ण भी।
राम और विक्रमादित्य का राज्यारोहण ‘विचाधारा के लिए सत्तारोहण’ का उदाहरण है। लालू-राबड़ी का राज्यारोहण ‘सत्ता के लिए विचारधारा’ गढ़ने का उदाहरण है। विश्व भर में होने वाले सारे राज्यारोहण इन्हीं दो सिद्धांतों के आसपास घूमते दिखायी देते हैं।
*जीवन का व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामुदायिक और सामाजिक स्वरूप*
...ये क्रमशः बड़े होती इकाइयों
के जटिल होते स्वरूप हैं जिनसे होते हुये किसी व्यक्ति को आगे बढ़ना होता है। इस यात्रा
में त्याग, सहिष्णुता और उदारता की अपेक्षा
होती है। हर छोटी इकाई को अपने से बड़ी इकाई के साथ सामंजस्य बनाते हुये आगे बढ़ना होता
है। सुखी और समृद्ध समाज एवं राष्ट्र के लिए यह सब आवश्यक है।
जब व्यक्ति समाज से जुड़ता है
तो वह विराट होता है, जब विराट होता है तो उसे दूसरों
के हितों के बारे में सोचने की आवश्यकता होती है, यही आवश्यकता हमें किसी संगठन, विधि और शासन की ओर ले जाती है। जब हम सोचना प्रारम्भ करते हैं
तो आवश्यक नहीं कि हम सब एक जैसा सोचें ...और बस यहीं से प्रारम्भ होता है टकराव
का दर्शन।
हमारी लोकयात्रा प्रारम्भ होती
है चिंतन-मंथन के बाद निष्पन्न हुए किसी दर्शन के साथ... फिर गढ़े जाते हैं कुछ
प्रतीक । लोग प्रतीकों की व्याख्या करते हैं ...अपनी-अपनी समझ और सीमाओं के
विस्तार के साथ, जिसके बाद होते हैं टकराव। यह
पूरी यात्रा फ़िल्म निर्माण की तरह होती है। लेखक, पटकथालेखक और फ़िल्म निर्देशक वे तीन प्रथम व्यक्ति होते हैं जो
अपनी फ़िल्म को भौतिक स्वरूप में बनने से पहले ही देख चुके होते हैं। ये लोग
फ़िल्मदृष्टा हैं ...मंत्रदृष्टा ऋषियों की तरह। मंत्रों पर विवाद होता है, फ़िल्म पर भी विवाद होता है, दोनों की व्याख्यायें अलग-अलग तरह से की जाती हैं। इस तरह के
विवादों का समाधान कैसे हो!
समाधान के लिए हमें समाज को
अन्य दृष्टियों से भी देखना होगा, एक समाज-राजनीतिक सोच विकसित
करनी होगी। प्राचीन भारतीय परम्परा में जिस तरह की सोच विकसित की गयी उसमें कोई
वाद नहीं था, उदारता और समावेषिता थी।
पश्चिमी देशों ने व्यक्तिवाद, समाजवाद, समुदायवाद, उदारवाद ..आदि कई सोचों के साथ
प्रयोग किए, संघर्ष हुए, क्रांतियाँ हुयीं और कभी न समाप्त होने वाली अशांति की ओर पूरी
दुनिया बढ़ चली। भारतीय भी अपनी वीणा एक ओर रख कर खूब बजने वाले ढोल को बजाने लगे और
आज विरोध एवं हिंसा की आग में देश को झोंक कर व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ति में लग गये हैं।
*समुदायवाद का
राजनीतिक-सामाजिक दर्शन*
समुदायवाद विभिन्न समुदायों को इकाइयों में बाँटकर उनके हितसंरक्षण की छद्मराजनीति का मार्ग निर्मित करता है जिसमें प्रतिभाओं की बलि दे दी जाती है और विकास के पथों को अवरुद्ध कर दिया जाता है। जिन्हें राज्यारोहण के लिए दुर्बल और लचर समाज चाहिए वे समुदायवाद के पोषक होते हैं। जो समाज को सशक्त और जागरूक देखना चाहते हैं वे समुदाय की तो बात करते हैं किंतु उनकी कार्यसूची में समुदायवाद का कोई स्थान नहीं होता। हमें समुदाय की विराटता और समुदायवाद की संकुचित उठा-पटक को समझना होगा।
*अतिबुद्धिवाद*
कोई नशा सेवन करके जो कुछ भी बका
जाता है उससे बड़ा ज्ञान और कुछ नहीं होता। ऐसे ज्ञान के लिए किसी तात्विक विमर्श या
प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती । हमारा देश अतिबुद्धिवाद से ग्रस्त है। विश्वविद्यालयों
में पढ़ाने वाले अतिविद्वान प्रोफ़ेसर्स हों या किसी विषय में डाक्टरेट किये हुये डॉक्टर
साहब, उनका ज्ञान अद्भुत होता है, तर्क अद्भुत होते हैं। जीवन के उद्देश्य विचित्र होते हैं, सब कुछ किसी परिग्रही जैसा लगता है। प्रस्तुत हैं कुछ उदाहरण –
भारत में हिन्दूधर्म की स्थापना
अठारहवीं शताब्दी में हुयी। आर्य भेंड़ चराते थे और मांसाहारी थे, ब्राह्मण भी मांसाहारी थे। एशिया माइनर और सोवियत रूस के मूलनिवासी
आर्यों को भारत आते ही संस्कृत का ज्ञान हो गया और उन्होंने वेद लिख डाले। कुछ लोगों
के अनुसार आर्यों ने भारत के मूलनिवसियों के वेद चुरा लिये। कुरआन और हिब्रू बाइबल
विश्व के प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथ हैं। वेद, महाभारत और रामायण में चरित्रहीन लोगों की कहानियाँ भरी पड़ी हैं।
ऐसा अद्भुत ज्ञान उच्च शिक्षित
अतिबुद्धिमानों द्वारा बघारा जाता है और हम सब उनके ज्ञान को स्वीकार करने के लिए बाध्य
हैं।
क्या हमें अपने बच्चों को विश्वविद्यालयीन
शिक्षा के लिए भेजना चाहिये या शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के लिए एक जुट होकर आंदोलन करना
चाहिये?
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