शनिवार, 15 नवंबर 2025

आतंकवाद- विवशता, प्रतिक्रिया या विश्वास

नाम - आफिया सिद्दीकी, *न्यूरोसर्जन*

जन्म - २ मार्च १९७२, कराची, सिंध, पाकिस्तान
शिक्षा - मैसाचुएट्स इंस्टीट्यूट्स आॅफ़ टेक्नोलाॅजी से बी.एस. ; ब्रांडीज यूनिवर्सिटी से न्यूरोसाइंस में पीएच.डी.
कार्य - समाज सेवा
प्रियकार्य- कट्टर इस्लामिक जिहाद
इस्लामिक दायित्व - इंस्टीट्यूट आॅफ़ इस्लामिक रिसर्च एंड टीचिंग की बोर्ड मेंबर।
सांप्रदायिक धारा - कट्टरसुन्नी
उपाधि- लेडी अल-क़ायदा
वर्तमान स्थिति - जिस अमेरिका से शिक्षा ग्रहण की उसी के विरुद्ध अफ़ग़ानिस्तान जाकर जिहाद किया। अमरीकी सेना के अधिकारियों की हत्या के प्रयास में गजनी में पकड़ी गयी और फ़ेडरल मेडिकल सेंटर, कार्सवेल, टेक्सास में ८६ वर्ष का कारावास भोग रही है।
सामाजिक प्रतिष्ठा- *पाकिस्तान से लेकर अमेरिका तक आफिया की मुक्ति के आंदोलन चल रहे हैं जिसमें खालिस्तान के पीले झंडे भी चमकते दिखाई देते हैं*।

आफिया का विश्वास है कि धरती पर मुसलमान के अतिरिक्त अन्य किसी को जीने का अधिकार नहीं है। वह पूरी दुनिया को सुन्नी बनाने में विश्वास रखती है। वह फिलिस्तीन की समर्थक है और उसे स्वतंत्रदेश के रूप में मान्यता दिलाने के लिये प्रयासरत है।
*जो लोग काफिरों को जीने का अधिकार नहीं देना चाहते वे अपने स्वयं के जीने के मानवीय अधिकारों के लिये आंदोलन कर रहे हैं।*
*इधर भारत में जो कहते थे कि अशिक्षा और निर्धनता लोगों को आतंकवादी बनाती है, वही विद्वान अब कहने लगे हैं कि मोदी सरकार मुसलमानों को आतंकवादी बनने के लिए विवश करती है*।
जनता को तय करना है कि कराची की न्यूरोसर्जन डाॅक्टर आफिया सिद्दीकी को अमेरिका में आतंकवादी किसने बनाया, मोदी ने या वहाँ के सत्ताधीशों ने?

*कुछ लोग मानते हैं कि सिद्दीकी उत्तर भारत के कायस्थ थे जो मुसलमान बन गये। हिंदू से मतांतरित होकर मुसलमान बने लोगों को अरब के लोग मुसलमान नहीं मानते, वे उन्हें कट्टर और आतंकवाद प्रेरित मानते हैं। पाकिस्तान बनाने के पीछे ऐसे ही लोगों का हाथ था जिनका इस्लाम से कोई लेना देना नहीं था।*

मंगलवार, 11 नवंबर 2025

आर्यों का इतिहास - गौरवपूर्ण या कलंकित

कोई देश जब पराधीन होता है तो वहाँ के निवासी सबसे पहले अपने स्वाभिमान, संस्कृति और इतिहास को विस्मृत करने के लिये बाध्य होते हैं । उस पराधीन देश का इतिहास, गौरव और आदर्शपुरुष विजेता देश के अधीन हो जाते हैं । युद्धों और पराधीनता का यही सत्य है ।  

इस्लामिक पराधीनताकाल में भारत के गुरुकुल और विश्वविद्यालय नष्ट किये गये किंतु ब्रिटिशकाल में गुरुकुलों को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया । विदेशी शक्तियों द्वारा हमें यह पढ़ने और सीखने के लिये बाध्य किया गया कि भारत के वर्तमान आर्य वास्तव में विदेशी प्रवासी थे जो ईसवी सन् से पंद्रह सौ वर्ष पूर्व मध्य एशिया से भारत आकर बस गये थे ।
आर्यों की पहचान में बताया जाता रहा कि वे कृषक थे, योद्धा थे, प्रवासीप्रवृत्ति के थे; मध्य एशियायी देशों यथा - ईरान, ऑस्ट्रिया और रूस के क्षेत्रों से अफ़गानिस्तान के मार्ग से भारत में प्रवेश कर सरस्वती नदी के किनारे बस गये । वे घोड़ों और रथों पर बैठ कर भारत आये; अपनी संस्कृति, सभ्यता, योरोप की संस्कृतभाषा, वेद और परम्परायें भी साथ लेकर आये । विदेशी आर्यों ने भारत के मूलनिवासियों से सम्बंध स्थापित किये और एक मिश्रित नृवंश की उत्पत्ति की जो वर्तमान भारत के निवासी हैं ।
विश्वासघाती विद्वानों और धूर्तों द्वारा रचित नव-इतिहास में आर्यों को विदेशी और आक्रमणकारी लिखा जाता रहा, पर अब तो काले अंग्रेजों द्वारा यह भी लिखा जाने लगा है कि वेदों की रचना द्रविणों और आदिवासियों ने की जिनपर विदेशी आर्यों ने अपना अधिकार कर लिया ।
विश्व के प्राचीनतम् लिखित अभिलेखों में मान्य वैदिक संहिताओं, वैदिकोत्तर ग्रंथों, स्मृतियों, पुराणों, उपनिषदों, श्रीमद्भाग्वद्, रामायण और साहित्यिक ग्रंथों आदि में समाये भारत के वास्तविक इतिहास को नष्ट करने के लिए कृत्रिम युगपुरुषों के षड्यंत्रों द्वारा स्थापित किये गये उपाय तो स्वाधीन भारत में भी अनवरत् हैं ही, देखना यह है कि बंदी इतिहास कब मुक्त हो पाता है ! तब तक तो “धूर्तता ही कलियुग की विद्वता है” का डंका बजता रहेगा ।

*सनातनियों के नरकंकाल*

  जिस देश में शवदाह संस्कार की परम्परा रही हो वहाँ खनन में सैकड़ों की संख्या में प्राप्त होने वाले सहस्रों वर्ष प्राचीन नरकंकाल किन लोगों के हैं ? ऐसे नरकंकालों के आनुवंशिक अध्ययन से मिलने वाले तथ्य क्या प्रमाणित कर सकते हैं, क्या यह कि आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे, प्रत्युत् वे मध्य-एशिया या रूस से आकर भारत में बस गये थे ?
  भारत पर चीन और फारस जैसे सीमावर्ती देशों द्वारा आक्रमण होते रहे हैं, सुदूर यूनान द्वारा भी आक्रमण किये गये । भारत के साथ एशिया, अफ़्रीका और यूरोप के सुदूर देशों से व्यापारिक सम्बंध भी रहे हैं, स्पष्ट है कि उनमें परस्पर आवागमन भी होता रहा है । इन सभी विदेशियों में शवदाह की परम्परा न तब थी और न अब है, उनके शवों का भूमिगत संस्कार ही किया जाता रहा है । भारत की भूमि पर आकर परलोक सिधारने वाले विदेशी सैनिकों और व्यापारियों में से कितने लोगों के शव उनके देश वापस ले जाये गये, और कितने शव यहीं समाधिस्थ किये गये, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकना असम्भव नहीं है । क्या इन समाधियों ने निकले नरकंकालों से भारत के मूलनिवासियों के नृवंशीय आनुवंशिक इतिहास का पता लगाया जा सकना सम्भव है ? 
सूक्ष्मदर्शी और इलेक्ट्रॉन-सूक्ष्मदर्शी के आविष्कार के पश्चात् आनुवंशिकी अध्ययन में भी एक क्रांति आयी । विज्ञान की स्थूल से सूक्ष्म की ओर ज्ञान-यात्रा प्रारम्भ हुयी । आयुर्वेदोक्त गुणसूत्रीय ज्ञान को पुनर्व्यवस्थित किया गया, Mitochondrial DNA lineages (Genes located in the 37-gene)  को पाकर वैज्ञानिक उत्साहित हुये और उन्होंने नृवंश के विकास एवं विस्तार पर पुनः कार्य करना प्रारम्भ किया । उन्हें ज्ञात हुआ कि mt-DNA की अनुवंशिकता पूरी तरह माँ पर निर्भर करती है, पिता पर नहीं । अर्थात् माइटोकॉन्ड्रियल डी.एन.ए. से माँ के पूर्वजों का तो पता लगाया जा सकता है, पर पिता के पूर्वजों का नहीं, फिर चाहे वे भारतीय हों या विदेशी ।
टीवी वार्ताओं में छाये रहने वाले भारतीय राजनेताओं, प्रवक्ताओं, साहित्यकारों और इतिहासकारों को किसी वैज्ञानिक तथ्य या तार्किक चिंतन की आवश्यकता नहीं होती, वे जो भी चीख-चीख कर कहते हैं वही परम सत्य होता है । लोकतंत्र में झूठ के महिमामंडन की स्वतंत्रता और सत्य को बंदी बनाकर रखने की व्यवस्था होती है इसलिये वार्ताओं में झूठों और दुष्टों का बोलबाला रहता है, वे यह मान कर चलते हैं कि द्रविण, आदिवासी, बौद्ध और मुसलमान ही भारत के मूलनागरिक हैं, शेष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बाहर से आकर बसे आर्यों की संतानें हैं इसलिये उन्हें तो भारत से भगा देना चाहिये पर बांग्लादेशी और रोहिंग्या मुसलमानों को भारतीय नागरिकता दी जानी चाहिये ।

रविवार, 9 नवंबर 2025

धवल नहीं, नित-नवल के पाश में बेचारा अमेरिका

 मार्गशीर्ष कृष्ण चतुर्थी, विक्रम संवत् २०८२

सम्प्रदायप्रेमी मदनानी जीत गया, अमेरिकाप्रेमी ट्रम्प हारकर गहन विषाद में चला गया । न्यूयार्क के मुसलमान अल्ला-हू-अकबर के नारे लगा रहे हैं, वे आश्वस्त हैं कि अब न्यूयार्क में उन्हें कोई अपनी मनमानी करने से नहीं रोक सकेगा, क्योंकि अब उनका अपना शासन प्रारम्भ हो गया है । कुछ लोगों ने अमेरिका के झण्डे नोच कर फेक दिये, उनके साथियों ने इस्लामिक झण्डे लगा दिये । मदनानी ने मुसलमानों को यह भी आश्वस्त किया है कि यदि नेतन्याहू कभी न्यूयार्क आये तो वे उन्हें बंदी बना लेंगे । कट्टरपंथी मदनानी की जीत से उत्साहित अमेरिका के एक मौलवी ने तो यह भी माँग कर डाली कि अब न्यूयार्क में काफ़िरों पर जिजिया लगा देना चाहिये । यह पूरी तरह न्यायसंगत है और कुर-आन के दिशा निर्देशों के अनुसार भी । जो काफ़िर हमें जिजिया देंगे हम उनके जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा का उन्हें वचन देंगे, और उनके दिये जिजिया से अपने इस्लाम को और भी सुदृढ़ करेंगे ।

मुस्लिम राष्ट्रों के लोगों को मदनानी के रूप में एक ख़लीफ़ा मिल गया है, पर क्या अरब के मुसलमान भी यही सोचते हैं ? कदाचित् नहीं, वे तो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, ईरान, अमेरिका, यूरोप और अफ़्रीका के मुसलमानों को मुसलमान ही नहीं मानते ।   

ट्रम्प ने भारतीयों का अपमान किया, वीजा को लेकर भारतीय युवकों को बेड़ियों में जकड़कर सामग्री की तरह वापस भेजा; भारतीय उद्योगों को अपने नियंत्रण में लेने के लिये टैरिफ़ और अर्थदण्ड लगाया; भारत के प्रधानमंत्री का बारम्बार अपमान ही नहीं किया प्रत्युत उन्हें सत्ता से हटाने और यहाँ तक कि उनकी हत्या तक के प्रयास किये । ट्रम्प पूरे विश्व के लिये खलनायक बन गया । न्यूयार्क के भारतीयों ने ट्रम्प से प्रतिकार लेने के लिये मदनानी को चुना; इसलिये नहीं कि उन्हें मदनानी से कोई प्रेम है, प्रत्युत इसलिए कि उन्हें ट्रम्प से बैर है, …ठीक भारत में आपातकाल के पश्चात् हुये आमचुनावों की तरह । जनतादल से जो भी प्रत्याशी खड़ा हो गया, जनता ने उसे ही वोट दिया । जनता का उद्देश्य जनतादल को जिताने से अधिक कांग्रेस को हराना था । यह भीड़ की सहज प्रतिक्रिया का परिणाम था । जनतादल को सत्ता मिली पर अगले चुनाव में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आयी जिसके दुष्परिणाम भारत की जनता को अद्यतन भोगने पड़ रहे हैं ।  

आक्रोश में लिया जाने वाला प्रतिकार प्रतिक्रियात्मक होने से प्रायः कल्याणकारी नहीं होता । भीड़ की प्रतिक्रिया में गुण-दोष विवेचना, दूरदर्शिता और लोककल्याण के उद्देश्यों का अभाव होता है । न्यूयार्क के भारतीयों और यहूदियों की तरह ही सन् सात सौ बारह में भी सिंध के बौद्धों ने अपने राजा दाहिर को सत्ता से हटाने के लिये दाहिर के शत्रु मोहम्मद-इब्न-कासिम का सिंध में स्वागत किया जिसके दुष्परिणाम अखण्ड भारत के लोग आज तक भोग रहे हैं । 

ममदानी की माँ मीरा नायर वामपंथी विचारों से प्रेरित रही हैं जिन्हें मुम्बई के मुसलमानों का दुःख तो दिखायी दिया पर धारावी में रहने वाले दक्षिण भारतीय हिंदुओं का दुःख द्रवित नहीं कर सका । उन्होंने सलाम बॉम्बे, कामसूत्र और मिसीसिपी जैसी चर्चित और धनवर्षा करने वाली फ़िल्में बनायीं । वे फ़िलिस्तीन की समर्थक रही हैं, यहूदियों की नहीं, गोया कोई भारतीय पाकिस्तान का तो समर्थक हो पर भारत का नहीं । यह अपने पूर्वजों के तिरस्कार और विदेशी आक्रमणकारियों के स्वागत की कहानी है जो लगभग एक समान रूप से इज़्रेल और भारत में चित्रित होती रही है । सनातनी वंश में जन्म लेने वाली मीरा नायर कभी भारतीय नहीं हो सकीं, उनका पुत्र भी भारतीय हितों का घोर विरोधी है, यही कारण है कि ममदानी की विजय पर पूरे पाकिस्तान में हर्ष की उद्दाम लहरें हिलोरें मारने लगी हैं । 

वामपंथ ‘स्थापित परम्पराओं’ से विद्रोह कर ‘नयी परम्पराओं’ की स्थापना में विश्वास रखता है । कुछ धवल हो या न हो पर वह नित नवल अवश्य होना चाहिये, फिर वह रक्तक्रांति हो या छद्माक्रमण, पक्षपातपूर्ण आचरण हो या एकांगी दृष्टि, लिव-इन-रिलेशन हो या पतियों का आदान-प्रदान ।

पुनः न्यूयार्क वापस चलते हैं जहाँ कट्टरपंथी उत्साहित हैं और उदारपंथी भयभीत । समर्थन और विरोध की प्रतिक्रियायें सामने आ रही हैं, ट्रम्प अपनी सारी चालों के बाद अब हतप्रभ है और अदूरदर्शी न्यूयार्कियन भारतवंशी एवं यहूदी न्यूयार्क को मोहम्मद-इब्न-कासिम का विजित सिंध बनाकर मौन हो गये हैं; उन्हें पूर्ण विश्वास है कि वृक्ष कोई भी लगाया जाय, उसमें खिलेंगे तो पारिजात के ही पुष्प । वैचारिक पक्षाघात से ग्रस्त न्यूयार्क के भारतीयों और यहूदियों को अभी बहुत कुछ देखना और भोगना शेष है । जो अपने इतिहास की उपेक्षा करते हैं, समय उनकी उपेक्षा करता है । न्यूयार्क में जो हुआ, जो हो रहा है, जो होगा ...वह सब इतिहास के पृष्ठों में पहले भी लिखा जा चुका है, इस बार तो केवल पुनरावृत्ति ही होगी, कोई नवीनता नहीं ।

बुधवार, 5 नवंबर 2025

अल-तकिया

 अरबी शब्द अलतकिया (प्रच्छन्नता) का दुरुपयोग – 

अरब के लोग प्रच्छन्नता (अल-तकिया) को प्रतिकूल परिस्थितियों में व्यक्तिगत सुरक्षा के लिये प्रशस्त उपाय मानते रहे हैं । यह एक सुरक्षात्मक उपाय है जिसे केवल प्रतिकूल परिस्थितियों में ही किसी अन्याय या अत्याचार से बचने के लिये उपयोग में लाया जाता था, किंतु भारतीय उपमहाद्वीप में यह उसी रूप में नहीं है ।
विषम स्थितियों में योजनापूर्वक संस्कारित(Medically modified)विष का उपयोग चिकित्सा जगत में किया जाता रहा है, यह सामान्य चिकित्सा के लिये नहीं है । सामान्य स्थितियों में इसका प्रयोग किया जाना कभी भी शुभ नहीं हो सकता । प्रारम्भ में यही सिद्धांत अल-तकिया(प्रच्छन्नता) के लिये भी व्यवहृत किया जाता रहा है जिसे अब धर्मसम्मत अनिवार्यता बना दिया गया । आज पूरे विश्व में अल-तकिया का दुरुपयोग अन्य सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के उन्मूलन के लिये किया जाने लगा है ।  

भारत में निवास करने वाले जो विद्वेषीहिंदू और विदेशी घुसपैठिये भारतीय संस्कृति और सभ्यता को निकृष्ट मानकर उसके उन्मूलन में लगे हुये हैं उनके लिये ऋग्वेद का यह मंत्र नेत्रोन्मीलक हो सकता है – 
“कृधी न ऊर्ध्वान् चरथाय जीवसे” – ऋग्वेद, १-३६-१४
हमें उन्नति और सुखद् जीवन के लिए उत्कृष्ट बनाइए, Make us noble for progress and happy life. …उत्कृष्ट बनाइये, उत्पीड़क और नरसंहारक नहीं, और इस कामना के लिये प्राकृतिक शक्तियों से प्रार्थना की गयी है । क्या यह वैदिक संस्कृति की उत्कृष्टता का प्रमाण नहीं!

इतिहास में मैं

 “मैं छह हजार साल पुराना पश्तून हूँ, एक हजार साल पुराना मुसलमान और सत्ताइस साल पुराना पाकिस्तानी हूँ“ – अब्दुल गनी खान ।


“मैं मानव सभ्यता के प्रारम्भ से ही सनातनी हूँ, वैदिक युग से हिन्दू हूँ; मैं लाखों वर्षों से अजनाभीय, आर्यावर्ती, भारतीय, जम्बूद्वीपीय और हिंदुस्थानी भी हूँ; मैं विश्वबंधु हूँ, प्रकृतिप्रेमी हूँ और सभी प्राकृतिक शक्तियों का उपासक हूँ इसीलिये मेरा संवाद असुरों से भी है और राक्षसों से भी, दैत्यों से भी है और देवों से भी, सोवियत रूस से भी है और अमेरिका से भी; मैं महाभारत के युद्ध में दोनों पक्षों के योद्धाओं के लिये बिना किसी पूर्वाग्रह और भेदभाव के भोजन की व्यवस्था करने वाला उडुपीनरेश पेरुंजोत्रुथियन भी हूँ; मैं आपातकाल में अपने शत्रुदेशों को भोजन और औषधि प्रदाता दानी भी हूँ; मैं चीनियों के लिये तियानझूवासी हूँ और हेरोडोट्स के लिये मात्र दो-सहस्र-दो-सौ-पच्चीस वर्ष पुराना इंडियन हूँ:....और यह भी स्मरण दिला दूँ कि मैं तुम्हारा जीजा धृतराष्ट्र भी हूँ”– मोतीहारी वाले मिसिर जी ।

रविवार, 2 नवंबर 2025

हमने तो देखा है

जो बनाते रहते हैं मुँह
दूसरों के बनावटीपन से
उन्हीं श्वेतकेशियों को
हमने तो बाल रँगते देखा है  
कौवों को
हंस के वेश में देखा है    
जो थकते नहीं बातें करते
दूरियाँ मिटाने की
उन्हीं लोगों को
दूरियाँ बढ़ाते देखा है ।
ट्रम्प को चाहिये पुरस्कार
शांति की स्थापना का
पर हमने तो
उन्हें दुनिया भर के देशों को
धमकियाँ देते देखा है
कौन नहीं जानता
कि दुनिया भर को अहर्निश
अशांत करने वाला भूरेलाल 
वाशिंगटन डीसी में बैठा है ।
हमने तो रावण को साधु के वेश में
स्त्री का अपहरण करते देखा है
धूर्त लेखकों को
भारत का इतिहास रँगते देखा है
घृणा के पात्र हैं जो
उन्हें प्रशंसा पाते देखा है । 
हमने तो
निर्लिप्त रहने का
सुना है जिन्हें उपदेश देते
उन्हें भी
भोग में सर्वाङ्ग लिप्त देखा है ।
वंचना के विरोधियों को
उन्हीं के वंचक चरित्र के साथ झेला है ।
हमारी निर्धनता दूर करने की
शपथ लेने वालों को
हमारा ही धन लूटते देखा है ।
जो करते हैं
संविधान की रक्षा का प्रचार
उन्हें ही
संविधान की हत्या करते देखा है ।
और ...
जिन्होंने बंदी बना कर रखा है
घर की स्त्रियों को
ओढ़ाकर आपादमस्तक वस्त्र
उन्हीं के उपदेशक, मार्गदर्शक और पूज्य के
वंशजों की स्त्रियों को 
सचल बंदीगृह से मुक्त होते देखा है । 
दुनिया ऐसी ही है
इतनी ही चित्र और विचित्र
इतने ही रंगों से रँगी
और इतनी ही बि-रंगी भी ।

भीड़ और पहचान

“पूर्वी चम्पारण से आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुस्लिमीन के प्रत्याशी राणा रणजीत सिंह विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं । सिर पर गोल टोपी, माथे पर तिलक और हाथ में कलावा बाँधकर जय श्रीराम, जय बजरंगबली और आई लव मोहम्मद का नारा लगाने वाले राणा जातिवाद को कैंसर मानते हैं, जिसे वे समाप्त करना चाहते हैं । मोहनदास और भीमराव को अपना आदर्श मानने वाले राणा जी सामाजिक दूरियाँ मिटाना चाहते हैं” ।

परी कथायें बच्चों को आकर्षित करती हैं, बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तब उन्हें परीकथाओं की कथा समझ में आ जाती है । धार्मिक सौहार्द्य, भाईचारा, आत्मशासित समाज, सीमाविहीन देश, शोषणमुक्त समाज, श्रम और पूँजी में सामंजस्य …जैसे आदर्शों को लेकर विश्व भर में चर्चायें होती रही हैं जिनका हमारे सामने एक यूटोपियन इतिहास है । यूरोप और एशिया के साम्यवादी देशों में भी इस तरह की चर्चायें हुयीं पर धरातल पर कुछ विशेष दिखायी नहीं दिया । कहीं-कहीं “नो रिलीजन” अस्तित्व में है, पर हम उसे भी ‘भीड़’ नहीं मान सकते । रिलीजन को लेकर मोहनदास के विचारों और परस्पर विरोधाभासी चरित्र को हम देख चुके हैं । तमिलनाडु, केरल और प.बंगाल आदि राज्यों के साम्यवादियों के चरित्र को भी हम देख चुके हैं, देख रहे हैं ..।
जाति को कैंसर मानने वालों की कमी नहीं है, लोग जातिव्यवस्था पर वैचारिक प्रहार करते रहे हैं । दूसरी ओर चुनाव में जातीय समीकरण के महत्व को कोई भी नेता अस्वीकार नहीं कर पाता । जनता भी आरक्षण के लोभ में अपनी विशिष्ट जातीय पहचानों को खोना नहीं चाहती । कई बार तो वे आरक्षित जाति में स्वयं को सम्मिलित करने के लिये आंदोलन भी करते रहे हैं । मेरी स्मृति में आज तक एक भी आंदोलन ऐसा नहीं हुआ जिसमें अगड़ी जाति में स्वयं को सम्मिलित किये जाने की माँग रखी गयी हो । वह बात अलग है कि कोई सतनामी अपने नाम के साथ पांडेय, उपाध्याय, तोमर, भदौरिया और बघेल उपनाम धारण करके भी अनुसूचितजाति के प्रमाणपत्र का मोह छोड़ नहीं पाता । सरकारें भी अनुसूचित-जनजाति और अनुसूचित-जातियों में परिवर्तन करती रहती हैं । जातियाँ बनाती हैं सत्तायें और गालियाँ दी जाती हैं ब्राह्मणों को (यह भी बरजोरी (Obsessive compulsive political behavior) का एक सामाजिक उदाहरण है)।
असदुद्दीन के दल में राणा रणजीत सिंह के अतिरिक्त पंडित मनमोहन झा, रविशंकर जायसवाल, विकास श्रीवास्तव, विनोद कुमार जाटव, ललिता जाटव और गीता रानी जाटव जैसे और भी कई नेता हैं । ये सभी लोग सामाजिक और धार्मिक समरसता के लिये जातिवाद और कुरीतियों को समाप्त कर, एक सेक्युलर देश की स्थापना करना चाहते हैं, …क्या लेनिन और स्टालिन की तरह, या ममता बनर्जी और लालू की तरह, या मुलायम सिंह और रौल विंची की तरह, या शेख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती की तरह, या ...!
विश्लेषण करके देखिये, क्या ये सभी बाहुबली राजनेता पहचान मिटाकर पहचान बनाने में विश्वास नहीं रखते, वंश मिटाकर वंश स्थापित करने के लिये संघर्षरत नहीं होते, भीड़ मिटाकर भीड़ नहीं बनाना चाहते... विरोधाभास दूर कर विरोधाभास को स्थायी नहीं करना चाहते ! ...यही है कूट चालों से किया जाने वाला सत्तासंघर्ष, हम इसे लोकहितकारी राजनीति स्वीकार नहीं कर सकते ।
व्यक्तियों और समुदायों की विशिष्ट पहचानों को समाप्त कर सबको भीड़ बनाने वाले स्वयं कभी भीड़ नहीं बनते, वे किसी न किसी रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर रखते हैं । यह सामाजिक महत्वाकांक्षा का सत्य है, कोई भीड़ नहीं बनना चाहता, हर कोई अपनी विशिष्ट पहचान के साथ स्थापित होना चाहता है । क्या भेदभाव मिटाने के लिये किसी नेता को विश्रामगृह के स्थान पर एक दिन के लिये भी जेल में ठहराया जाता है ? क्या आपने कभी धान, गेहूँ और जौ को एक साथ एक ही खेत में बोया है? राई, सरसों और लाही को एक साथ एक ही खेत में बोया है? क्या कोई किसान आलू, प्याज, लहसुन, टमाटर, गेहूँ, सूरजमुखी आदि सारी उपज एक साथ एक ही स्थान पर मिश्रित कर रखता है ? ..इसे भी छोड़िये, क्या आप अपने फ़्रिज में आलू-प्याज एक ही पॉलीथिन में एक साथ रखते हैं? …यह भी छोड़िये, क्या आप भोजन पकाते समय दाल, तरकारी, कढ़ी, खीर, करेला, चावल, बेसन, आटा आदि की भीड़ एक ही पात्र में मिलाकर एक साथ पकाते हैं ?
पहचान मिटाने वाली सत्ताओं ने समाज को कई पहचानें दी हैं – अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अगड़ा. पिछड़ा, दलित, आरक्षण, अनारक्षण, मनुवाद, साम्यवाद, अम्बेडकरवाद, …। नयी-नयी पहचानें बनाना इनकी आवश्यकता है, पहचान मिटाने की बातें करना इनका आदर्श है । सत्ताधीशों की यही वास्तविक पहचान है ।
जाति को कैंसर मानने वाले राणा जी जैसे विचारकों की कमी नहीं है, राजनेता और साहित्यकार जातिव्यवस्था पर वैचारिक प्रहार करते रहे हैं । दूसरी ओर चुनाव में जातीय समीकरण के महत्व को कोई भी नेता अस्वीकार नहीं कर पाता । जनता भी आरक्षण के लोभ में अपनी विशिष्ट जातीय पहचानों को खोना नहीं चाहती । कई बार तो वे आरक्षित जाति में स्वयं को सम्मिलित करने के लिये आंदोलन भी करते रहे हैं । मेरी स्मृति में आज तक एक भी जनआंदोलन ऐसा नहीं हुआ जिसमें अपने से अगड़ी जाति में स्वयं को सम्मिलित किये जाने की माँग की गयी हो । वह बात अलग है कि कोई सतनामी अपने नाम के साथ पांडेय, उपाध्याय, तोमर, भदौरिया और बघेल जैसे उपनामों से आकर्षित होकर इन उपनामों को धारण करके भी अनुसूचितजाति के प्रमाणपत्र एवं उसके आधार पर मिलने वाली भौतिक सुविधाओं का मोह छोड़ नहीं पाता । सरकारें भी अनुसूचित-जनजाति और अनुसूचित-जातियों में परिवर्तन करती रहती हैं । जातियाँ बनाती हैं सत्तायें और गालियाँ दी जाती हैं ब्राह्मणों को (यह भी बरजोरी (Obsessive compulsive political behavior) का एक सामाजिक उदाहरण है)।
असदुद्दीन के दल में राणा रणजीत सिंह के अतिरिक्त पंडित मनमोहन झा, रविशंकर जायसवाल, विकास श्रीवास्तव, विनोद कुमार जाटव, ललिता जाटव और गीता रानी जाटव जैसे और भी कई नेता हैं । ये सभी लोग सामाजिक और धार्मिक समरसता के लिये जातिवाद और कुरीतियों को समाप्त कर, एक सेक्युलर देश की स्थापना करना चाहते हैं, …क्या लेनिन और स्टालिन की तरह, या ममता बनर्जी और लालू की तरह, या मुलायम सिंह और रौल विंची की तरह, या शेख अब्दुल्ला और अरविंद केजरीवाल की तरह, या अरुंधती राय और रोमिला थापर की तरह, या ...!
विश्लेषण करके देखिये, क्या ये सभी बाहुबली राजनेता, साहित्यकार और इतिहासलेखक पहचान मिटाकर पहचान बनाने में विश्वास नहीं रखते, वंश मिटाकर वंश स्थापित करने के लिये संघर्षरत नहीं होते, भीड़ मिटाकर भीड़ नहीं बनाना चाहते... विरोधाभास दूर कर विरोधाभास को स्थायी नहीं करना चाहते ! ...यही है कूट चालों से किया जाने वाला सत्तासंघर्ष, कोई भी विवेकशील व्यक्ति इसे लोकहितकारी राजनीति स्वीकार नहीं कर सकता ।
व्यक्तियों और समुदायों की विशिष्ट पहचानों को समाप्त कर सबको भीड़ बनाने वाले स्वयं कभी भीड़ नहीं बनते, वे किसी न किसी रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर रखते हैं । यह सामाजिक महत्वाकांक्षा का सत्य है, कोई भीड़ नहीं बनना चाहता, हर कोई अपनी विशिष्ट पहचान के साथ स्थापित होना चाहता है । क्या भेदभाव मिटाने के लिये किसी नेता को विश्रामगृह के स्थान पर एक दिन के लिये भी जेल में ठहराया जाता है ? क्या अभियांत्रिकी, चिकित्सा, साहित्य और संगीत के विद्यार्थियों को एक ही व्याख्यान से शिक्षित किया है? …क्या आपने कभी धान, गेहूँ और जौ को या राई, सरसों और लाही को एक साथ एक ही खेत में बोया है? क्या कोई किसान आलू, प्याज, लहसुन, टमाटर, गेहूँ, सूरजमुखी आदि की सारी उपज एक साथ एक ही स्थान पर मिश्रित कर रखता है ? ..इसे भी छोड़िये, क्या आप अपने फ़्रिज में आलू-प्याज एक ही पॉलीथिन में एक साथ रखते हैं? …यह भी छोड़िये, क्या आप भोजन पकाते समय दाल, तरकारी, कढ़ी, खीर, करेला, चावल, बेसन, आटा आदि की भीड़ एक ही पात्र में मिलाकर एक साथ पकाते हैं?
पहचान मिटाने वाली सत्ताओं ने समाज को कई पहचानें दी हैं – अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक, अगड़ा, पिछड़ा, दलित, आरक्षण, अनारक्षण, मनुवाद, साम्यवाद, अम्बेडकरवाद, …। नयी-नयी पहचानें बनाना इनकी आवश्यकता है, पहचान मिटाने की बातें करना इनका आदर्श है । सत्ताधीशों की यही वास्तविक पहचान है ।
हमारे शरीर ने प्लास्टिक के नैनो पार्टिकल्स की विशिष्ट पहचान को स्वीकार करने से मना कर दिया, अपने-पराये का भेद मिटाकर उन अनुपयोगी विदेशी घुसपैठियों को शरीर की कोशिकाओं के समान स्वीकार कर लिया, परिणामतः हमारा शरीर उन नैनोपार्टिकल्स के कूड़े का ढेर बनता जा रहा है । तैयार रहिये ...एक अकल्पनीय व्याधि विस्फोट के लिये ।
हमारे शरीर ने कोशिकीय विभाजन पर अपना विशिष्ट नियंत्रण समाप्त कर उन्हें पूर्ण स्वैच्छिक कर दिया, छीन के दे दी आज़ादी, पेरियार वाली आज़ादी, लेनिन वाली आज़ादी …जानते हैं फिर क्या हुआ ! कैंसर हो गया, वह भी मैलिग्नेंट वाला कैंसर । अब जाइये, करवाइये सर्जरी, कीमोथेरेपी, रेडियोथेरेपी ...फिर अंत में एक दिन ...अब और कोई उपाय शेष नहीं,...मेटास्टेसिस तो पहले ही हो चुकी है, घर ले जाइये, जितने दिन साँसें चलें उतने दिन सेवा करके पुण्य लूट लीजिये ।
ये खोखले आदर्श और यूटोपियन बातें करने वाले स्वयंभू राजनीतिक-बरजोर वैज्ञानिक-तथ्यों को भी धता बता देने की निर्लज्जता अपने अंदर कैसे उत्पन्न कर लेते हैं! “पुरुषोऽयं लोकसंमितः”, अर्थात् “लोकोऽयं ब्रह्माण्ड संमितः” और “ब्रह्माण्डोऽयं विज्ञानसंमितः”, …किंतु आप राजनीतिक सिद्धांतों को इस सार्वकालिक और सार्वदेशज सत्य से छिपाकर रखना चाहते हैं ! जो सृष्टि अपने द्वैत स्वरूप में है उसे समय से पहले ही अद्वैत स्वरूप में देखना चाहते हैं? अद्भुत् बरजोरी है!    

इस विषय पर मोतीहारी वाले मिसिर जी बड़ी दृढ़ता से बताते हैं – “सामाजिक स्तर पर सामान्य और विशिष्ट की अपनी सीमायें हैं जिनमें बहुत कठोरता नहीं है पर इतनी तरलता भी नहीं है कि उनकी अपनी पहचान ही समाप्त हो जाय । सत्य यह है कि पहचान मिटाने या उसे मिश्रित करने की बातें कितनी भी कर ली जायँ पर वास्तव में आप किसी की पहचान नहीं मिटा सकते, वह पहचान जो उसे प्रकृतिप्रदत्त है”।

शनिवार, 1 नवंबर 2025

देशभक्ति का प्रमाण पत्र नहीं चाहिए

*डरे हुये लोग*
१.
बिहार विधानसभा चुनाव-२०२५, विधानसभा क्षेत्र- बलरामपुर, जनता से चुनावपूर्व रुझान पूछते हुये टीवी पत्रकार । उत्साहित जनता का रुझान – “बलरामपुर में हम लोग का ७० फीसदी आबादी है, हिंदू लोग तीसये पर्सेंट नू है, कहाँ से जीतेगा भाजपा! ...सब लोग तेजस्विये को नू देगा भोट”।
...और यह भाजपा है जो हिंदू-मुसलमान करके देश को बाँटने का काम करती है, बाबा साहब के संविधान की हत्या करती है । देश को जोड़ने का काम तो केवल बलरामपुर की सत्तर प्रतिशत जनता ही करती है ।

२.
समाचार है कि “मंदिर में घुसकर युवक ने मूर्ति पर बरसाये जूते”।
...लोग बड़े ठसके से कहते हैं कि -"अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमें बाबा साहब के संविधान ने दी है, देश तुम्हारे बाप का नहीं है, हम अपने धर्म का पालन कर रहे हैं, जो हमें कोई नहीं रोक सकता, जो रोकेगा उसका सर तन से जुदा कर देंगे”।

भारत का यह स्वरूप देखकर जवाहरलाल और मोहनदास की आत्मायें प्रसन्न हो रही होंगी, मीलॉर्ड्स भी प्रसन्न हो रहे होंगे । आज यदि मोहनदास जीवित होते तो हिंदुओं को अपना रटा-रटाया परामर्श देते- हिंदुओं को यदि इससे दुःख होता है तो उन्हें मर जाना चाहिये ...और इसके लिये उन्हें मुसलमानों का कृतज्ञ होना चाहिये कि उन्हें मृत्यु वरण का सुअवसर प्राप्त हो रहा है।
(जिन्हें प्रमाण देखने की उत्सुकता हो, वे कृपया यशपाल रचित "गांधीवाद की शवपरीक्षा" और "संपूर्ण गांधी वांग्मय" का अवलोकन करने की कृपा करें)
३.
*गाय खाऊँगी, काट के खाऊँगी*
*डरे हुये लोग केस-मुकदमे से नहीं डरते* इसलिये ग़ाजियाबाद में टोपी और दाढ़ी वालों से घिरी एक दुबली-पतली लड़की फरजाना को भी पूरा देश जानने लगा है । वह डरे हुये लोगों के समुदाय की है और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री एवं भारत के गृहमंत्री को चीख-चीख कर गंदी-गंदी गालियाँ देती हुयी अपनी वीडियो बनवा रही है – “...गली में घूमने वाला टकला...। गाय खायेंगे, काट के खायेंगे, जो केस करना हो कर लेना । तुलसी निकेतन ५५५ में आ जाना, जल्दी आना”।
पुलिस के लोग फ़रजाना को ऐसा कहने से रोकते हैं, डरी हुयी लड़की पुलिस वालों से भिड़ जाती है । यह डर बहुत अद्भुत् है जिससे मीलॉर्ड लोग बहुत द्रवित रहते हैं ।
...और कुछ अतिविद्वान लोग ताल ठोककर प्रायः यह कहते हुये सुने जाते हैं कि आर.एस.एस. और हिंदू लोग आतंकवादी होते हैं । आतंकवादियों के चिन्हांकन का यह ज्ञान मीलॉर्ड्स को भी कदाचित् अच्छा लगा होगा ।

४.
*मंदिर में मोहम्मद*
मंदिरों की भित्ति से लगी मस्जिदों का निर्माण। रेलवे प्लेटफार्म पर दरगाह का निर्माण, सड़क पर नमाज, मंदिर में नमाज के प्रयास...।
मोहनदास ने भी मंदिर में नमाज पढ़ने के लिये अपने युग में नमाजियों को आमंत्रित किया था । इससे भारत के लोगों को यह संदेश दिया गया कि सामाजिक समरसता के लिये मंदिर में नमाज पढ़ना आवश्यक एवं न्यायसंगत है पर मस्ज़िद में हनुमानचालीसा या गीता का पाठ करना पापपूर्ण और अल्पसंख्यकों की धार्मिक भावनाओं का अपमान करने वाला कृत्य है ।
मोहनदास और जवाहरलाल का स्वप्न सच करने के लिए कांग्रेस ही नहीं, अन्य भी कई राजनीतिक दल सक्रिय हो चुके हैं । प्रसन्न होकर नृत्य कीजिये, लड्डू बाँटिये ।

५. *धर्म की अनुमति नहीं*
समाजवादी पार्टी के माननीय अबू आजमी साहब ने विद्यालयों में राष्ट्रगीत “वंदेमातरम्...” का विरोध किया है । वंदे मातरम् गीत गाने के लिये उनका “धर्म” उनके “डरे हुये विद्यार्थियों” को “अनुमति नहीं देता”।
...इसलिये विद्यालयों में धर्म को अपवित्र करने वाला गीत नहीं गाया जाना चाहिये, भले ही उस गीत को गाने के लिये इस देश के अन्य लोगों को उनका धर्म अनुमति देता हो । अर्थात् सेक्युलरिज़्म केवल सनातनियों के लिये है, डरे हुये लोगों के लिये नहीं ...बाबा साहब के संविधान में ऐसा ही लिखा गया होगा !

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

प्रकट से अप्रकट की ओर, A journey from gross to subtle

- आज की पीढ़ी ने नहीं देखे चाबी वाले टेलीफ़ोन और घड़ी, ट्रांजिस्टर और रेडियो, ऊपर से धुआँ और नीचे से भाप छोड़ती छुक-छुक रेलगाड़ी, सिचाईं के लिये बैलों से खीचे जाने वाले पुर, …और भी बहुत कुछ । ये सब बीते युग की कहानियाँ बन चुकी हैं । कल जो था वह आज नहीं है, आज जो है वह आने वाले कल नहीं रहेगा ।

- यह एक अनवरत यात्रा है, …चमत्कारों की यात्रा ...जो एक दिन अदृश्य होकर भी अपने अस्तित्व के साथ हमसे जुड़ी रहेगी । विश्वास नहीं होता न!
- हम सूक्ष्म शक्तियों के स्वामी बनते जा रहे हैं । एक दिन रिमोट कंट्रोल नहीं होगा पर कंट्रोल होगा, एटीएम कार्ड नहीं होगा पर मुद्रा का आदान-प्रदान होगा, आपके हस्ताक्षर और पासवर्ड नहीं होंगे पर आपकी पहचान होगी और ताले आपकी इच्छा से संचालित होंगे । सुरक्षा के लिये अदृश्य लक्ष्मण रेखायें होंगी । आपके घर में दिखायी देने वाली बहुत सी चीजें सूक्ष्म होते-होते एक दिन अदृश्य हो जायेंगी, …पर वे अपना कार्य करती रहेंगी ।
- जो प्रकट अस्तित्ववान है वह अप्रकट अस्तित्ववान हो जायेगा ...प्राचीन ऋषियों के आशीर्वाद, वरदान और श्राप की तरह ।
यह भी अविश्वसनीय सा लगता है, पर एक दिन आप देखेंगे कि मंत्र पढ़ते ही महासंहारक आयुध अग्निवर्षा करने लगेंगे, …और इस तरह स्थूल आयुध नहीं बल्कि सूक्ष्म आयुध इस स्थूल जगत को समाप्त कर देगें ।
- प्रकृति की व्यवस्था के अनुसार समीकरण तो वही होगा,  E = mc2, पर उसे लिखने की दिशा वही नहीं होगी, हमारी सारी गतिविधियाँ उसे प्रतिलोम दिशा mc2 = E की ओर ले जा रही हैं ।

- हम आज भी विद्युत-चुम्बकीय सूक्ष्म तरंगों के महासमुद्र में अहर्निश डूबे हुये हैं । ये तरंगें बढ़ती ही जा रही हैं, …हम फिर भी चमत्कारों और शक्तिसम्पन्न होने का मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं ।
- ऊर्जा की शक्ति हर किसी को आकर्षित करती रही है । यह आकर्षण युद्ध को आमंत्रित करता है ।
- दशकों से मध्यएशिया के देश नरसंहार और यौनदुष्कर्म से पीड़ित रहे हैं, आज भी हैं । हर कोई शक्ति और अधिकार से सम्पन्न होने की दौड़ में सम्मिलित हो चुका है । ट्रम्प को पूरे विश्व की हर मूल्यवान और उपयोगी चीज पर नियंत्रण चाहिये । पाकिस्तानियों को पूरे विश्व पर शरीया का साया चाहिये । वामपंथियों को एक काल्पनिक विश्व-व्यवस्था चाहिये जिस पर उन्हीं का पूर्ण अधिकार हो ।
- इस बीच भारत में, एक ओर न्यायमूर्ति अपने कर्मप्रभाव से सम्मानशून्य होने की प्रतिस्पर्धा में लगे रहे तो दूसरी ओर सात वामपंथी विदेश जाकर भारत की सत्ता को बेचने की जुगाड़ में लगे रहे ।
- एक अदृश्य सत्ता बड़ी सावधानी के साथ यह सब देख रही है, कर्मों के सूक्ष्म अभिलेख तैयार होते जा रहे हैं ...इधर षष्ठी के भिनसारे सोनपुर में कटि से ऊपर तक गंगाजी के शीतल जल में निमज्जित सूर्योदय की प्रतीक्षा करती स्त्रियों के समूह यह आश्वासन दे रहे हैं कि भारत अभी भी अदृश्य सत्ता को ही जगत का आधार मानता है ।
- उधर हिमालय में विचरण करने वाले मोतीहारी वाले मिसिर जी षष्ठी महापर्व के अनुष्ठानों, गीतों और दृश्यों को स्मरण कर स्वयं पर नियंत्रण खो उठते हैं और उनके नेत्रों से गंगा-जमुना उमड़ पड़ती हैं ।

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

सृष्टि के चेतन स्वरूप उगते सूर्य देव को अर्घ्य देने का पर्व

प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाने वाला सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने का महापर्व, वर्षा ऋतु के पश्चात उत्तम कृषि उपज की कामना का पर्व, नयी पीढ़ी के उत्तम भविष्य की प्रार्थना का पर्व, …बिहार की उत्कृष्ट संस्कृति का महापर्व “छठ-पूजा” के नाम से देश-विदेश में विख्यात है ।

बिहार में मनाये जाने वाले इस पर्व के साथ बिहारियों की भावनायें कहीं बहुत गहराई से जुड़ी हुयी हैं । वे जहाँ भी गये, अपनी भावना और अपनी संस्कृति साथ लेकर गये । मारीशस, सूरीनाम, गुयाना और अफ़्रीकी देशों से लेकर योरोपीय देशों तक ....जहाँ-जहाँ बिहारी हैं, वहाँ-वहाँ सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह महापर्व भी है ...और प्रकृतिपूजा का वैश्विक संदेशप्रसारण भी।
छठ पर्व की विशेषता उसके निष्ठापूर्वक मनाये जाने वाली परम्पराओं, अनुष्ठानों और लोकगीतों में अंकित है । यह अनुभव का विषय है जो हृदय की गहराइयों से हिलोरें मारता हुआ मन को श्रद्धा और करूणा से आप्लावित कर देता है ।
यद्यपि कृषिप्रधान बिहार की धरती को नदियों और सूर्य का विशेष अनुदान प्राप्त है तथापि ब्रिटिश पराधीनता के युग में युवकों को स्वावलम्बन के लिये बंगाल और वर्मा जाना पड़ता था । छठपूजा पर पत्नी के साथ पति की सहभागिता आवश्यक मानी जाती है, इससे जहाँ दाम्पत्य बंधन को और दृढ़ता मिलती है वहीं शेष विश्व को भारतीय पारिवारिक परम्पराओं का एक संदेश भी मिलता है । यही कारण है कि छठपूजा पर लोग एन-केन-प्रकारेण अपने घर जाने का प्रयास अवश्य करते हैं । अनुष्ठान में सूर्य को अर्पित किये जाने वाले स्थानीय फल, कंद और पुष्प प्रवासी बिहारियों को अपनी मातृभूमि से जोड़ते हैं । सतपुतिया और शकरकंद जैसी चीजें हमारे लिये बहुत साधारण हैं पर प्रवासियों से पूछिये इनका रागात्मक महत्व ! 
छठ पर्व पर गाये जाने वाले गीत कृतज्ञता, करुणा, भक्ति और मनोकामना से परिपूर्ण होते हैं । बहुत साधारण से शब्दों और भावों में रचे-बसे छठ गीत जितना आकर्षित करते हैं, उतने अन्य भक्तिगीत नहीं । इन गीतों में भक्त और भगवान के मध्य की दूरी सिमटती हुयी दिखायी देती है । यहाँ किसी विद्वतापूर्ण संवाद या अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं होती । अँजुरी में भरे जल के साथ उगते सूर्य को अर्घ्य देने के लिये शीतल जल में खड़े होकर प्रतीक्षा करने वाली स्त्री जब सूर्य से परिवाद करती है तो भक्त की यह निश्छलता उसकी निष्ठा का प्रमाण बन जाती है – “जल बिच खड़ा होई दरसन लऽ असरा लगावेलि हो । सितली बयरिया सितल दूजे पऽनिया । कब देबो देवता तू आके दरसनिया” और “उगा हो सुरुज देव अरघ के बेरिया भऽइल”।
#अक्षरासिंह के गाये इस गीत – “काँच हि बाँस के बऽहँगिया, बऽहँगी लचकत जाय । होई ना बलम जी कहरिया, बहँगी घाटे पहुँचाय” ने तो योरोप तक अपनी पहुँच बना ली है वहीं #अनुदुबे के गाये गीत – “कोसी भरे चलली अमिता देई । नौलखा हार भीजे । अ भीजता त हार मोरा भीजे देहु । कोसा मोरा नाहीं भीजे” ने भी ...गर्दा उड़ा देले बा ।
परदेश गये पति की प्रतीक्षा करती पत्नी के विरह भावों ने छठगीतों को भी प्रभावित किया है – “...पिया के सनेहिया बऽनइहा, मइया दिहऽ सुख सार”।  
ससुराल में पहली बार छठ का निर्जला व्रत करने वाली नवोढ़ा का यह गीत – “पहिले-पहिले हम कऽइनी छठि मैया बरत तोहार । दिहऽ असिस हजार, बऽढ़े कुल परिवार..” #निवेदितानिष्ठा के स्वरों में बहुत अच्छा बन पड़ा है ।
उगते सूर्य की प्रतीक्षा में गंगाजी के शीतल जल में खड़ी युवती के लिये यह कठिन व्रत और भी कठिन हो जाता है तब वह सूर्य देव को झिड़की देने से भी नहीं चूकती । भक्त की अपने इष्ट के प्रति निश्छल प्रेम की यह पराकाष्ठा बिहारियों में अच्छी तरह देखने को मिलती है – “उगा हो सुरुज देव भेल भिनसरवा, अरघ केरे बेरवा पूजन केरे बेरवा हो, बड़की पुकारे देव दुनु कर जोरवा...”  #स्वातिमिश्रा के मधुर स्वर में गाये इस गीत के शब्द मनोहारी हैं ।
छठपूजा के इन लोकगीतों को भोजपुरी और मैथिली के लालित्य ने बड़ी दृढ़ता से बाँध रखा है, आज हम इनके बिना छठपूजा के गीतों की कल्पना भी नहीं कर पा रहे हैं । कदाचित् ही अन्य किसी बोली में ये गीत उतने प्रभावी और आकर्षक हो सकें । 
एक बात और, गंगा जी हर गाँव से तो होकर बहती नहीं, पर छठपूजा और सूर्य को अर्घ्य देने की परम्परा हर गाँव में है, इसलिये छठपूजा के दिन गाँव के तालाब भी गंगाजी हो जाते हैं । हमें गर्व है कि विप्लवों से घिर कर भी हम अपनी श्रेष्ठ संस्कृति के वाहक बन पा रहे हैं ।

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

जिज्ञासा, प्रश्न-प्रतिप्रश्न और समाधान की यात्रा

साम्यवाद और नास्तिक दर्शन से अद्वैतवाद और आस्तिक दर्शन तक की यात्रा भी कोई कम रोचक नहीं होती। यह वह संक्रांति यात्रा है जो कालिदास को राष्ट्रकवि और तुलसीदास को महाकवि बना देती है।

अतिक्रमण और युद्ध को अपना अधिकार मानने वाली सत्तायें विस्तार की भूखी हुआ करती हैं, भले ही वे वैश्विक समाज की बात करने वाली साम्यवादी सत्तायें ही क्यों न हों। जिन दिनों भारत-विभाजन और सत्ता-हस्तांतरण से निर्मित नया इंडिया नये भारत के लिये छटपटा रहा था उन्हीं दिनों अवसर देखकर चीन ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया जिसके कारण वहाँ के धर्मगुरु दलाई लामा को वर्ष १९५९ में भारत आकर शरण लेने के लिये बाध्य होना पड़ा।

दलाईलामा को भारत में शरण देने के कारण चीन ने सीमाविवाद के बहाने ईसवी सन् १९६२ में भारत पर भी आक्रमण कर दिया। अक्टूबर से नवम्बर तक चले इस युद्ध में भारत की अपमानजनक पराजय हुयी। उस समय मेरी आयु थी मात्र चार वर्ष सात माह। घर में युद्ध की चर्चायें होतीं जिसमें चीनी सेना की बढ़त पर चिंतायें व्यक्त की जातीं। मेरे बालमन को युद्ध के भय ने प्रभावित किया और किसी भी क्षण किसी अनहोनी की आशंकाओं ने मुझे भीरु बना दिया। उस आयु में मैं किसी प्रतिकार की बात सोच भी नहीं सकता था किंतु जब बड़ा हुआ तो उसी चीन के माओ-जे-दांग की लाल-किताब ने मुझे आकर्षित भी किया। मुझे लगने लगा कि सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन शक्ति के परिणामस्वरूप ही सम्भव हो पाते हैं। कुछ और बड़ा हुआ तो जी. डब्ल्यू. एफ़. हेगेल, कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स के विचारों से उपजे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने एक बार फिर शक्ति की अनिवार्यता स्वीकार करने के लिये मुझे बाध्य कर दिया।

सृष्टिचिंतन केंद्रित भारतीय दार्शनिकों के प्रतिकूल पश्चिमी विचारकों के चिंतन उनके वर्तमान से उपजे और स्थापित के विरोधएवं नवीन की प्रतिष्ठामें सिमट कर रह गये । पश्चिमी देशों में होने वाली राजनीतिक और औद्योगिक हलचलों ने पूरे विश्व के चिंतन को प्रभावित किया जिससे भारत भी अछूता नहीं रहा और यहाँ की नयी पीढ़ी ने भारतीय दर्शन के मौलिक तत्वों की ओर आकर्षित होने की अपेक्षा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में अपनी रुचि प्रदर्शित की और उसके अंधानुयायी बनते चले गये। सत्ता, श्रम और पूँजी, सामाजिक गतिशीलता, मानव-चेतना और परिवर्तन की प्रक्रिया के लिये आवश्यक निषेध का निषेधजैसे तात्कालिक उपकरणों ने भारतीय युवाओं को आकर्षित किया जिनमें से एक मैं भी था।

जहाँ भारतीय ऋषियों की जिज्ञासा सृष्टि के मौलिक तत्वों, सृष्टि रचना प्रक्रिया, सूक्ष्म और स्थूल के रूपांतरण एवं जीवों के अस्तित्व को लेकर थी वहीं पश्चिमी विचारकों की जिज्ञासा उनके अपने वर्तमान तक ही सीमित थी। प्रकृति की शक्तियों को चुनौती देने वाले द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने स्थापित सिद्धांतों के विरोध एवं नये सिद्धांतों की स्थापना को समाज की गतिशीलता के लिये आवश्यक मान कर पूरे विश्व में हलचल मचा दी थी। ईश्वर जैसे वैचारिक तत्व काल्पनिक एवं अव्यावहारिक माने जाने लगे और केवल भौतिकवाद को ही मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक स्वीकार किया जाने लगा। मार्क्सवाद के अनुयायी विरोध और संघर्ष को विकास के लिये अनिवार्य तत्व मानने लगे जिससे पश्चिमी देशों की अपेक्षा भारतीय जीवन में कहीं अधिक बड़ी उथल-पुथल हुयी।

उन्हीं दिनों पश्चिमी वैज्ञानिक जगत में एक अन्य अंतर्धारा प्रवाहित हो रही थी जिसने प्रकृति की भौतिक शक्तियों, उनके पारस्परिक सम्बंधों और मनुष्य के साथ उनके सहसम्बंधों की व्याख्या करनी प्रारम्भ की। यह एक विशिष्ट क्रांति थी जिसने आगे चलकर भारतीय दर्शन की विराटता और गूढ़ता को समझने का एक नया ही पथ सृजित कर दिया। आइंस्टीन से लेकर डॉक्टर फ़्रिट्ज़-ऑफ़ काप्रा जैसे कई मनीषियों ने ईश्वर और धर्म जैसे तत्वों को समझने के लिये एक नयी दृष्टि दे दी जिससे वैदिक विज्ञान पुनः प्रतिष्ठित होने लगा किंतु भारत में एक और विवाद ने जन्म ले लिया। यह विवाद मार्क्सवाद और सनातन सिद्धांतों के व्यावहारिक स्वरूप को लेकर उत्पन्न हुआ और प्रगतिशीलवाद के रूप में स्थापित हुआ।

समय के साथ विभिन्न अंतर्विरोधों के मध्य भारतीय युवाओं में भी एक अद्भुत परिवर्तन देखने को मिलने लगा। मोतीहारी वाले मिसिर जी जैसे विचारक कहने लगे – “यदि आप मझधार में हैं तो भारतीय राष्ट्रवाद, सनातनाधर्म और ईश्वर जैसे विषयों को समझने के लिये आपको पहले मार्क्सवादी होना होगा। प्रगतिशील लेखक परिवार के हिमांशु शेखर झा को भी एक दिन कहना पड़ा– “जिसने मार्क्सवाद के सिद्धांत और व्यवहार के अंतर को भलीभाँति समझ लिया उसे भारतीय राष्ट्रवाद के पथ पर जाने से कोई नहीं रोक सकता 

भारतीय परम्परा में सुर भी हैं और असुर भी, दोनों के अस्तित्व को स्वीकार करते हुये सुर-असुर संग्राम सांसारिक धर्म के लिये एक अनिवार्य कर्म माना गया है। भारत विभाजन के समय संघर्ष तो हुआ पर उसका परिणाम सुरों को नहीं मिल सका, निश्चित ही यह सुरों की निर्बलता का परिणाम था जिसके परिणाम भोगने के लिये हम सब अगली कई शताब्दियों तक बाध्य रहेंगे। भारत की सत्ता ईसवी सन् १९४६ से ही ऐसे लोगों से संचालित होने लगी जो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और असुरत्व से प्रभावित थे। उन्होंने सामान्य और विशिष्ट गुणों में अभेद स्थापित करने का हठ किया। ब्रिटिशर्स के जाने के बाद भी भारत को स्वतंत्रता आंदोलन की आवश्यकता थी जिसे समाप्त कर दिया गया। हमारा उद्देश्य सत्ता पाने तक ही सीमित नहीं था प्रत्युत विदेशी दासतायुग के कलंकों और प्रतीकों को मिटाकर भारतीय गौरव और प्रतीकों को पुनर्स्थापित करना था जो नहीं हो सका, परिणामतः हम आज तक भारतीयता को बंदी अवस्था में देख रहे हैं। आज हम अपने हिताहित के विषयों को भी सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं, शत्रु-मित्र को नहीं पहचान पा रहे हैं, सत-असत् में भेद भी नहीं कर पा रहे हैं। यह दुर्भाग्यजनक है।

हमें समझना होगा कि सुर के व्याकरण से सुसंस्कृत ध्वनि अपनी लयबद्धता के कारण ही रचनात्मक होती है, असुर ध्वनि लयरहित होने से रचनात्मक नहीं हो पाती। समाज में भी हमें ऐसे ही असुरत्व से संघर्ष करना होता है।

किसी सुव्यवस्था को अस्वीकार करने वालों को समझना होगा कि रेंडम मूवमेंट किसी गति का स्वभाव नहीं होता, वह तो किसी अनवरत गति के एक कालखण्ड का क्षणिक सत्य भर होता है। अव्यवस्थित सा प्रतीत होने वाला ब्राउनियन मूवमेंट भी एक निश्चित् दिक्-काल से सीमित घटाकाश में संघात-प्रतिसंघात से भी व्यवस्थित ही होता है। यही कारण है कि साम्यवादी हिंसक क्रांतियों ने सत्ता-परिवर्तन में तो सफलता पा ली, पर वे कभी भी सर्वजनहिताय-सर्वजनसुखाय व्यवस्था स्थापित नहीं कर सकीं।

 

साम्यवाद और ब्रह्मवाद का मंथन

साम्यवाद का भेदाभेद-दर्शन कुछ विचारों पर आधारित है

-       ईश्वर और ईश्वरीय नियम का कोई अस्तित्व नहीं होता।

-       भोग जीवन का सत्य है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

-       भाग्यवाद पूँजीवाद के संरक्षण का एक कृत्रिम जाल है। 

-       सभी मनुष्य एक समान हैं, उनमें भेद नहीं किया जा सकता। अर्थात् वैशेषिक दर्शन सम्मत सामान्य और विशिष्ट जैसा कुछ भी नहीं होता।

-       मानव समाज के दो वर्ग हैं शोषक और शोषित।

-       श्रम और पूँजी के असमान वितरण से वर्ग-संघर्ष उत्पन्न होता है।

-       निरंतरपरिवर्तन समाज के विकास की आवश्यकता है और विकास के लिये संघर्ष आवश्यक है।

-       शक्ति के बिना साम्यवाद का कोई अर्थ नहीं।

-       समानता की स्थापना के लिये हिंसा एक उपयोगी उपकरण है।

 

साम्यवाद को दर्शन स्वीकार करने में एक बड़ा अवरोध यह है कि यह आदि और अंत की व्याख्या करने में असमर्थ है। इनकी चिंतन यात्रा उनके वर्तमान से प्रारम्भ होती है और भोगवाद पर समाप्त हो जाती है, जबकि ब्रह्मवादी चिंतन आदि-अंत की व्याख्या, सृष्टिरचना प्रक्रिया, चेतना के विभिन्न स्तरों और जीवन के उद्देश्यों को समझने के लिये एक विराट दर्शन उपस्थित करता है।

आधुनिक वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं कि रचना और व्यवस्था प्रारूप की दृष्टि से मनुष्य ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति है, भारतीय दर्शन “पुरुषोऽयं लोकसम्मितः” कहकर इसकी पुष्टि पहले ही कर चुका है। वैज्ञानिक मानते हैं कि जीव और अजीव में चेतना की अभिव्यक्ति के स्तर का ही तो अंतर है। चेतना दोनों में है, अभिव्यक्ति के स्तर में ही अंतर है। यह बात विचित्र लग सकती है पर जब हम ब्रह्माण्ड के गणितीय गुणसूत्र प्रकटन को समझ लेंगे तो चेतना के स्तर की बात भी समझ में आ जायेगी। यह समझने के लिये प्रश्न-प्रतिप्रश्न के माध्यम से हम आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे।

-       क्या ब्रह्माण्डीय संरचना गणितीय सूत्रों के प्रारूपों पर आधारित होती है?

-       क्या गणितीय सूत्र सृष्टि संरचना में गुणसूत्रों की तरह कार्य करते हैं और हर बार एक जैसी पुनरावृत्ति के लिये उत्तरदायी होते हैं।

-       जैसी लयबद्धता हाफ़-स्पिन में दिखायी देती है वैसी ब्राउनियन-मूवमेंट में क्यों नहीं दिखायी देती?

-       ७४% हाइड्रोजन, २५% हीलियम, अत्यल्प लीथियम और बेरीलियम से निर्मित बिगबैंग से पृथक हुये सूर्य एवं अन्य गृहों-उपगृहों के घटकतत्व इतने अधिक और विविधतापूर्ण क्यों और कैसे हो जाते हैं?

-       बिगबैंग के निर्माण में विविध मैटर्स, ऊष्मा, दिक् और काल के पारस्परिक विलय से हर बार सिंगुलरटी (एकरूपता) ही क्यों और कैसे उत्पन्न होती है? कौन से अदृश्य गुणसूत्र इस व्यवस्था के वाहक बनते हैं? क्या इस घटना से द्वैताद्वैत के रहस्य अनावृत किये जा सकते हैं?

-       ब्रह्माण्ड के विस्तार, बिग-बैंग के विस्फोट, ऊष्मा रूपांतरण, स्थूल पिण्डों का प्रकटीकरण और पुनः संकुचन की एक निश्चित परम्परा की पुनरावृत्ति क्या किसी ऐसे विराट सिद्धांत की ओर संकेत नहीं करती जो सुनिश्चित् और निर्दुष्ट है?

-       कृष्णविवर में ही हर बार क्यों समा जाते हैं भौतिकविज्ञान के सभी सिद्धांत, धर्म, अधर्म, काल और दिक् भी? यह सम्पूर्ण दृष्टव्य ब्रह्माण्ड अंततः शून्य में क्यों विलीन हो जाता है, पुनः शून्य से ही सब कुछ कैसे प्रस्फुटित हो जाता है? क्या यह लयबद्धता सुनियोजित और सुव्यवस्थित नहीं?

 

इन सभी प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों पर भारतीय ऋषियों का चिंतन-मंथन हमें आश्चर्यचकित करता है। षड्दर्शनों – न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और वेदांत हमारी सभी जिज्ञासाओं का समाधान करने में सफल हुये हैं।

 

 

*अथ शिवार्पण कथा...*

 

जब मैं अपनी गधा-पचीसी की आयु के दिनों का स्मरण करता हूँ तो वैचारिक यात्रा के विभिन्न पड़ाव सामने प्रत्यक्ष होने लगते हैं । उन दिनों में मैं माओ-जे-दांग और कार्ल मार्क्स जैसे नवविचारवादियों से प्रभावित था । भौतिक द्वंद्ववाद वर्तमान पर प्रहार करने लगा था और मैं नास्तिकवाद को ही परम धर्म मान बैठा था ।

हुआ यह कि एक दिन घर लौटते समय वर्षा होने लगी तो मार्ग के किनारे बने एक प्राचीन शिवालय में मुझे शरण लेनी पड़ी । सूने शिवालय में कुछ देर खड़े रहने के बाद मेरा नास्तिकत्व जागा और मैं जूते पहने हुये ही शिवलिंग के ऊपर खड़ा हो गया । गधा-पचीसी के क्षणिक ज्वार के अतिरिक्त इस वैचारिक विद्रोह का कोई औचित्य नहीं था, पर भोले भंडारी ने समझा कि लोग तो धतूरा अर्पित करते हैं, इस भक्त ने तो स्वयं को ही समर्पित कर दिया है । शिव जी प्रसन्न हुये, उन्होंने मुझे मेरे अंदर भरे हुये हलाहल के साथ स्वीकर किया । शिव का अपने विद्रोही के लिये यह एक आश्चर्यजनक वरदान था । समय बीतता गया और मैं भौतिक द्वंद्ववाद से निकलकर न्यूक्लियर फ़िज़िक्स और सांख्य दर्शन की ओर बढ़ चला । आगे चलकर इस वैचारिक मंथन में डॉक्टर फ़्रिट्ज़ाफ़ काप्रा की टाओ-ऑफ़-फ़िज़िक्स और द-टर्निंग-प्वाइंट का योगदान बहुत महत्वपूर्ण प्रमाणित हुआ । भारतीय ज्ञान-विज्ञान के रहस्य मेरी बुद्धि में एक-एक कर प्रकाशित होने लगे, गणित सृष्टि का व्याकरण लगने लगा, संख्या स्वयं को दिक्-काल के रूप में व्यक्त करने लगी, जीवन धन्य हो उठा ।

 

...और अंत में यह कि जैसे मेरे दिन बहुरे वैसे ही अन्य वामपंथियों के भी दिन बहुरें । ॐ नमः शिवाय !

 

सृष्टि का व्याकरण है गणित

 

स्पंदनशील ब्रह्माण्ड के निरंतर विस्तार और फिर संकुचन की घटनायें गणितीय सूत्रों से नियंत्रित होती हैं। ब्रह्म की इच्छा एवं संकल्प से दिक् और काल अभिव्यक्त होते हैं, उसी के साथ संख्यात्मक गणित भी अभिव्यक्त होता है। इच्छा और संकल्प ब्रह्म के वे तात्विक बल हैं जो किसी भी स्थूल घटना का सूक्ष्म परिदृश्य निर्मित करते हैं। मनुष्य के प्रकरण में भी कर्ता की इच्छा और संकल्प ही किसी कार्य, शोध या आविष्कार की नींव निर्मित करते हैं।

एकोस्मि बहुस्यामः के साथ ही उत्पन्न हुये लय और विक्षेप रहित महत् तत्व ने सर्वप्रथम तो स्वयं को जिससे पृथक किया वह शेष अ-महत् था। इस घटना की तुलना डार्क-मैटर में प्रथम् स्फुरण से की जा सकती है। यह अदृश्य डार्क-मैटर के एकछत्र राज्य को ऐसी चुनौती है जो लाइट-एनर्जी एवं दृष्टव्य मैटर के प्रकट होने के लिये अपरिहार्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि महत् और अमहत् के अस्तित्व में आने के साथ ही संख्या भी अस्तित्व में आ गयी। शून्य से एक अस्तित्व में आया और फिर दो, जिनके परस्पर विविध संयोजनों से एक ऐसा गणितीय शिल्प बुनता चला गया जिससे सृष्टि रचना के गुणसूत्र एक सुनिश्चित् सृष्टि को पुनः अस्तित्व में ला सके।

 अद्वैत और फिर द्वैत ने मिलकर सृष्टि का प्रारम्भिक गणितीय व्याकरण रचा। संख्याओं ने स्वयं को दिक्-काल (Space, Dimension and Time) के रूप में प्रकट किया जिससे सृष्टि रचना की प्रक्रिया गतिमान हो उठी।  

क्वाण्टम की गणितीय परिकल्पना से बहुत पहले पंचमहाभूत, पंचतन्मात्रा, महत्तत्व, अहंकार, काल एवं दिक् की अवधारणायें अस्तित्व में आ चुकी थीं। सांख्य और वैशेषिक दर्शन ने क्वाण्टम की जटिलताओं को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो पंचतन्मात्राओं की संयोजना से अस्तित्व में आने वाला पंचमहाभूत ही आधुनिकों का क्वाण्टम परिभाषित हुआ।

भारतीय दर्शन शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध को अनुभव एवं चेतना की आधारभूत गुणात्मक इकाइयाँ (Qualitative units) प्रतिपादित करते हैं। पंचगुणों की अभिव्यक्ति आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी के मौलिक स्वरूप में होती है। स्मरण रहे कि Quantity से पहले Quality अपने अस्तित्व में आती है। स्थूल से सूक्ष्म की नहीं, सूक्ष्म से स्थूल और स्थूलतर की रचना होती है।

किसी स्पंदनविहीन (Spineless) तत्व (Entity) में जब स्पंदन प्रारम्भ होता है तब वह तत्व अपने भौतिक अस्तित्व की दिशा में यात्रा प्रारम्भ कर पाता है । स्पंदनविहीन मूलतत्व ब्रह्म की ही एक स्थिति है और उसके अस्तित्व में आने की घटना का परिणाम ही महत् तत्व है । यह सूक्ष्म से स्थूल की यात्रा है, अप्रकट से प्रकट की यात्रा है, ब्रह्म से ब्रह्माण्ड की यात्रा है ।

महत् तत्व में विकार आने से तीन प्रकार के अहंकार उत्पन्न होते हैं जो वास्तव में उनके वैकारिक स्वरूपों का प्रकटीकरण होता है जीवधारियों में सत्वगुण प्रधान वैकारिक अहंकार जो आगे चलकर संकल्प-विकल्पयुक्त मन का कारण होता है, रजोगुण प्रधान तैजस अहंकार जिससे आगे चलकर इंद्रियों की रचना होती है और तमोगुण प्रधान तामस अहंकार जो आगे चलकर पंचमहाभूत का कारण बनता है ।

 

भारतीय दर्शन की शब्दावली

 

ब्रह्म सूक्ष्म से बृहत् की क्षमता से युक्त मौलिक तत्व जो अपनी सुषुप्तावस्था में Dark matter and Dark energy की तरह और जाग्रतावस्था में Ordinary matter and energy की तरह व्यवहार करता है ।

स्पंदन दिक् और काल का जनक, अर्थात् To and Fro movement to cause half spin.

विकार स्पंदन का भौतिक परिणाम अर्थात् Creation.

महत् तत्व सूक्ष्म में विकार का प्रथम परिणाम अर्थात् Unfoldment.

अहंकार स्व के वैकारिक स्वरूप का प्रकटीकरण अर्थात् manifestation of unmanifest.

दिक् प्रथम स्पंदन का परिणाम, भौतिक संख्या का बीज, अर्थात् Space, Directions, Dimension and Numbers.

काल परिवर्तन का अनिवार्य घटक तत्व अर्थात् Time and span.

तन्मात्रा तत् मात्रा, सूक्ष्म का अपने गुणात्मक रूप में भौतिक रूपांतरण अर्थात् Force carrier particles e.g. Photons, Gluons, W and Z Bosons, Higgs Bosons, and Gravitation. 

महाभूत तन्मात्राओं के संयोजन से बने प्रथम स्थूल तत्व अर्थात् Fermions (Quarks and Leptons). 

पंचमहाभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथिवी अर्थात् Physical entities having basic qualities, which are responsible for Expansion, Conduction, Association, Dissociation, Movement, Reactions, Hotness, Adhesiveness, Coldness, Inertia, Stability, and Productivity etc.