मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

प्रकट से अप्रकट की ओर, A journey from gross to subtle

- आज की पीढ़ी ने नहीं देखे चाबी वाले टेलीफ़ोन और घड़ी, ट्रांजिस्टर और रेडियो, ऊपर से धुआँ और नीचे से भाप छोड़ती छुक-छुक रेलगाड़ी, सिचाईं के लिये बैलों से खीचे जाने वाले पुर, …और भी बहुत कुछ । ये सब बीते युग की कहानियाँ बन चुकी हैं । कल जो था वह आज नहीं है, आज जो है वह आने वाले कल नहीं रहेगा ।

- यह एक अनवरत यात्रा है, …चमत्कारों की यात्रा ...जो एक दिन अदृश्य होकर भी अपने अस्तित्व के साथ हमसे जुड़ी रहेगी । विश्वास नहीं होता न!
- हम सूक्ष्म शक्तियों के स्वामी बनते जा रहे हैं । एक दिन रिमोट कंट्रोल नहीं होगा पर कंट्रोल होगा, एटीएम कार्ड नहीं होगा पर मुद्रा का आदान-प्रदान होगा, आपके हस्ताक्षर और पासवर्ड नहीं होंगे पर आपकी पहचान होगी और ताले आपकी इच्छा से संचालित होंगे । सुरक्षा के लिये अदृश्य लक्ष्मण रेखायें होंगी । आपके घर में दिखायी देने वाली बहुत सी चीजें सूक्ष्म होते-होते एक दिन अदृश्य हो जायेंगी, …पर वे अपना कार्य करती रहेंगी ।
- जो प्रकट अस्तित्ववान है वह अप्रकट अस्तित्ववान हो जायेगा ...प्राचीन ऋषियों के आशीर्वाद, वरदान और श्राप की तरह ।
यह भी अविश्वसनीय सा लगता है, पर एक दिन आप देखेंगे कि मंत्र पढ़ते ही महासंहारक आयुध अग्निवर्षा करने लगेंगे, …और इस तरह स्थूल आयुध नहीं बल्कि सूक्ष्म आयुध इस स्थूल जगत को समाप्त कर देगें ।
- प्रकृति की व्यवस्था के अनुसार समीकरण तो वही होगा,  E = mc2, पर उसे लिखने की दिशा वही नहीं होगी, हमारी सारी गतिविधियाँ उसे प्रतिलोम दिशा mc2 = E की ओर ले जा रही हैं ।

- हम आज भी विद्युत-चुम्बकीय सूक्ष्म तरंगों के महासमुद्र में अहर्निश डूबे हुये हैं । ये तरंगें बढ़ती ही जा रही हैं, …हम फिर भी चमत्कारों और शक्तिसम्पन्न होने का मोह छोड़ नहीं पा रहे हैं ।
- ऊर्जा की शक्ति हर किसी को आकर्षित करती रही है । यह आकर्षण युद्ध को आमंत्रित करता है ।
- दशकों से मध्यएशिया के देश नरसंहार और यौनदुष्कर्म से पीड़ित रहे हैं, आज भी हैं । हर कोई शक्ति और अधिकार से सम्पन्न होने की दौड़ में सम्मिलित हो चुका है । ट्रम्प को पूरे विश्व की हर मूल्यवान और उपयोगी चीज पर नियंत्रण चाहिये । पाकिस्तानियों को पूरे विश्व पर शरीया का साया चाहिये । वामपंथियों को एक काल्पनिक विश्व-व्यवस्था चाहिये जिस पर उन्हीं का पूर्ण अधिकार हो ।
- इस बीच भारत में, एक ओर न्यायमूर्ति अपने कर्मप्रभाव से सम्मानशून्य होने की प्रतिस्पर्धा में लगे रहे तो दूसरी ओर सात वामपंथी विदेश जाकर भारत की सत्ता को बेचने की जुगाड़ में लगे रहे ।
- एक अदृश्य सत्ता बड़ी सावधानी के साथ यह सब देख रही है, कर्मों के सूक्ष्म अभिलेख तैयार होते जा रहे हैं ...इधर षष्ठी के भिनसारे सोनपुर में कटि से ऊपर तक गंगाजी के शीतल जल में निमज्जित सूर्योदय की प्रतीक्षा करती स्त्रियों के समूह यह आश्वासन दे रहे हैं कि भारत अभी भी अदृश्य सत्ता को ही जगत का आधार मानता है ।
- उधर हिमालय में विचरण करने वाले मोतीहारी वाले मिसिर जी षष्ठी महापर्व के अनुष्ठानों, गीतों और दृश्यों को स्मरण कर स्वयं पर नियंत्रण खो उठते हैं और उनके नेत्रों से गंगा-जमुना उमड़ पड़ती हैं ।

सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

सृष्टि के चेतन स्वरूप उगते सूर्य देव को अर्घ्य देने का पर्व

प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ल षष्ठी को मनाया जाने वाला सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करने का महापर्व, वर्षा ऋतु के पश्चात उत्तम कृषि उपज की कामना का पर्व, नयी पीढ़ी के उत्तम भविष्य की प्रार्थना का पर्व, …बिहार की उत्कृष्ट संस्कृति का महापर्व “छठ-पूजा” के नाम से देश-विदेश में विख्यात है ।

बिहार में मनाये जाने वाले इस पर्व के साथ बिहारियों की भावनायें कहीं बहुत गहराई से जुड़ी हुयी हैं । वे जहाँ भी गये, अपनी भावना और अपनी संस्कृति साथ लेकर गये । मारीशस, सूरीनाम, गुयाना और अफ़्रीकी देशों से लेकर योरोपीय देशों तक ....जहाँ-जहाँ बिहारी हैं, वहाँ-वहाँ सूर्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का यह महापर्व भी है ...और प्रकृतिपूजा का वैश्विक संदेशप्रसारण भी।
छठ पर्व की विशेषता उसके निष्ठापूर्वक मनाये जाने वाली परम्पराओं, अनुष्ठानों और लोकगीतों में अंकित है । यह अनुभव का विषय है जो हृदय की गहराइयों से हिलोरें मारता हुआ मन को श्रद्धा और करूणा से आप्लावित कर देता है ।
यद्यपि कृषिप्रधान बिहार की धरती को नदियों और सूर्य का विशेष अनुदान प्राप्त है तथापि ब्रिटिश पराधीनता के युग में युवकों को स्वावलम्बन के लिये बंगाल और वर्मा जाना पड़ता था । छठपूजा पर पत्नी के साथ पति की सहभागिता आवश्यक मानी जाती है, इससे जहाँ दाम्पत्य बंधन को और दृढ़ता मिलती है वहीं शेष विश्व को भारतीय पारिवारिक परम्पराओं का एक संदेश भी मिलता है । यही कारण है कि छठपूजा पर लोग एन-केन-प्रकारेण अपने घर जाने का प्रयास अवश्य करते हैं । अनुष्ठान में सूर्य को अर्पित किये जाने वाले स्थानीय फल, कंद और पुष्प प्रवासी बिहारियों को अपनी मातृभूमि से जोड़ते हैं । सतपुतिया और शकरकंद जैसी चीजें हमारे लिये बहुत साधारण हैं पर प्रवासियों से पूछिये इनका रागात्मक महत्व ! 
छठ पर्व पर गाये जाने वाले गीत कृतज्ञता, करुणा, भक्ति और मनोकामना से परिपूर्ण होते हैं । बहुत साधारण से शब्दों और भावों में रचे-बसे छठ गीत जितना आकर्षित करते हैं, उतने अन्य भक्तिगीत नहीं । इन गीतों में भक्त और भगवान के मध्य की दूरी सिमटती हुयी दिखायी देती है । यहाँ किसी विद्वतापूर्ण संवाद या अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं होती । अँजुरी में भरे जल के साथ उगते सूर्य को अर्घ्य देने के लिये शीतल जल में खड़े होकर प्रतीक्षा करने वाली स्त्री जब सूर्य से परिवाद करती है तो भक्त की यह निश्छलता उसकी निष्ठा का प्रमाण बन जाती है – “जल बिच खड़ा होई दरसन लऽ असरा लगावेलि हो । सितली बयरिया सितल दूजे पऽनिया । कब देबो देवता तू आके दरसनिया” और “उगा हो सुरुज देव अरघ के बेरिया भऽइल”।
#अक्षरासिंह के गाये इस गीत – “काँच हि बाँस के बऽहँगिया, बऽहँगी लचकत जाय । होई ना बलम जी कहरिया, बहँगी घाटे पहुँचाय” ने तो योरोप तक अपनी पहुँच बना ली है वहीं #अनुदुबे के गाये गीत – “कोसी भरे चलली अमिता देई । नौलखा हार भीजे । अ भीजता त हार मोरा भीजे देहु । कोसा मोरा नाहीं भीजे” ने भी ...गर्दा उड़ा देले बा ।
परदेश गये पति की प्रतीक्षा करती पत्नी के विरह भावों ने छठगीतों को भी प्रभावित किया है – “...पिया के सनेहिया बऽनइहा, मइया दिहऽ सुख सार”।  
ससुराल में पहली बार छठ का निर्जला व्रत करने वाली नवोढ़ा का यह गीत – “पहिले-पहिले हम कऽइनी छठि मैया बरत तोहार । दिहऽ असिस हजार, बऽढ़े कुल परिवार..” #निवेदितानिष्ठा के स्वरों में बहुत अच्छा बन पड़ा है ।
उगते सूर्य की प्रतीक्षा में गंगाजी के शीतल जल में खड़ी युवती के लिये यह कठिन व्रत और भी कठिन हो जाता है तब वह सूर्य देव को झिड़की देने से भी नहीं चूकती । भक्त की अपने इष्ट के प्रति निश्छल प्रेम की यह पराकाष्ठा बिहारियों में अच्छी तरह देखने को मिलती है – “उगा हो सुरुज देव भेल भिनसरवा, अरघ केरे बेरवा पूजन केरे बेरवा हो, बड़की पुकारे देव दुनु कर जोरवा...”  #स्वातिमिश्रा के मधुर स्वर में गाये इस गीत के शब्द मनोहारी हैं ।
छठपूजा के इन लोकगीतों को भोजपुरी और मैथिली के लालित्य ने बड़ी दृढ़ता से बाँध रखा है, आज हम इनके बिना छठपूजा के गीतों की कल्पना भी नहीं कर पा रहे हैं । कदाचित् ही अन्य किसी बोली में ये गीत उतने प्रभावी और आकर्षक हो सकें । 
एक बात और, गंगा जी हर गाँव से तो होकर बहती नहीं, पर छठपूजा और सूर्य को अर्घ्य देने की परम्परा हर गाँव में है, इसलिये छठपूजा के दिन गाँव के तालाब भी गंगाजी हो जाते हैं । हमें गर्व है कि विप्लवों से घिर कर भी हम अपनी श्रेष्ठ संस्कृति के वाहक बन पा रहे हैं ।

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2025

जिज्ञासा, प्रश्न-प्रतिप्रश्न और समाधान की यात्रा

साम्यवाद और नास्तिक दर्शन से अद्वैतवाद और आस्तिक दर्शन तक की यात्रा भी कोई कम रोचक नहीं होती। यह वह संक्रांति यात्रा है जो कालिदास को राष्ट्रकवि और तुलसीदास को महाकवि बना देती है।

अतिक्रमण और युद्ध को अपना अधिकार मानने वाली सत्तायें विस्तार की भूखी हुआ करती हैं, भले ही वे वैश्विक समाज की बात करने वाली साम्यवादी सत्तायें ही क्यों न हों। जिन दिनों भारत-विभाजन और सत्ता-हस्तांतरण से निर्मित नया इंडिया नये भारत के लिये छटपटा रहा था उन्हीं दिनों अवसर देखकर चीन ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया जिसके कारण वहाँ के धर्मगुरु दलाई लामा को वर्ष १९५९ में भारत आकर शरण लेने के लिये बाध्य होना पड़ा।

दलाईलामा को भारत में शरण देने के कारण चीन ने सीमाविवाद के बहाने ईसवी सन् १९६२ में भारत पर भी आक्रमण कर दिया। अक्टूबर से नवम्बर तक चले इस युद्ध में भारत की अपमानजनक पराजय हुयी। उस समय मेरी आयु थी मात्र चार वर्ष सात माह। घर में युद्ध की चर्चायें होतीं जिसमें चीनी सेना की बढ़त पर चिंतायें व्यक्त की जातीं। मेरे बालमन को युद्ध के भय ने प्रभावित किया और किसी भी क्षण किसी अनहोनी की आशंकाओं ने मुझे भीरु बना दिया। उस आयु में मैं किसी प्रतिकार की बात सोच भी नहीं सकता था किंतु जब बड़ा हुआ तो उसी चीन के माओ-जे-दांग की लाल-किताब ने मुझे आकर्षित भी किया। मुझे लगने लगा कि सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन शक्ति के परिणामस्वरूप ही सम्भव हो पाते हैं। कुछ और बड़ा हुआ तो जी. डब्ल्यू. एफ़. हेगेल, कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स के विचारों से उपजे द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने एक बार फिर शक्ति की अनिवार्यता स्वीकार करने के लिये मुझे बाध्य कर दिया।

सृष्टिचिंतन केंद्रित भारतीय दार्शनिकों के प्रतिकूल पश्चिमी विचारकों के चिंतन उनके वर्तमान से उपजे और स्थापित के विरोधएवं नवीन की प्रतिष्ठामें सिमट कर रह गये । पश्चिमी देशों में होने वाली राजनीतिक और औद्योगिक हलचलों ने पूरे विश्व के चिंतन को प्रभावित किया जिससे भारत भी अछूता नहीं रहा और यहाँ की नयी पीढ़ी ने भारतीय दर्शन के मौलिक तत्वों की ओर आकर्षित होने की अपेक्षा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में अपनी रुचि प्रदर्शित की और उसके अंधानुयायी बनते चले गये। सत्ता, श्रम और पूँजी, सामाजिक गतिशीलता, मानव-चेतना और परिवर्तन की प्रक्रिया के लिये आवश्यक निषेध का निषेधजैसे तात्कालिक उपकरणों ने भारतीय युवाओं को आकर्षित किया जिनमें से एक मैं भी था।

जहाँ भारतीय ऋषियों की जिज्ञासा सृष्टि के मौलिक तत्वों, सृष्टि रचना प्रक्रिया, सूक्ष्म और स्थूल के रूपांतरण एवं जीवों के अस्तित्व को लेकर थी वहीं पश्चिमी विचारकों की जिज्ञासा उनके अपने वर्तमान तक ही सीमित थी। प्रकृति की शक्तियों को चुनौती देने वाले द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने स्थापित सिद्धांतों के विरोध एवं नये सिद्धांतों की स्थापना को समाज की गतिशीलता के लिये आवश्यक मान कर पूरे विश्व में हलचल मचा दी थी। ईश्वर जैसे वैचारिक तत्व काल्पनिक एवं अव्यावहारिक माने जाने लगे और केवल भौतिकवाद को ही मनुष्य जीवन के लिये आवश्यक स्वीकार किया जाने लगा। मार्क्सवाद के अनुयायी विरोध और संघर्ष को विकास के लिये अनिवार्य तत्व मानने लगे जिससे पश्चिमी देशों की अपेक्षा भारतीय जीवन में कहीं अधिक बड़ी उथल-पुथल हुयी।

उन्हीं दिनों पश्चिमी वैज्ञानिक जगत में एक अन्य अंतर्धारा प्रवाहित हो रही थी जिसने प्रकृति की भौतिक शक्तियों, उनके पारस्परिक सम्बंधों और मनुष्य के साथ उनके सहसम्बंधों की व्याख्या करनी प्रारम्भ की। यह एक विशिष्ट क्रांति थी जिसने आगे चलकर भारतीय दर्शन की विराटता और गूढ़ता को समझने का एक नया ही पथ सृजित कर दिया। आइंस्टीन से लेकर डॉक्टर फ़्रिट्ज़-ऑफ़ काप्रा जैसे कई मनीषियों ने ईश्वर और धर्म जैसे तत्वों को समझने के लिये एक नयी दृष्टि दे दी जिससे वैदिक विज्ञान पुनः प्रतिष्ठित होने लगा किंतु भारत में एक और विवाद ने जन्म ले लिया। यह विवाद मार्क्सवाद और सनातन सिद्धांतों के व्यावहारिक स्वरूप को लेकर उत्पन्न हुआ और प्रगतिशीलवाद के रूप में स्थापित हुआ।

समय के साथ विभिन्न अंतर्विरोधों के मध्य भारतीय युवाओं में भी एक अद्भुत परिवर्तन देखने को मिलने लगा। मोतीहारी वाले मिसिर जी जैसे विचारक कहने लगे – “यदि आप मझधार में हैं तो भारतीय राष्ट्रवाद, सनातनाधर्म और ईश्वर जैसे विषयों को समझने के लिये आपको पहले मार्क्सवादी होना होगा। प्रगतिशील लेखक परिवार के हिमांशु शेखर झा को भी एक दिन कहना पड़ा– “जिसने मार्क्सवाद के सिद्धांत और व्यवहार के अंतर को भलीभाँति समझ लिया उसे भारतीय राष्ट्रवाद के पथ पर जाने से कोई नहीं रोक सकता 

भारतीय परम्परा में सुर भी हैं और असुर भी, दोनों के अस्तित्व को स्वीकार करते हुये सुर-असुर संग्राम सांसारिक धर्म के लिये एक अनिवार्य कर्म माना गया है। भारत विभाजन के समय संघर्ष तो हुआ पर उसका परिणाम सुरों को नहीं मिल सका, निश्चित ही यह सुरों की निर्बलता का परिणाम था जिसके परिणाम भोगने के लिये हम सब अगली कई शताब्दियों तक बाध्य रहेंगे। भारत की सत्ता ईसवी सन् १९४६ से ही ऐसे लोगों से संचालित होने लगी जो द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और असुरत्व से प्रभावित थे। उन्होंने सामान्य और विशिष्ट गुणों में अभेद स्थापित करने का हठ किया। ब्रिटिशर्स के जाने के बाद भी भारत को स्वतंत्रता आंदोलन की आवश्यकता थी जिसे समाप्त कर दिया गया। हमारा उद्देश्य सत्ता पाने तक ही सीमित नहीं था प्रत्युत विदेशी दासतायुग के कलंकों और प्रतीकों को मिटाकर भारतीय गौरव और प्रतीकों को पुनर्स्थापित करना था जो नहीं हो सका, परिणामतः हम आज तक भारतीयता को बंदी अवस्था में देख रहे हैं। आज हम अपने हिताहित के विषयों को भी सुनिश्चित नहीं कर पा रहे हैं, शत्रु-मित्र को नहीं पहचान पा रहे हैं, सत-असत् में भेद भी नहीं कर पा रहे हैं। यह दुर्भाग्यजनक है।

हमें समझना होगा कि सुर के व्याकरण से सुसंस्कृत ध्वनि अपनी लयबद्धता के कारण ही रचनात्मक होती है, असुर ध्वनि लयरहित होने से रचनात्मक नहीं हो पाती। समाज में भी हमें ऐसे ही असुरत्व से संघर्ष करना होता है।

किसी सुव्यवस्था को अस्वीकार करने वालों को समझना होगा कि रेंडम मूवमेंट किसी गति का स्वभाव नहीं होता, वह तो किसी अनवरत गति के एक कालखण्ड का क्षणिक सत्य भर होता है। अव्यवस्थित सा प्रतीत होने वाला ब्राउनियन मूवमेंट भी एक निश्चित् दिक्-काल से सीमित घटाकाश में संघात-प्रतिसंघात से भी व्यवस्थित ही होता है। यही कारण है कि साम्यवादी हिंसक क्रांतियों ने सत्ता-परिवर्तन में तो सफलता पा ली, पर वे कभी भी सर्वजनहिताय-सर्वजनसुखाय व्यवस्था स्थापित नहीं कर सकीं।

 

साम्यवाद और ब्रह्मवाद का मंथन

साम्यवाद का भेदाभेद-दर्शन कुछ विचारों पर आधारित है

-       ईश्वर और ईश्वरीय नियम का कोई अस्तित्व नहीं होता।

-       भोग जीवन का सत्य है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

-       भाग्यवाद पूँजीवाद के संरक्षण का एक कृत्रिम जाल है। 

-       सभी मनुष्य एक समान हैं, उनमें भेद नहीं किया जा सकता। अर्थात् वैशेषिक दर्शन सम्मत सामान्य और विशिष्ट जैसा कुछ भी नहीं होता।

-       मानव समाज के दो वर्ग हैं शोषक और शोषित।

-       श्रम और पूँजी के असमान वितरण से वर्ग-संघर्ष उत्पन्न होता है।

-       निरंतरपरिवर्तन समाज के विकास की आवश्यकता है और विकास के लिये संघर्ष आवश्यक है।

-       शक्ति के बिना साम्यवाद का कोई अर्थ नहीं।

-       समानता की स्थापना के लिये हिंसा एक उपयोगी उपकरण है।

 

साम्यवाद को दर्शन स्वीकार करने में एक बड़ा अवरोध यह है कि यह आदि और अंत की व्याख्या करने में असमर्थ है। इनकी चिंतन यात्रा उनके वर्तमान से प्रारम्भ होती है और भोगवाद पर समाप्त हो जाती है, जबकि ब्रह्मवादी चिंतन आदि-अंत की व्याख्या, सृष्टिरचना प्रक्रिया, चेतना के विभिन्न स्तरों और जीवन के उद्देश्यों को समझने के लिये एक विराट दर्शन उपस्थित करता है।

आधुनिक वैज्ञानिक स्वीकार करने लगे हैं कि रचना और व्यवस्था प्रारूप की दृष्टि से मनुष्य ब्रह्माण्ड की प्रतिकृति है, भारतीय दर्शन “पुरुषोऽयं लोकसम्मितः” कहकर इसकी पुष्टि पहले ही कर चुका है। वैज्ञानिक मानते हैं कि जीव और अजीव में चेतना की अभिव्यक्ति के स्तर का ही तो अंतर है। चेतना दोनों में है, अभिव्यक्ति के स्तर में ही अंतर है। यह बात विचित्र लग सकती है पर जब हम ब्रह्माण्ड के गणितीय गुणसूत्र प्रकटन को समझ लेंगे तो चेतना के स्तर की बात भी समझ में आ जायेगी। यह समझने के लिये प्रश्न-प्रतिप्रश्न के माध्यम से हम आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे।

-       क्या ब्रह्माण्डीय संरचना गणितीय सूत्रों के प्रारूपों पर आधारित होती है?

-       क्या गणितीय सूत्र सृष्टि संरचना में गुणसूत्रों की तरह कार्य करते हैं और हर बार एक जैसी पुनरावृत्ति के लिये उत्तरदायी होते हैं।

-       जैसी लयबद्धता हाफ़-स्पिन में दिखायी देती है वैसी ब्राउनियन-मूवमेंट में क्यों नहीं दिखायी देती?

-       ७४% हाइड्रोजन, २५% हीलियम, अत्यल्प लीथियम और बेरीलियम से निर्मित बिगबैंग से पृथक हुये सूर्य एवं अन्य गृहों-उपगृहों के घटकतत्व इतने अधिक और विविधतापूर्ण क्यों और कैसे हो जाते हैं?

-       बिगबैंग के निर्माण में विविध मैटर्स, ऊष्मा, दिक् और काल के पारस्परिक विलय से हर बार सिंगुलरटी (एकरूपता) ही क्यों और कैसे उत्पन्न होती है? कौन से अदृश्य गुणसूत्र इस व्यवस्था के वाहक बनते हैं? क्या इस घटना से द्वैताद्वैत के रहस्य अनावृत किये जा सकते हैं?

-       ब्रह्माण्ड के विस्तार, बिग-बैंग के विस्फोट, ऊष्मा रूपांतरण, स्थूल पिण्डों का प्रकटीकरण और पुनः संकुचन की एक निश्चित परम्परा की पुनरावृत्ति क्या किसी ऐसे विराट सिद्धांत की ओर संकेत नहीं करती जो सुनिश्चित् और निर्दुष्ट है?

-       कृष्णविवर में ही हर बार क्यों समा जाते हैं भौतिकविज्ञान के सभी सिद्धांत, धर्म, अधर्म, काल और दिक् भी? यह सम्पूर्ण दृष्टव्य ब्रह्माण्ड अंततः शून्य में क्यों विलीन हो जाता है, पुनः शून्य से ही सब कुछ कैसे प्रस्फुटित हो जाता है? क्या यह लयबद्धता सुनियोजित और सुव्यवस्थित नहीं?

 

इन सभी प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों पर भारतीय ऋषियों का चिंतन-मंथन हमें आश्चर्यचकित करता है। षड्दर्शनों – न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्वमीमांसा और वेदांत हमारी सभी जिज्ञासाओं का समाधान करने में सफल हुये हैं।

 

 

*अथ शिवार्पण कथा...*

 

जब मैं अपनी गधा-पचीसी की आयु के दिनों का स्मरण करता हूँ तो वैचारिक यात्रा के विभिन्न पड़ाव सामने प्रत्यक्ष होने लगते हैं । उन दिनों में मैं माओ-जे-दांग और कार्ल मार्क्स जैसे नवविचारवादियों से प्रभावित था । भौतिक द्वंद्ववाद वर्तमान पर प्रहार करने लगा था और मैं नास्तिकवाद को ही परम धर्म मान बैठा था ।

हुआ यह कि एक दिन घर लौटते समय वर्षा होने लगी तो मार्ग के किनारे बने एक प्राचीन शिवालय में मुझे शरण लेनी पड़ी । सूने शिवालय में कुछ देर खड़े रहने के बाद मेरा नास्तिकत्व जागा और मैं जूते पहने हुये ही शिवलिंग के ऊपर खड़ा हो गया । गधा-पचीसी के क्षणिक ज्वार के अतिरिक्त इस वैचारिक विद्रोह का कोई औचित्य नहीं था, पर भोले भंडारी ने समझा कि लोग तो धतूरा अर्पित करते हैं, इस भक्त ने तो स्वयं को ही समर्पित कर दिया है । शिव जी प्रसन्न हुये, उन्होंने मुझे मेरे अंदर भरे हुये हलाहल के साथ स्वीकर किया । शिव का अपने विद्रोही के लिये यह एक आश्चर्यजनक वरदान था । समय बीतता गया और मैं भौतिक द्वंद्ववाद से निकलकर न्यूक्लियर फ़िज़िक्स और सांख्य दर्शन की ओर बढ़ चला । आगे चलकर इस वैचारिक मंथन में डॉक्टर फ़्रिट्ज़ाफ़ काप्रा की टाओ-ऑफ़-फ़िज़िक्स और द-टर्निंग-प्वाइंट का योगदान बहुत महत्वपूर्ण प्रमाणित हुआ । भारतीय ज्ञान-विज्ञान के रहस्य मेरी बुद्धि में एक-एक कर प्रकाशित होने लगे, गणित सृष्टि का व्याकरण लगने लगा, संख्या स्वयं को दिक्-काल के रूप में व्यक्त करने लगी, जीवन धन्य हो उठा ।

 

...और अंत में यह कि जैसे मेरे दिन बहुरे वैसे ही अन्य वामपंथियों के भी दिन बहुरें । ॐ नमः शिवाय !

 

सृष्टि का व्याकरण है गणित

 

स्पंदनशील ब्रह्माण्ड के निरंतर विस्तार और फिर संकुचन की घटनायें गणितीय सूत्रों से नियंत्रित होती हैं। ब्रह्म की इच्छा एवं संकल्प से दिक् और काल अभिव्यक्त होते हैं, उसी के साथ संख्यात्मक गणित भी अभिव्यक्त होता है। इच्छा और संकल्प ब्रह्म के वे तात्विक बल हैं जो किसी भी स्थूल घटना का सूक्ष्म परिदृश्य निर्मित करते हैं। मनुष्य के प्रकरण में भी कर्ता की इच्छा और संकल्प ही किसी कार्य, शोध या आविष्कार की नींव निर्मित करते हैं।

एकोस्मि बहुस्यामः के साथ ही उत्पन्न हुये लय और विक्षेप रहित महत् तत्व ने सर्वप्रथम तो स्वयं को जिससे पृथक किया वह शेष अ-महत् था। इस घटना की तुलना डार्क-मैटर में प्रथम् स्फुरण से की जा सकती है। यह अदृश्य डार्क-मैटर के एकछत्र राज्य को ऐसी चुनौती है जो लाइट-एनर्जी एवं दृष्टव्य मैटर के प्रकट होने के लिये अपरिहार्य है। इसका अर्थ यह हुआ कि महत् और अमहत् के अस्तित्व में आने के साथ ही संख्या भी अस्तित्व में आ गयी। शून्य से एक अस्तित्व में आया और फिर दो, जिनके परस्पर विविध संयोजनों से एक ऐसा गणितीय शिल्प बुनता चला गया जिससे सृष्टि रचना के गुणसूत्र एक सुनिश्चित् सृष्टि को पुनः अस्तित्व में ला सके।

 अद्वैत और फिर द्वैत ने मिलकर सृष्टि का प्रारम्भिक गणितीय व्याकरण रचा। संख्याओं ने स्वयं को दिक्-काल (Space, Dimension and Time) के रूप में प्रकट किया जिससे सृष्टि रचना की प्रक्रिया गतिमान हो उठी।  

क्वाण्टम की गणितीय परिकल्पना से बहुत पहले पंचमहाभूत, पंचतन्मात्रा, महत्तत्व, अहंकार, काल एवं दिक् की अवधारणायें अस्तित्व में आ चुकी थीं। सांख्य और वैशेषिक दर्शन ने क्वाण्टम की जटिलताओं को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। वैज्ञानिक दृष्टि से देखा जाय तो पंचतन्मात्राओं की संयोजना से अस्तित्व में आने वाला पंचमहाभूत ही आधुनिकों का क्वाण्टम परिभाषित हुआ।

भारतीय दर्शन शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गंध को अनुभव एवं चेतना की आधारभूत गुणात्मक इकाइयाँ (Qualitative units) प्रतिपादित करते हैं। पंचगुणों की अभिव्यक्ति आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथ्वी के मौलिक स्वरूप में होती है। स्मरण रहे कि Quantity से पहले Quality अपने अस्तित्व में आती है। स्थूल से सूक्ष्म की नहीं, सूक्ष्म से स्थूल और स्थूलतर की रचना होती है।

किसी स्पंदनविहीन (Spineless) तत्व (Entity) में जब स्पंदन प्रारम्भ होता है तब वह तत्व अपने भौतिक अस्तित्व की दिशा में यात्रा प्रारम्भ कर पाता है । स्पंदनविहीन मूलतत्व ब्रह्म की ही एक स्थिति है और उसके अस्तित्व में आने की घटना का परिणाम ही महत् तत्व है । यह सूक्ष्म से स्थूल की यात्रा है, अप्रकट से प्रकट की यात्रा है, ब्रह्म से ब्रह्माण्ड की यात्रा है ।

महत् तत्व में विकार आने से तीन प्रकार के अहंकार उत्पन्न होते हैं जो वास्तव में उनके वैकारिक स्वरूपों का प्रकटीकरण होता है जीवधारियों में सत्वगुण प्रधान वैकारिक अहंकार जो आगे चलकर संकल्प-विकल्पयुक्त मन का कारण होता है, रजोगुण प्रधान तैजस अहंकार जिससे आगे चलकर इंद्रियों की रचना होती है और तमोगुण प्रधान तामस अहंकार जो आगे चलकर पंचमहाभूत का कारण बनता है ।

 

भारतीय दर्शन की शब्दावली

 

ब्रह्म सूक्ष्म से बृहत् की क्षमता से युक्त मौलिक तत्व जो अपनी सुषुप्तावस्था में Dark matter and Dark energy की तरह और जाग्रतावस्था में Ordinary matter and energy की तरह व्यवहार करता है ।

स्पंदन दिक् और काल का जनक, अर्थात् To and Fro movement to cause half spin.

विकार स्पंदन का भौतिक परिणाम अर्थात् Creation.

महत् तत्व सूक्ष्म में विकार का प्रथम परिणाम अर्थात् Unfoldment.

अहंकार स्व के वैकारिक स्वरूप का प्रकटीकरण अर्थात् manifestation of unmanifest.

दिक् प्रथम स्पंदन का परिणाम, भौतिक संख्या का बीज, अर्थात् Space, Directions, Dimension and Numbers.

काल परिवर्तन का अनिवार्य घटक तत्व अर्थात् Time and span.

तन्मात्रा तत् मात्रा, सूक्ष्म का अपने गुणात्मक रूप में भौतिक रूपांतरण अर्थात् Force carrier particles e.g. Photons, Gluons, W and Z Bosons, Higgs Bosons, and Gravitation. 

महाभूत तन्मात्राओं के संयोजन से बने प्रथम स्थूल तत्व अर्थात् Fermions (Quarks and Leptons). 

पंचमहाभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल, और पृथिवी अर्थात् Physical entities having basic qualities, which are responsible for Expansion, Conduction, Association, Dissociation, Movement, Reactions, Hotness, Adhesiveness, Coldness, Inertia, Stability, and Productivity etc.    

 

नवबोधवाद का रुदन

            अथ प्रेमचंद अपहरण कथा...

हंस के मंच पर प्रेमचंद जयंती २०२५ समारोह में मृदुला गर्ग और सुधीर चंद्र को सुनने के पश्चात् मन प्रणोदित हुआ जिससे कुछ नवविचार तत्काल प्रभाव से उत्पन्न हुये जिनमें एक है नवबोधवाद और दूसरा है नवभाषावाद। इसमें कुछ और विचार भी जोड़े जा सकते हैं यथा नवप्रतीकवाद, नवहलाहलवाद, नवक्रांतिवाद... आदि।  

पहले सुधीर चंद्र की बात करते हैं जो भारतीयराष्ट्रवाद और हिंदूराष्ट्रवाद से बहुत व्यथित हैं। उन्होंने उद्घाटित किया कि नवराष्ट्रवाद भी हिंदूराष्ट्रवाद से ही प्रभावित है इसलिये वे इसका समर्थन नहीं करते। कदाचित् इसी कारण से वे सुधीर चंद्र होकर भी प्रथमदृष्ट्या मुसलमान जैसा दिखने का प्रयास करते हैं, मैं इसे नवप्रतीकवाद मानता हूँ। नवप्रतीकवाद, अर्थात् प्रतीकों में घालमेल, इसका अर्थ यह हुआ कि अब रासायनिक सूत्रों के प्रतीकों में भी मिलाजुला (मिश्रित, अविशिष्ट, घालमेलयुक्त) परिवर्तन करने का हठ होना चाहिये इसलिये आवर्त सारिणी की भी कोई आवश्यकता नहीं, सभी तत्वों के लिये एक ही नाम, एक ही प्रतीक होना चाहिये जिससे एकरूपता बनी रहे और सभी तत्वों का प्रतिनिधित्व भी सम्भव हो सके। मिथक टूटने चाहिये ...कि आवर्तसारिणी के बिना रसायनशास्त्र को समझा नहीं जा सकता। आवर्तसारिणी मनुवाद जैसा ही हठ है जिसका सर्वनाश होना ही चाहिये।

नवप्रतीकवाद की अवधारणा यह भी संदेश देती है कि राष्ट्रीय ध्वज जो अपने-अपने राष्ट्रों के प्रतीक हैं, उनमें भी घालमेल होने का हठ होना चाहिये। विश्व के सभी राष्ट्रों के ध्वजों को मिलाकर एक मिश्रित ध्वज तैयार होना चाहिये जिससे पृथक-पृथक राष्ट्रों के मिथक तोड़े जा सकें। यह विश्वध्वज ही सभी राष्ट्रों में विश्वबंधुत्व और विश्वराष्ट्रवाद को स्थापित करने वाला होगा। विशिष्ट पहचान, विशिष्ट प्रतीक, विशिष्ट महापुरुष, विशिष्ट भाषा, विशिष्ट संगीत, विशिष्ट भोजन, विशिष्ट वेश-भूषा ...ये सभी तत्व मनुवाद की तरह विशिष्ट राष्ट्रवाद का संदेश देते हैं, साम्यवाद की तरह पूरे विश्व का संदेश नहीं देते, इसलिए अब पूरे विश्व की बात होनी चाहिये। अरब में भी इग्लू का निर्माण होना चाहिये और आर्कटिक एवं कानाक क्षेत्रों में भी अरब की तरह ढीले कुर्ते पहने जाने चाहिये, यही है सच्चा मानववाद एवं समानतावाद। जब तक हमारे आचरण में इस तरह की समानता नहीं आती तब तक प्रेमचंद जयंती मनाने का कोई अर्थ ही नहीं है।

नवबुद्धिवाद यह अपेक्षा करता है कि किसी भी गीत में सुर में सुर मिलाना लोकतंत्र को समाप्त करना है, प्रत्युत, सुरों में असुरों का, रागों में कोलाहल का और सत्य में छल का घालमेल करना होगा, यही है नवक्रांतिवाद। नवबोधवाद परिवर्तन की अपेक्षा करता है, दूध तो प्रतिदिन पीते ही हैं बीच-बीच में मदिरा का सेवन भी किया जाना चाहिये अन्यथा दूध अहंकारी हो जायेगा, दूध में घुला कठोर मनुवाद आमाशय की कोमल भित्तियों से चिपक जायेगा और वह लोकतंत्र को समाप्त कर देगा। आज विश्व की आवश्यकता है कि किसी भी तरह लोकतंत्र को जीवित रखना ही है अन्यथा एक दिन जो मुट्ठी भर नवबोधवादी बचे हैं वे भी समाप्त हो जायेंगे। हम विचारक हैं, हम चिंतक हैं, हमारा जीवित रहना, हमारा अस्तित्व में बने रहना आवश्यक है। हमारे समाप्त हो जाने से मनुष्य समाज समाप्त हो जायेगा और विवेकशील प्राणी होने के कारण मनुष्य समाज को बचाये रखना हमारा नैतिक दायित्व है।

मृदुला गर्ग जी को डरे हुये लोगों से भी डरना पड़ रहा है, कुछ-कुछ दासानुदास की तरह । सत्ता में बैठे हुये लोग डरे हुये लोग हैं और इन्हीं डरे हुये लोगों ने मृदुला गर्ग को भयभीत कर रखा है जिससे वे व्यथित हैं और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अपहरण हो गया है। वे चुटकुलावाद और विदूषकवाद से भी पीड़ित हैं। उनकी पीड़ायें अनंत हैं किंतु मनुवादियों के अत्याचारों के कारण वे अपनी पीड़ा व्यक्त भी नहीं कर पा रही हैं। सुप्रसिद्ध लेखिका मृदुला जी फ़िलिस्तीन की पीड़ा के समर्थन में प्रदर्शन नहीं कर पा रही हैं जिससे उनकी व्यथा अंतहीन हो गयी है।

बांग्लादेश की हिंदू महिलाओं के यौनौत्पीड़न और नरसंहार की मिथ्या सूचनाओं के पाखंड से उपजे मनुवादी कोलाहल में फ़िलिस्तीन के हलाहल के लिये कोई चिंतित नहीं है, हिंदी साहित्यकारों का लेखकीय धर्म है कि वे फ़िलिस्तीन और हमास के समर्थन में सामने आयें और केंद्र की सत्ता में बैठे मनुवादियों को धूल चटा दें। 

सुधीर जी और मृदुला जी के लिये हिंदी एक दरिद्र भाषा है इसलिए वे हिंदी उन्मूलन के लिये कटिबद्ध हो आगे बढ़ रहे हैं। ये लोग अपनी अभिव्यक्ति में यथासम्भव अरबी, फ़ारसी और इंग्लिश के शब्द पिरोते रहते हैं जिससे ये नयी पीढ़ी को अपनी व्यावहारिक भाषा से यह संदेश देने में सफल हुये हैं कि उन्हें शुक्रिया, तहज़ीब, बदलाव और ऐसे ही कई शब्दों के लिये हिंदी में कोई शब्द मिला ही नहीं। यह हिंदीभाषा के उन्मूलन का हिंदीभाषियों और हिंदी साहित्यकारों का एक सफल प्रयास है। उर्दू को प्रतिष्ठित करना नवभाषावाद है, हिंदी और संस्कृत तो हिंदुओं और ऋषियों की भाषायें हैं, इनका किसी के जीवन में क्या उपयोग! उर्दू न बोली जाय तो पीड़ा होती है, हिंदी को दीर्घकालीन मूर्छना में धकेलते रहना प्रसन्नता का विषय है।

नवबोधवादी खिचड़ीभाषाप्रेमी हैं, इन्हें खीर से घृणा होती है। यह उचित भी है, असुरत्वप्रेम क्रांतिवाद का जीवनीयतत्व है, बेसुरे गीत में जो आनंद है वह शास्त्रीय संगीत में नहीं मिल सकता। शात्रीय संगीत भी हिंदूराष्ट्रवाद का एक हठ है, वीणा की भी क्या आवश्यकता है? ध्वनि ही तो उत्पन्न करनी है, किन्हीं भी दो पदार्थों को आपस में टकराकर ध्वनि उत्पन्न की जा सकती है, यह वीणा या वंशी का ही हठ क्यों? सुधीर जी इसी परम्परावादी हठ को समाप्त करना चाहते हैं । हठ का अधिकार तो केवल नवबोधवादियों को ही है, क्योंकि वे बहुत बड़े चिंतक, बहुत बड़े विचारक और बहुत बड़े नवबाद के पुरोधा हैं।

 

मृदुला गर्ग और सुधीर चंद्र की मनोदशाओं पर मोतीहारी वाले मिसिर जी की दूरभाष पर प्राप्त प्रतिक्रिया – “कुछ विद्रोहियों ने बाबा साहब भीमराव की तरह प्रेमचंद का भी अपहरण कर लिया है और अब वे प्रेमचंद जयंती के नाम पर नवबोधवाद का रुदनकरके आत्ममुग्धता के भँवर में स्वयं के चिंतक होने के भ्रम का पोषण कर रहे हैं । कम से कम स्त्रीशोषण और साम्प्रदायिक नरसंहार जैसे विषयों पर हिंदी पाठकों के समक्ष तस्लीमा नसरीन भी हैं और मृदुला गर्ग भी, आप किसी एक ध्रुव के साथ ही खड़े हो सकते हैं

 

कामरेड

सत्ता और समाज के रहस्यों को समझने के लिए जिज्ञासु व्यक्ति को जीवन में कम से कम एक बार तो कम्युनिस्ट होना ही चाहिए” – मोतीहारी वाले मिसिर जी।

आप राष्ट्रभक्त हो सकते हैं पर एक निष्ठावान राष्ट्रभक्त होने के लिए आपको किसी कामरेड की गली से भी होकर जाना ही चाहिए। उस गली में न्याय और अधिकार के जिज्ञासुओं को प्रभावित करने के लिए रामोजी फ़िल्म सिटी की तरह वे सारे उपकरण और परिदृश्य होते हैं जिन्हें छायांकन के पश्चात कोई पूछता भी नहीं।

सच्चे कामरेड्स का संसार अलीजॉन की दुकान पर बिकने वाली चीन की लाल किताबसे प्रारम्भ होकर विश्वविद्यालयों की बौद्धिक चर्चाओं, साहित्यिक नुक्कड़ों और रंगमंच से होते हुये बस्तर के जंगलों तक विस्तृत होता है। विश्वविद्यालय का कामरेड अंग्रेजी बोलता है, छात्रनेता कामरेड छात्रों की सभाओं में उर्दू बोलता है और बंदूक वाला कामरेड बस्तर के जंगलों में गोंडी बोलता है। इन सभी बोलियों में आग एक उभय तत्व है। बंदूक से निकलने वाली आज़ादी ने न जाने कितने लोगों को आज़ाद किया है ...उनकी आत्मा को ...उनके शरीर से। कुछ चिंतक-विश्लेषक मानते हैं कि कॉमरेड वाली आज़ादी की परिभाषायें कुछ सीमाओं से घिरकर सदा बंदी बनी रहती हैं ।

पेरियार वाली आज़ादी, स्टालिन वाली आज़ादी, हम छीन के लेंगे आज़ादीऔर भारत तेरे टुकड़े होंगेकी धमकियों के बीच से निकलकर कुछ लोग बिखर से गये हैं, कुछ आगे, कुछ पीछे और कुछ साथ-साथ चलने लगे हैं। मदिरा सेवन न करने वाले की अपेक्षा मद्यत्यागी कहीं अधिक मदिराविरोधी होता है।

इतना सब जान लेने के पश्चात् किसी मोड़ का आना स्वाभाविक है। यह मोड़ दायें-बायें हो सकता है ...या फिर पीछे भी। यह क्रांति से अधिक संक्रांति है।