बुधवार, 23 अप्रैल 2025

मैं तैयार हूँ

 वह लोकतंत्र निगलती रही

विष्टा में अलोकतंत्र हगती रही

जिसकी मारक दुर्गंध से

अब नहीं लिख पाता कोई धनपत राय

पंचपरमेश्वर जैसी कहाँनियाँ ।

डाकुओं की अंतरात्मा में

अब नहीं कुलबुलाता

कोई डाकू खड्ग सिंह ।

महानता और कुलीनता के छद्मबोध ने

बना दिया है तुम्हें

स्वेच्छाचारी, निरंकुश और संवेदनशून्य।

पंचपरमेश्वर की पीठ पर

अब नहीं मिलते

अलगू चौधरी और जुम्मन शेख,

मिलते हैं

पिंडारियों के समूह

रचे-बसे

महानता और अतिविशिष्टता के अहंकार में,

चिपके हुये 

कोलेजियम के गोंद में ।

मैं विद्रोह करना चाहता हूँ

इस निरंकुश कोलेजियम के विरुद्ध  

जो बड़ी निर्लज्जता से निगलता जा रहा है

लोकतंत्र को ।

मीलॉर्ड! मैं तैयार हूँ

कारागार में बंदी होने के लिये ।   

काँच के टुकड़े

खोता जा रहा है हिमालय

सिकुड़ते जा रहे हैं हिमनद

बंदी हो गयी है वर्षा

ऋतुविपर्यय के व्यूह में ।

प्रकृतिद्वेषियों, प्रवासियों और घुसपैठियों ने

हिमालय से हिमालय को छीन लिया है

और दे दिये हैं उसे

उच्च अट्टालिकाओं वाले भवन  

और भूस्खलन

आये दिन

फटने लगे हैं कुपित मेघ

विचलित होने लगी हैं नदियाँ

अपने मार्ग से

यह देवभूमि तो नहीं लगती!

जब मुझे

हिमालय में हिमालय को खोजना पड़ता है

तो मिलता है

पञ्जाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश...

हिमालय में मिलते हैं

बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिये भी ।

हिमालय की नयी पीढ़ी

अब और नहीं रहना चाहती देवभूमि में

किंतु रहना चाहते हैं वहाँ

बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिये ।

हिमालय के सिड्डू अब आसानी से नहीं मिलते

मिलते हैं

चाऊमीन, नूडल्स, पिज्जा और सैंडविच ।

हिमालय में

भाँगड़ा है

दारू है

जहाँ-तहाँ बिखरी हुयी काँच की टूटी हुयी

खाली बोतले हैं

जिनके टुकड़े बिंधते जा रहे हैं

मेरे मस्तिष्क में ।

साम्यवाद-प्रतिसाम्यवाद

बहुत बजा ली ढपली

बहुत गा लिये क्रांतिगीत

वही घिसे-पिटे

मुड़े-तुड़े

कि बंदूक से निकलेगा न्याय ।

लेनिन ने कहा

स्टालिन ने कहा

बैलेट से नहीं

बुलेट से निकलेगा न्याय ।

मरवा डाले लाखों लोग

लेनिन ने... स्टालिन ने

पर रुका नहीं अन्याय

रुका नहीं शोषण

फिर एक दिन टूट कर

बिखर गया सोवियत संघ ।

 

युद्ध रोकने के लिये अंतिम युद्ध

शोषण रोकने के लिये अंतिम शोषण

अन्याय रोकने के लिए अंतिम अन्याय

यही तो करते रहे न! अब तक ।

 

युद्ध तो आज भी हो रहे हैं

शोषण तो आज भी हो रहा है

अन्याय तो आज भी हो रहा है

नहीं रुका कुछ भी 

नहीं... कुछ भी नहीं ...

पर मैंने भी अब सोच लिया है

नहीं सुनूँगा तुम्हारी कोई बात

फेक दूँगा ढपली

नहीं करूँगा लाल सलाम

करूँगा

तो केवल जय श्री राम !

 

हमारे पास अपने आदर्श हैं

हमारे पास अपने समाधान हैं

हमारे पास अपने विश्वनायक हैं

अब नहीं चाहिये किसी वंचित से

उसकी वैचारिक कथरी उधार ।

और हाँ ! अब आज से मैं कामरेड नहीं हूँ ।

बारबार करूँगी

 बेटे को पिलाकर

दो कटोरे दूध मलाई डालकर

भरकर तीसरा कटोरा

बढ़ाया ही था मैंने

नन्हीं मुनिया की ओर

कि तभी देख लिया मुनिया की दादी ने,

लगीं झिड़कने

पहले मुझे फिर मुनिया को –

“लौकी सी बढ़ती हैं छोरियाँ

पिये बिना ही दूध...

गया नहीं जायेंगी बेटियाँ

करने किसी का श्राद्ध

मरने के बाद” ।

मुनिया की ओर देख वक्रदृष्टि

डाँट दिया आज फिर दादी ने –

“हजार बार कहा कि

भाई खाया-पिया करे कुछ

तो मत देखा कर टकटकी लगाकर

लग जाती है नजर...

चल भाग यहाँ से”।

भयाविष्ट मुनिया

मंथर गति से जाने लगी

देखती हुयी

कभी मुझे, कभी दादी को

और सुलगाती हुयी मेरे मातृत्व को ।

 

दादी के आदेश का

करे कोई प्रतिवाद

इतना साहस किसमें !

पर...

देखकर अवसर

चोरी की मैंने

छल किया मैंने 

पाप लगे तो लगे

मुनिया को दे दिया दूध

वह भी मलाई वाला

और कर लिया संकल्प

अब आज से

मुनिया नहीं रहेगी वंचित

किसी भी चीज के लिये

और यह छल... यह चोरी...

मैं बारबार करूँगी

क्योंकि यही है

सच्चा मातृत्व

सच्ची प्रगतिशीलता

और सच्चा जनवादी साम्यवाद ।

शनिवार, 12 अप्रैल 2025

तीन कवितायें

 १.     हिंदी के पाठक

 

गर्जना

समुद्र की लहरों की

कुछ भी नहीं है

जितनी कि है

समुद्र के भीतर

जिसे

सुन नहीं पाता कोई और...

जो

रहती है विकल

प्रतिध्वनि बन

व्याप्त हो जाने के लिए

दिग्-दिगंत में

पर

नहीं बन पाती प्रतिध्वनि

और रह जाती है बनकर

मात्र एक कविता

जिसे नहीं पढ़ना चाहते

आज के पढ़े-लिखे विद्वान ।

 

२.     बवंडर

 

दौड़ी आती हैं हवायें

चारो दिशाओं से

भरने भीतर का निर्वात

और तुम भर देना चाहते हो

अपने भीतर का निर्वात

चारो दिशाओं में !

सोचो!

क्यों नहीं हो पाता कालजयी

तुम्हारा लेखन !

 

कभी छूकर तो देखो

किसी और की नाड़ी

कभी पीकर तो देखो

समुद्र का खाराजल 

कभी करके तो देखो

व्यष्टि से समष्टि की यात्रा

तब...

होने लगेंगे कालजयी

तुम्हारे शब्द

तुम्हारे स्वर

तुम्हारे चित्र

और

हो उठेगी मुखरित

तुम्हारी लेखनी ।

 

३.     नारीवाद

 

जब हम स्वीकार करते हैं

कि जो मुझमें है वही सब में है

तब हम सहृदय होते हैं ।

जब हम स्वीकार करते हैं

कि जो सबमें है वही मुझमें भी है

तब हम सामान्य होते हैं

नहीं रह पाते विशिष्ट

और हो जाते हैं शांत

तब नहीं रहता

कोई वाद-परिवाद

किसी से भी ।

 

नहीं कर सकता कोई

अपने निर्वात को व्यापक

क्योंकि व्यापक आकाश में

नहीं होता कोई शून्य

बहाँ होता है

हाइड्रोजन और हीलियम का प्लाज़्मा

इलेक्ट्रो-मैग्नेटिक रेडिएशन

कॉस्मिक किरणें

न्यूट्रिनोज़

मैग्नेटिक फ़ील्ड

और बैरियोनिक मैटर

...इस भीड़ में कहाँ भर सकोगे

अपने भीतर का निर्वात !

किंतु...

भर सकते हो

जग की पीड़ा

अपने भीतर के निर्वात में

और तब

व्याप्त हो जायेगा

संवेदना का एक व्यापक संसार

भीतर से बाहर तक ।