अथ प्रेमचंद अपहरण कथा...
हंस के मंच
पर प्रेमचंद जयंती २०२५ समारोह में मृदुला गर्ग और सुधीर चंद्र को सुनने के
पश्चात् मन प्रणोदित हुआ जिससे कुछ नवविचार तत्काल प्रभाव से उत्पन्न हुये जिनमें
एक है नवबोधवाद और दूसरा है नवभाषावाद। इसमें कुछ और विचार भी जोड़े जा सकते हैं
यथा – नवप्रतीकवाद, नवहलाहलवाद, नवक्रांतिवाद... आदि।
पहले सुधीर
चंद्र की बात करते हैं जो भारतीयराष्ट्रवाद और हिंदूराष्ट्रवाद से बहुत व्यथित हैं।
उन्होंने उद्घाटित किया कि नवराष्ट्रवाद भी हिंदूराष्ट्रवाद से ही प्रभावित है इसलिये
वे इसका समर्थन नहीं करते। कदाचित् इसी कारण से वे सुधीर चंद्र होकर भी
प्रथमदृष्ट्या मुसलमान जैसा दिखने का प्रयास करते हैं, मैं इसे नवप्रतीकवाद मानता हूँ। नवप्रतीकवाद, अर्थात् प्रतीकों में घालमेल, इसका अर्थ यह हुआ कि अब रासायनिक सूत्रों के प्रतीकों में भी
मिलाजुला (मिश्रित, अविशिष्ट, घालमेलयुक्त) परिवर्तन करने का हठ होना चाहिये इसलिये आवर्त
सारिणी की भी कोई आवश्यकता नहीं, सभी तत्वों के लिये एक ही नाम, एक ही प्रतीक होना चाहिये जिससे एकरूपता बनी रहे और सभी तत्वों
का प्रतिनिधित्व भी सम्भव हो सके। मिथक टूटने चाहिये ...कि आवर्तसारिणी के बिना रसायनशास्त्र
को समझा नहीं जा सकता। आवर्तसारिणी मनुवाद जैसा ही हठ है जिसका सर्वनाश होना ही
चाहिये।
नवप्रतीकवाद
की अवधारणा यह भी संदेश देती है कि राष्ट्रीय ध्वज जो अपने-अपने राष्ट्रों के
प्रतीक हैं, उनमें भी घालमेल होने का हठ
होना चाहिये। विश्व के सभी राष्ट्रों के ध्वजों को मिलाकर एक मिश्रित ध्वज तैयार
होना चाहिये जिससे पृथक-पृथक राष्ट्रों के मिथक तोड़े जा सकें। यह विश्वध्वज ही सभी
राष्ट्रों में विश्वबंधुत्व और विश्वराष्ट्रवाद को स्थापित करने वाला होगा।
विशिष्ट पहचान, विशिष्ट प्रतीक, विशिष्ट महापुरुष, विशिष्ट भाषा, विशिष्ट संगीत, विशिष्ट भोजन, विशिष्ट वेश-भूषा ...ये सभी
तत्व मनुवाद की तरह विशिष्ट राष्ट्रवाद का संदेश देते हैं, साम्यवाद की तरह पूरे विश्व का संदेश नहीं देते, इसलिए अब पूरे विश्व की बात होनी चाहिये। अरब में भी इग्लू का
निर्माण होना चाहिये और आर्कटिक एवं कानाक क्षेत्रों में भी अरब की तरह ढीले
कुर्ते पहने जाने चाहिये, यही है सच्चा मानववाद एवं
समानतावाद। जब तक हमारे आचरण में इस तरह की समानता नहीं आती तब तक प्रेमचंद जयंती
मनाने का कोई अर्थ ही नहीं है।
नवबुद्धिवाद
यह अपेक्षा करता है कि किसी भी गीत में सुर में सुर मिलाना लोकतंत्र को समाप्त
करना है, प्रत्युत, सुरों में असुरों का, रागों में कोलाहल का और सत्य में छल का घालमेल करना होगा, यही है नवक्रांतिवाद। नवबोधवाद परिवर्तन की अपेक्षा करता है, दूध तो प्रतिदिन पीते ही हैं बीच-बीच में मदिरा का सेवन भी किया
जाना चाहिये अन्यथा दूध अहंकारी हो जायेगा, दूध में घुला कठोर मनुवाद आमाशय की कोमल भित्तियों से चिपक
जायेगा और वह लोकतंत्र को समाप्त कर देगा। आज विश्व की आवश्यकता है कि किसी भी तरह
लोकतंत्र को जीवित रखना ही है अन्यथा एक दिन जो मुट्ठी भर नवबोधवादी बचे हैं वे भी
समाप्त हो जायेंगे। हम विचारक हैं, हम चिंतक हैं, हमारा जीवित रहना, हमारा अस्तित्व में बने रहना आवश्यक है। हमारे समाप्त हो जाने
से मनुष्य समाज समाप्त हो जायेगा और विवेकशील प्राणी होने के कारण मनुष्य समाज को
बचाये रखना हमारा नैतिक दायित्व है।
मृदुला
गर्ग जी को “डरे हुये लोगों से भी डरना पड़
रहा है, कुछ-कुछ दासानुदास की तरह ।
सत्ता में बैठे हुये लोग डरे हुये लोग हैं और इन्हीं डरे हुये लोगों ने मृदुला
गर्ग को भयभीत कर रखा है जिससे वे व्यथित हैं और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का
अपहरण हो गया है। वे चुटकुलावाद और विदूषकवाद से भी पीड़ित हैं। उनकी पीड़ायें अनंत
हैं किंतु मनुवादियों के अत्याचारों के कारण वे अपनी पीड़ा व्यक्त भी नहीं कर पा
रही हैं। सुप्रसिद्ध लेखिका मृदुला जी फ़िलिस्तीन की पीड़ा के समर्थन में प्रदर्शन
नहीं कर पा रही हैं जिससे उनकी व्यथा अंतहीन हो गयी है।
बांग्लादेश
की हिंदू महिलाओं के यौनौत्पीड़न और नरसंहार की मिथ्या सूचनाओं के पाखंड से उपजे
मनुवादी कोलाहल में फ़िलिस्तीन के हलाहल के लिये कोई चिंतित नहीं है, हिंदी साहित्यकारों का लेखकीय धर्म है कि वे फ़िलिस्तीन और हमास
के समर्थन में सामने आयें और केंद्र की सत्ता में बैठे मनुवादियों को धूल चटा दें।
सुधीर जी
और मृदुला जी के लिये हिंदी एक दरिद्र भाषा है इसलिए वे हिंदी उन्मूलन के लिये
कटिबद्ध हो आगे बढ़ रहे हैं। ये लोग अपनी अभिव्यक्ति में यथासम्भव अरबी, फ़ारसी और इंग्लिश के शब्द पिरोते रहते हैं जिससे ये नयी पीढ़ी को
अपनी व्यावहारिक भाषा से यह संदेश देने में सफल हुये हैं कि उन्हें शुक्रिया, तहज़ीब, बदलाव और ऐसे ही कई शब्दों के
लिये हिंदी में कोई शब्द मिला ही नहीं। यह हिंदीभाषा के उन्मूलन का हिंदीभाषियों
और हिंदी साहित्यकारों का एक सफल प्रयास है। उर्दू को प्रतिष्ठित करना नवभाषावाद
है, हिंदी और संस्कृत तो हिंदुओं और ऋषियों की भाषायें हैं, इनका किसी के जीवन में क्या उपयोग! उर्दू न बोली जाय तो पीड़ा
होती है, हिंदी को दीर्घकालीन मूर्छना
में धकेलते रहना प्रसन्नता का विषय है।
नवबोधवादी
खिचड़ीभाषाप्रेमी हैं, इन्हें खीर से घृणा होती है।
यह उचित भी है, असुरत्वप्रेम क्रांतिवाद का
जीवनीयतत्व है, बेसुरे गीत में जो आनंद है वह
शास्त्रीय संगीत में नहीं मिल सकता। शात्रीय संगीत भी हिंदूराष्ट्रवाद का एक हठ है, वीणा की भी क्या आवश्यकता है? ध्वनि ही तो उत्पन्न करनी है, किन्हीं भी दो पदार्थों को आपस में टकराकर ध्वनि उत्पन्न की जा
सकती है, यह वीणा या वंशी का ही हठ
क्यों? सुधीर जी इसी परम्परावादी हठ को समाप्त करना चाहते हैं । हठ का
अधिकार तो केवल नवबोधवादियों को ही है, क्योंकि वे बहुत बड़े चिंतक, बहुत बड़े विचारक और बहुत बड़े नवबाद के पुरोधा हैं।
मृदुला
गर्ग और सुधीर चंद्र की मनोदशाओं पर मोतीहारी वाले मिसिर जी की दूरभाष पर प्राप्त
प्रतिक्रिया – “कुछ विद्रोहियों ने बाबा साहब
भीमराव की तरह प्रेमचंद का भी अपहरण कर लिया है और अब वे प्रेमचंद जयंती के नाम पर
“नवबोधवाद का रुदन” करके आत्ममुग्धता के भँवर में स्वयं के चिंतक होने के भ्रम का
पोषण कर रहे हैं । कम से कम स्त्रीशोषण और साम्प्रदायिक नरसंहार जैसे विषयों पर
हिंदी पाठकों के समक्ष तस्लीमा नसरीन भी हैं और मृदुला गर्ग भी, आप किसी एक ध्रुव के साथ ही खड़े हो सकते हैं”।
कामरेड
“सत्ता और समाज के रहस्यों को
समझने के लिए जिज्ञासु व्यक्ति को जीवन में कम से कम एक बार तो कम्युनिस्ट होना ही
चाहिए” – मोतीहारी वाले मिसिर जी।
आप
राष्ट्रभक्त हो सकते हैं पर एक निष्ठावान राष्ट्रभक्त होने के लिए आपको किसी
कामरेड की गली से भी होकर जाना ही चाहिए। उस गली में न्याय और अधिकार के
जिज्ञासुओं को प्रभावित करने के लिए रामोजी फ़िल्म सिटी की तरह वे सारे उपकरण और
परिदृश्य होते हैं जिन्हें छायांकन के पश्चात कोई पूछता भी नहीं।
सच्चे
कामरेड्स का संसार अलीजॉन की दुकान पर बिकने वाली “चीन की लाल किताब” से प्रारम्भ होकर विश्वविद्यालयों की बौद्धिक चर्चाओं, साहित्यिक नुक्कड़ों और रंगमंच से होते हुये बस्तर के जंगलों तक
विस्तृत होता है। विश्वविद्यालय का कामरेड अंग्रेजी बोलता है, छात्रनेता कामरेड छात्रों की सभाओं में उर्दू बोलता है और बंदूक
वाला कामरेड बस्तर के जंगलों में गोंडी बोलता है। इन सभी बोलियों में आग एक उभय
तत्व है। बंदूक से निकलने वाली आज़ादी ने न जाने कितने लोगों को आज़ाद किया है
...उनकी आत्मा को ...उनके शरीर से। कुछ चिंतक-विश्लेषक मानते हैं कि कॉमरेड वाली
आज़ादी की परिभाषायें कुछ सीमाओं से घिरकर सदा बंदी बनी रहती हैं ।
“पेरियार वाली आज़ादी, स्टालिन वाली आज़ादी, हम छीन के लेंगे आज़ादी” और “भारत तेरे टुकड़े होंगे” की धमकियों के बीच से निकलकर कुछ लोग बिखर से गये हैं, कुछ आगे, कुछ पीछे और कुछ साथ-साथ चलने
लगे हैं। मदिरा सेवन न करने वाले की अपेक्षा मद्यत्यागी कहीं अधिक मदिराविरोधी
होता है।
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