साम्यवाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
साम्यवाद लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 16 मई 2024

अर्ध-मूर्च्छित समाज व्यवस्था

        राजतंत्र बहुत अच्छा हो सकता है या फिर बहुत बुरा, जबकि लोकतंत्र न तो बहुत अच्छा होता है और न बहुत बुरा। साम्यवादी क्रांतियों में धनसम्पन्न लोगों की क्रूरतापूर्वक हत्या और उसके बाद की सत्ताव्यवस्था से दुनिया ने बहुत कुछ सीखा है। चीन के साम्यवादी शासन में वैयक्तिक स्वतंत्रता की प्रतिदिन किसी न किसी रूप में हत्या कर दी जाती है, सोवियत संघ का विघटन हम देख ही चुके हैं। भारत और अमेरिका जैसे देशों के सत्ताधीश इन क्रांतियों से भयभीत हैं और इनकी पुनरावृत्ति नहीं चाहते।

        रक्तसंघर्ष से बचने के लिए शासनव्यवस्था को बहुत अच्छा बनाना होगा जो राजतंत्र में तो सम्भव है पर लोकतंत्र में बिल्कुल भी नहीं। तो क्या अमेरिका और भारत का जन-असंतोष किसी रक्तक्रांति का कारक हो सकता है!

        भारत जैसे लोकतंत्र में साम्प्रदायिक हिंसा तो हो सकती है पर रक्तसंघर्ष नहीं। बोल्शेविक क्रांति के परिणामों से डरते हुये लोकतांत्रिक देशों के सत्ताधीशों ने एक ऐसी क्रूर व्यवस्था विकसित कर ली है जिसमें वे गण को न जीने देते हैं, न मरने देते हैं। यह व्यवस्था अपनी प्रजा को अर्धमूर्छित बनाये रखने में विश्वास रखती है, इसके लिए अमेरिका के सत्ताधीशों ने अपनी प्रजा को ज़ाइलाज़िन और फ़ेंटालिन जैसी औषधियों के मादक प्रभाव का अभ्यस्त और युवाओं को बेरोजगारी भत्ता देकर अकर्मण्य बनाया तो भारत के सत्ताधीशों ने आरक्षण, कर्ज माफ़ी, दानवितरण और सुरा के माध्यम से अपनी प्रजा को अर्धमूर्छित कर दिया है। जनता इस मूर्छना की अभ्यस्त हो चुकी है और अब इसे बदलने की बात सोचना भी जन-असंतोष उत्पन्न कर सकता है। भारत के सभी राजनीतिक दल इस बात पर एकमत रहते हैं कि सत्ता में बने रहने के लिए गण को अर्धमूर्छित अवस्था में बनाये रहना आवश्यक है। लोकतंत्र वास्तव में एक प्रतिस्पर्धा-तंत्र है जहाँ हर किसी को अपनी आसुरी या दैवीय शक्तियों के साथ अपने-अपने वर्चस्व के लिये संघर्ष करते रहना होता है। भारत की प्रजा इस प्रतिस्पर्धा में पराजित हो चुकी है, एलिट क्लास और सत्ताधीश बिजयी होते जा रहे हैं।   

        आरक्षण और दान-वितरण किसी भी समाज को अपंग बनाने के लिये मीठे विष की तरह प्रभावकारी होते हैं । आरक्षण से प्रतिभाओं की हत्या की जाती है और दान-वितरण से लोगों को अकर्मण्य बना दिया जाता है। अब संसाधनों की लूटमार के स्थान पर उत्पादों की लूटमार होने लगी है। उपभोक्ता वस्तुओं का दान-वितरण एक तरह से साम्यवादी सिद्धांतों वाली लूटमार है जिसे कुछ कर्मठ लोगों से छीनकर अकर्मण्य लोगों में बाँट दिया जाता है। बची-खुची कमी कर्जमाफ़ी से पूरी कर दी जाती है। ये वे स्थितियाँ हैं जो कर्मठता, प्रतिस्पर्धा और कुशलता को अपने पास भी नहीं आने देतीं। भारत में निजी क्षेत्र के शिक्षण संस्थान और उद्योग न होते तो अब तक यह देश पूर्ण अपंगों का देश हो चुका होता।

        भारत में लोक अर्धमूर्छित है और सत्ता लोक को अर्धमूर्छित बनाये रखने के उपायों के लिए सजग है । यह सब इसलिए क्योंकि हमने पश्चिम की देखा-देखी धर्म के अंकुश को अपने जीवन के सभी क्षेत्रों से निकालकर बाहर फेक दिया है। धर्म को पूजा-पाठ से जोड़ दिया और धर्म से सामाजिक शुचिता और मानवीय मूल्यों को अलग कर राजनीति से जोड़ दिया जिसका कोई अर्थ ही नहीं है।  

गुरुवार, 7 जुलाई 2022

सत्ता और शासन का चीनी प्रादर्श

  लगातार  इन्फ़्लेशन और रीसेशन के बीच आर.बी.आई. के पूर्व गवर्नर रघुराजन ने फिर चेतावनी दी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह भूलुण्ठित होने की दिशा में आगे बढ़ चुकी है। उनके अनुसार यदि आर्थिक और औद्योगिक-तकनीकी सुधारों की ओर तत्काल गम्भीरतापूर्वक ध्यान न दिया गया तो भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह धराशायी हो जायेगी।

इन सुधारों का दायित्व किस पर है?

क्या भारत में लोकतंत्र की अवधारणा एक असफल प्रयोग हो कर रह गयी है?

भारत की जनता ने पिछले कुछ दशकों से केवल सत्ता की छीना-झपटी को ही देखा है। सरकार गिराने, बनाने और बचाने में पाँच साल तक कलाबाजियाँ करने वाले कुछ लोगों की जेब में समा चुके भारत को अब आंतरिक संघर्षों की आग में जलते हुये देखा जा रहा है जिसकी लपटें अराजकता, गृहयुद्ध और विखण्डन के स्पष्ट संकेत दे रही हैं। कृषि, आर्थिक, औद्योगिक और तकनीकी सुधारों की ओर ध्यान देने का समय ही किसके पास है! सरकारी औद्योगिक प्रतिष्ठान निरंतर घाटे में ही डूबे रहने की कसम खाये बैठे हैं और लालफीताशाही अपने एक अलग ही साम्राज्य में आत्ममुग्ध है।    

आज से लगभग चौबीस शताब्दी पूर्व सोलह महाजनपदों वाले विश्व के प्रथम गणतांत्रिक वृज्जिसंघ की व्यवस्था को लिच्छवियों की राजधानी वैशाली में धूल-धूसरित होते हुये यह देश देख चुका है। पिछले वर्ष हमने एक काल्पनिक देश खालिस्तान के ध्वज को लाल किले पर लहराते हुये देखा है। सत्ता और सत्य का अब आपस में दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा। कोई भी सत्ता जब सत्य, विद्वान और चिंतकों को धता बताने लगे तो समझ लेना चाहिए कि वह सत्ता तो बिखरेगी ही, देश भी बिखरेगा – अट्टकुल के वृज्जिसंघ की तरह, ओट्टोमन साम्राज्य की तरह, सन् 1947 के भारत की तरह और यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ सोवियत रूस की तरह।   

  स्पष्ट कर दूँ कि सैद्धांतिकरूप से मैं वर्तमान कम्युनिज़्म का समर्थन नहीं करता। हमें पीछे मुड़कर देखने की अनुमति नहीं है इसलिए मौर्यकालीन भारत के प्रादर्श पर चर्चा के बारे में तो सोचना भी अपराध है। हमें किसी अन्य विकल्प पर ही विचार करना होगा। निस्संदेह चीन हमारा शत्रु है किंतु यदि भारत के विकास में उधार का लोकतंत्र सफल नहीं हो पा रहा है तो क्यों नहीं हमें भारत में सत्ता और शासन के लिए चीनी प्रादर्श पर चिंतन करना चाहिए? जब उधार ही लेना है तो पश्चिम से क्यों, पूर्व से क्यों नहीं!

जिस साम्यवाद की हम आलोचना करते नहीं थकते उसी साम्यवाद ने चीन को आज विश्व की महाशक्ति बना दिया है, जबकि अतिप्रशंसनीय लोकतंत्र ने भारत को अराजकता, निरंकुशता और गृहयुद्ध में झोंक दिया है। लोकतंत्र की सफलता की चाबी एक आदर्श और साफ-सुथरे समाज के पास होती है, बिखरे हुये और दास मानसिकता वाले समाज के पास नहीं। भारत जैसे अराजक और स्वेच्छाचारी समाज के लिए या तो कबीला तंत्र अच्छा है या फिर कुछ सुधार के बाद चीनी साम्यवाद!

आधुनिक भारत में खुलेआम हत्या, सामूहिक नरसंहार और यौनदुष्कर्म की धमकियों को चीख-चीख कर न्यायसंगत ठहराने वाले अतिबुद्धिजीवियों की फौज़ के होते हुये किसी औद्योगिक या तकनीकी सुधार के बारे में सोचा भी कैसे जा सकता है!

क्या आपको नहीं लगता कि भारत अफीम की पिन्नक में डूब चुका है!


लोकतंत्र की ऐसी-तैसी का अधिकार

टीवी चैनल्स पर रावण से विष्णु के बारे राय पूछी जाती है, किसान से ब्रेन सर्जरी का तरीका पूछा जाता है, इंजीनियर से ध्रुपद गायन के लिए कहा जाता है और तस्लीम रहमानी एवं वारिस पठान से सिगरेट पीती हुयी काली पर टिप्पणी करने के लिए कहा जाता है क्योंकि यह लोकतंत्र है और हर किसी को किसी भी विषय पर अपनी राय बनाने और उसे सार्वजनिक करने का लोकतांत्रिक अधिकार है। जेबी पारदीवाला के सुर में बोलूँ तो वाकई बहुत सारे विवादों को समाप्त करने के लिए टीवी चैनल्स पर पूर्ण प्रतिबंध लगाये जाने की आवश्यकता है।

इस्लामिक आराध्यों पर टिप्पणी करने का लोकतांत्रिक अधिकार किसी सनातनी को नहीं है पर महान टीवी चैनल्स वाले सनातनी आस्थाओं पर टिप्पणी करने के लिए किसी संत या दार्शनिक को नहीं बल्कि तस्लीम रहमानी और वारिस पठान को आमंत्रित करते हैं। सीएनबीसी आवाज की जय हो!