रविवार, 7 दिसंबर 2025

हिड़मा तो अजेय था, उसे मारा कैसे गया?

माओवादी गुरिल्ला कमांडर हिड़मा को जानने वालों का तर्क है कि साठ से सत्तर लड़ाकों के चार स्तरीय सुरक्षा घेरे को भेदकर हिड़मा तक पहुँचना ही असंभव था, उसे मारा कैसे गया, निश्चित ही कोई गड़बड़ है। 

समाजसेविका सोनी सोढ़ी पहले ही कह चुकी है कि हिड़मा तो आत्मसमर्पण करने गया था पर पुरस्कार के लालच में पुलिस ने उसे मार दिया । यह हिड़मा के प्रति पुलिस और सरकार का अन्याय है। 

कई लोगों की हत्यायें करने वाले कामरेड की मृत्यु से बस्तर के लोगों का व्यथित होना यह प्रमाणित करता है कि कुछ लोगों की सोच कितनी पक्षपातपूर्ण होती है कि उन्हें परिभाषायें और मानदंड बदलने में देर नहीं लगती।

गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

अबोधों का वैचारिक बालविवाह

(...पिछले अंक से निरंतर)

उग्रमाओवादियों की काल्पनिक "जनताना-सरकार" में वैचारिक बाल-विवाह को प्राथमिकता दी जाती रही है क्योंकि यह अपेक्षाकृत सुविधाजनक है, परिपक्व युवकों का वैचारिक प्रक्षालन सरल नहीं होता।
अबूझमाड़ के दुर्गम वनों में मांडवी हिड़मा जैसे कई किशोरों और किशोरियों का उग्र-माओवाद से वैचारिक बालविवाह किया जाता रहा है जिस पर न तो मानवाधिकारवादियों ने कभी कोई चिंता प्रकट की और न कभी कोई अतिबुद्धिजीवी व्यथित हुआ। पाँचवी कक्षा तक शिक्षित परवर्ती गाँव के हिड़मा को मात्र सत्रह की आयु में कार्लमार्क्स, हेगल, माओ, लेनिन और स्टालिन की विचारधारा समझ में आ गयी थी! साम्यवाद, पूँजीवाद और बुर्जुआ जैसे शब्दों के अर्थ भी समझ में आ गये थे ! यह भी समझ में आ गया था कि न्याय और अधिकार बंदूक की नली से ही उत्सर्जित होते हैं जिन्हें पाने के लिए गुरिल्ला युद्ध के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। यह भी समझ में आ गया था कि विकास के लिए आधारभूत संरचनाओं के निर्माण की कोई आवश्यकता नहीं इसलिए उन्हें तोड़ कर नष्ट कर दिया जाना चाहिए, ...और यह भी कि देश के विधान को अस्वीकार कर रक्तपात करना ही प्रगतिशीलता और न्याय की उपलब्धता है।
सत्रह वर्ष की आयु में हिड़मा अपना घर-परिवार त्यागकर माओवादी संगठन का सक्रिय सदस्य बन गया, फिर एक-एक चरण आगे बढ़ते हुये वह संगठन के उच्च पद तक भी पहुँच गया।
इसी तरह कक्षा चार तक शिक्षित राजे ने भी मात्र दस वर्ष की आयु में ही माओवादी संगठन को गले लगा लिया था जो बाद में हिड़मा की सहचरी भी बनी।
बस्तर की पृष्ठभूमि में पले-बढ़े किशोर देश के बारे में भले ही न जानते हों पर वे माओवाद की गूढ़ता को जान जाते हैं। यह अद्भुत है... और अविश्वसनीय भी, पर बुद्धि के वैचारिक प्रक्षालन से सब कुछ संभव है।
प्रिय हिड़मा प्रेमियो! एक बार तो अबूझमाड़ आइये, वनवासी जीवन को समीप से देखिये...और कर सको तो उसे अनुभव भी कीजिये।
क्या यह सत्य नहीं है कि शोषण और भ्रष्टाचार हमारे सबसे प्रिय शत्रु हैं जिनका परित्याग आप भी नहीं करना चाहते। जल-जंगल-जमीन पर वनवासियों का नैसर्गिक अधिकार था, है और रहेगा पर उसके लिए क्या कोई शासन व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? तुम्हारे नारे वनवासियों को लुभाते हैं, उनका भला नहीं करते। आदिवासीसंस्कृति संरक्षण के नाम पर अभी तक कितना संरक्षण कर सके हैं आप?
वे प्रकृति के उपासक हैं, आपने उन्हें प्रकृति के विरुद्ध खड़ा कर दिया है, अपने ही लोगों की हत्या कर देने के लिए प्रेरित किया है, उन्हें शिक्षा से वंचित करने के लिए विद्यालयभवन तोड़ दिये हैं, वहीं आप अपने बच्चों को पढ़ने के लिए पश्चिमी देशों में भेज रहे हैं। यह कैसी क्रांति है जो केवल हिंसा और क्रूरता की दीर्घकालिक नींव पर खड़ी की गयी है, जबकि आदिवासियों को मिला कुछ भी नहीं!
श्रीमान् कामरेड जी! मई २०१३ का वह दिन भी स्मरण कीजिये, जब झीरम घाटी में आपने घात लगाकर महेंद्रकर्मा, नंदकुमार पटेल और विद्याचरण शुक्ल सहित कई नेताओं की नृशंस हत्या ही नहीं की प्रत्युत उनके शवों पर कूद-कूद कर नृत्य किया, शवों को जूतों से ठोकरें मारी और उन पर मूत्रत्याग भी किया। क्या यही आदिवासी संस्कृति है?
परिवर्तन जगत का नियम है, हम उसका स्वागत करते हैं पर हिंसा का नहीं कर सकते।

एक करोड़ का इनामी माड़वी हिड़मा

नायक या खलनायक!

बस्तर का दुर्दांत माओवादी हिड़मा मारा गया। पुलिस व्यवस्था और सजगता के कारण उसकी शवयात्रा में अधिक लोग नहीं आ सके, केवल सोनी सोढ़ी जैसे कुछ समर्थक, निकट संबंधी, ग्रामीण और पत्रकार ही सम्मिलित हो सके। शवयात्रा के साथ रोती हुयी ग्रामीण स्त्रियों को भी देखा गया। जो लोग तर्क देते नहीं थकते कि ग्रामीण नक्सली(माओवादी) नहीं होते, उन्हें अपने तर्क की सत्यता जानने के लिए अबूझमाड़ जाकर कुछ दिन रहना चाहिए।
शवयात्रा में अर्थी पकड़कर चलती हुयी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोढ़ी को भी आक्रोशित होकर पुलिस और सरकार के विरुद्ध वक्तव्य देते देखा गया, जो माओवादियों की समर्थक एवं पुलिसप्रताड़िता मानी जाती है और जेएनयू वालों की विशेषरूप से प्रिय "समाज उद्धारक" है। अंतिम संस्कार के समय सोनी ने हिड़मा के शव पर काले रंग की एक पेंट-शर्ट भी डाली जो सशस्त्रक्रांति की प्रतीक है।

उधर महानगरीय अतिबुद्धिजीवियों और कल्पनाजीवियों के प्रिय नारों के पात्र स्थानापन्न हो गये हैं - "तुम कितने हिड़मा मारोगे, हर घर से हिड़मा निकलेगा"! "इंकलाब जिंदाबाद"! "शहीद हिड़मा अमर रहे"!
बस्तर टाकीज़ चैनल वाले विकास तिवारी सधे शब्दों में प्रश्न करते हैं हिड़मा तो मारा गया पर "कहीं यह विचारधारा फिर तो नहीं आ जायेगी"? तिवारी मानते हैं कि कोई विचारक तो मर सकता है पर विचारधारा कभी नहीं मरती, अनुकूलता पाते ही वह किसी दूसरे कलेवर में पुनः प्रकट होगी ही।
हाँ! सत्य यही है, असुरत्व और देवत्व स्थायी भाव से रहने वाले तत्व हैं जो तमस और तेज के लिए निरंतर संघर्षरत रहते हैं, उनके नाम बदल सकते हैं, संघर्ष और सफलताओं के अनुपात बदल सकते हैं, ...पर अस्तित्व तो रहता ही है। जगत का यही गतिमान सत्य है।

माओवाद! यानी बंदूक की नली से न्याय निकालने का हठ और आश्वासन।
बस्तर से लेकर जेएनयू, जाधवपुर विवि, और यहाँ तक कि टिस (TATA institute of social studies) तक फैली इस डरावनी विचारधारा का गंभीरविश्लेषण बहुत आवश्यक होता जा रहा है।
बस्तर का एक सत्य यह भी है कि हमें प्रायः यह नहीं पता होता कि हमारे आसपास बैठे लोगों में से कौन व्यक्ति माओवादी है! यह जिले का कलेक्टर भी हो सकता है, कोई डॉक्टर, कोई प्रोफेसर, कोई साहित्यकार, कोई सामाजिक कार्यकर्ता या फिर कोई विचारक भी हो सकता है।
यह हम सभी का अनुभव है कि सत्ता तो अवसरवादी होती ही है, हमारा शासनतंत्र भी निरंकुश है, नैतिक और मानवीय मूल्य धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। धूर्त और निर्लज्ज राजनेताओं की दुष्टतायें किसी से छिपी नहीं हैं। ये परिस्थितियाँ किसी भी सशस्त्रविद्रोह की आधारभूमि निर्मित कर सकती हैं। किंतु आज तक के इतिहास में ऐसे कितने विद्रोह अपने लक्ष्य तक पहुँच सके हैं?
भारतीय स्वतंत्रतासंग्राम में भी कितने लोगों ने आत्मोत्सर्ग किया पर सत्ता के नाविक बन गये जवाहरलाल जिनका भारतीयता और सनातन मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं था।
जब अन्याय निरंकुश हो, न्याय न्यायाधीशों के यहाँ ही बंदी हो तो क्रांति सैद्धांतिकरूप से आकर्षित करती है पर उसके भटकने और धूर्तों के हाथों में जाने की भी प्रबल आशंकायें होती हैं।
माओवादी जल-जंगल-जमीन की सुरक्षा की बात करते हैं, की भी जानी चाहिए, पर किस तरह? वे शासन-प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशस्त्रक्रांति की बात करते हैं किंतु स्थानीय व्यापारियों और सरकार से चौथ वसूलना अपना अधिकार मानते हैं।

चलो माना कि सागौन के जंगल सत्ता, प्रशासन और संगठित अपराधियों की भेंट चढ़ गये पर बस्तर के जंगलों से आँवला और चिरौंजी के वृक्ष किसने काट डाले ? आप किस जंगल को बचाने की बात करते हैं? वनवासी गांवों में सरकारी स्वास्थ्यकेंद्रों और विद्यालयों के नवनिर्मित भवन कौन तोड़कर ढहा देता है? अबूझमाड़ में सड़कें क्यों नहीं बनने दी जातीं? दल्लीराजहरा-जगदलपुर रेल लाइन निर्माण का विरोध करने के क्या उद्देश्य हैं?
कौन हैं जो आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का विरोध करते हैं और किस लिए? क्या यह विश्लेषण का विषय नहीं होना चाहिये कि क्यों शीर्ष माओवादियों के बच्चे विदेशों में पढ़ायी करते हैं, और वनवासी "जनताना सरकार" की स्थापना के लिए एक-दूसरे की निर्मम हत्या कर रहे हैं?

भ्रष्टाचार सत्ता में है, समाज में है... और संगठनों में भी है, फिर वह कोई भी संगठन क्यों न हो! इसीलिए कोई निर्दुष्ट शासन व्यवस्था कभी बन नहीं पाती। किसी अच्छी और लोकहितकारी शासन व्यवस्था के लिए सतत सजगता, संघर्ष और निरंतर परिमार्जन की आवश्यकता होती है। हमें माओवाद की प्रतिबद्धतायें समझनी होंगीं और उनके सामाजिक न्याय की व्यावहारिक सीमायें भी।

क्रमशः....