नायक या खलनायक!
बस्तर का दुर्दांत माओवादी हिड़मा मारा गया। उसकी शवयात्रा के साथ रोती हुयी ग्रामीण स्त्रियों, पुरुषों और समर्थकों को देखा गया है। जो लोग तर्क देते नहीं थकते कि ग्रामीण नक्सली(माओवादी) नहीं होते, उन्हें अपने तर्क की सत्यता जानने के लिए अबूझमाड़ जाकर कुछ दिन रहना चाहिए।शवयात्रा में अर्थी पकड़कर चलती हुयी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोढ़ी को भी देखा गया, जो माओवादियों की समर्थक एवं पुलिसपीड़िता मानी जाती है और जेएनयू वालों की विशेषरूप से प्रिय है। सोनी ने शव पर काले रंग की एक पेंट-शर्ट भी डाली जो सशस्त्रक्रांति की प्रतीक है।
उधर महानगरीय अतिबुद्धिजीवियों और कल्पनाजीवियों के प्रिय नारों के पात्र स्थानापन्न हो गये हैं - "तुम कितने हिड़मा मारोगे, हर घर से हिड़मा निकलेगा"! "इंकलाब जिंदाबाद"! "शहीद हिड़मा अमर रहे"!
बस्तर टाकीज़ चैनल वाले विकास तिवारी सधे शब्दों में प्रश्न करते हैं *कहीं यह विचारधारा फिर तो नहीं आ जायेगी*। वे मानते हैं कि कोई विचारक तो मर सकता है पर विचारधारा कभी नहीं मरती, अनुकूलता पाते ही वह किसी दूसरे कलेवर में पुनः प्रकट होगी ही।
माओवाद! यानी बंदूक की नली से न्याय निकालने का हठ और आश्वासन।
बस्तर से लेकर जेएनयू, जाधवपुर विवि, और यहाँ तक कि टिस तक फैली इस डरावनी विचारधारा का विश्लेषण बहुत आवश्यक होता जा रहा है।
बस्तर का एक सत्य यह भी है कि हमें प्रायः यह नहीं पता होता कि हमारे आसपास बैठे लोगों में कौन व्यक्ति माओवादी है! यह जिले का कलेक्टर, कोई डॉक्टर, कोई प्रोफेसर, या कोई साहित्यकार भी हो सकता है।
सत्ता तो अवसरवादी होती ही है, हमारा शासनतंत्र भी निरंकुश है, नैतिक और मानवीय मूल्य धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। ये परिस्थितियाँ किसी भी सशस्त्रविद्रोह की आधारभूमि निर्मित कर सकती हैं। किंतु आज तक के इतिहास में ऐसे कितने विद्रोह अपने लक्ष्य तक पहुँच सके हैं?
भारतीय स्वतंत्रतासंग्राम में भी कितने लोगों ने आत्मोत्सर्ग किया पर सत्ता के नाविक बन गये जवाहरलाल जिनका भारतीयता और सनातन मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं था।
अन्य निरंकुश हो तो क्रांति सैद्धांतिकरूप से आकर्षित करती है पर उसके भटकने और धूर्तों के हाथ में जाने की प्रबल आशंकायें भी होती हैं।
माओवादी जल-जंगल-जमीन की सुरक्षा की बात करते हैं, की भी जानी चाहिए, पर किस तरह? वे शासन-प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशस्त्रक्रांति की बात करते हैं किंतु स्थानीय व्यापारियों और सरकार से चौथ वसूलना अपना अधिकार मानते हैं।
चलो माना कि सागौन के जंगल सत्ता, प्रशासन और संगठित अपराधियों की भेंट चढ़ गये पर बस्तर के जंगलों से आँवला और चिरौंजी के वृक्ष किसने काट डाले ? आप किस जंगल को बचाने की बात करते हैं? वनवासी गांवों में सरकारी स्वास्थ्यकेंद्रों और विद्यालयों के भवन कौन तोड़कर ढहा देता है? सड़कें क्यों नहीं बनने दी जातीं? कौन हैं जो आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का विरोध करते हैं और किस लिए? क्या यह विश्लेषण का विषय नहीं होना चाहिये कि क्यों शीर्ष माओवादियों के बच्चे विदेशों में पढ़ायी करते हैं?
भ्रष्टाचार सत्ता में है, समाज में है... और संगठनों में भी है, फिर वह कोई भी संगठन क्यों न हो! इसीलिए कोई निर्दुष्ट शासन व्यवस्था बन नहीं पाती। किसी अच्छी और लोहितकारी शासन व्यवस्था के लिए सतत सजगता, संघर्ष और निरंतर परिमार्जन की आवश्यकता होती है। हमें माओवाद की प्रतिबद्धतायें समझनी होंगीं और उनके सामाजिक न्याय की व्यावहारिक सीमायें भी।