नायक या खलनायक!
बस्तर का दुर्दांत माओवादी हिड़मा मारा गया। पुलिस व्यवस्था और सजगता के कारण उसकी शवयात्रा में अधिक लोग नहीं आ सके, केवल सोनी सोढ़ी जैसे कुछ समर्थक, निकट संबंधी, ग्रामीण और पत्रकार ही सम्मिलित हो सके। शवयात्रा के साथ रोती हुयी ग्रामीण स्त्रियों को भी देखा गया। जो लोग तर्क देते नहीं थकते कि ग्रामीण नक्सली(माओवादी) नहीं होते, उन्हें अपने तर्क की सत्यता जानने के लिए अबूझमाड़ जाकर कुछ दिन रहना चाहिए।शवयात्रा में अर्थी पकड़कर चलती हुयी सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोढ़ी को भी आक्रोशित होकर पुलिस और सरकार के विरुद्ध वक्तव्य देते देखा गया, जो माओवादियों की समर्थक एवं पुलिसप्रताड़िता मानी जाती है और जेएनयू वालों की विशेषरूप से प्रिय "समाज उद्धारक" है। अंतिम संस्कार के समय सोनी ने हिड़मा के शव पर काले रंग की एक पेंट-शर्ट भी डाली जो सशस्त्रक्रांति की प्रतीक है।
उधर महानगरीय अतिबुद्धिजीवियों और कल्पनाजीवियों के प्रिय नारों के पात्र स्थानापन्न हो गये हैं - "तुम कितने हिड़मा मारोगे, हर घर से हिड़मा निकलेगा"! "इंकलाब जिंदाबाद"! "शहीद हिड़मा अमर रहे"!
बस्तर टाकीज़ चैनल वाले विकास तिवारी सधे शब्दों में प्रश्न करते हैं हिड़मा तो मारा गया पर "कहीं यह विचारधारा फिर तो नहीं आ जायेगी"? तिवारी मानते हैं कि कोई विचारक तो मर सकता है पर विचारधारा कभी नहीं मरती, अनुकूलता पाते ही वह किसी दूसरे कलेवर में पुनः प्रकट होगी ही।
हाँ! सत्य यही है, असुरत्व और देवत्व स्थायी भाव से रहने वाले तत्व हैं जो तमस और तेज के लिए निरंतर संघर्षरत रहते हैं, उनके नाम बदल सकते हैं, संघर्ष और सफलताओं के अनुपात बदल सकते हैं, ...पर अस्तित्व तो रहता ही है। जगत का यही गतिमान सत्य है।
माओवाद! यानी बंदूक की नली से न्याय निकालने का हठ और आश्वासन।
बस्तर से लेकर जेएनयू, जाधवपुर विवि, और यहाँ तक कि टिस (TATA institute of social studies) तक फैली इस डरावनी विचारधारा का गंभीरविश्लेषण बहुत आवश्यक होता जा रहा है।
बस्तर का एक सत्य यह भी है कि हमें प्रायः यह नहीं पता होता कि हमारे आसपास बैठे लोगों में से कौन व्यक्ति माओवादी है! यह जिले का कलेक्टर भी हो सकता है, कोई डॉक्टर, कोई प्रोफेसर, कोई साहित्यकार, कोई सामाजिक कार्यकर्ता या फिर कोई विचारक भी हो सकता है।
यह हम सभी का अनुभव है कि सत्ता तो अवसरवादी होती ही है, हमारा शासनतंत्र भी निरंकुश है, नैतिक और मानवीय मूल्य धीरे-धीरे लुप्त होते जा रहे हैं। धूर्त और निर्लज्ज राजनेताओं की दुष्टतायें किसी से छिपी नहीं हैं। ये परिस्थितियाँ किसी भी सशस्त्रविद्रोह की आधारभूमि निर्मित कर सकती हैं। किंतु आज तक के इतिहास में ऐसे कितने विद्रोह अपने लक्ष्य तक पहुँच सके हैं?
भारतीय स्वतंत्रतासंग्राम में भी कितने लोगों ने आत्मोत्सर्ग किया पर सत्ता के नाविक बन गये जवाहरलाल जिनका भारतीयता और सनातन मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं था।
जब अन्याय निरंकुश हो, न्याय न्यायाधीशों के यहाँ ही बंदी हो तो क्रांति सैद्धांतिकरूप से आकर्षित करती है पर उसके भटकने और धूर्तों के हाथों में जाने की भी प्रबल आशंकायें होती हैं।
माओवादी जल-जंगल-जमीन की सुरक्षा की बात करते हैं, की भी जानी चाहिए, पर किस तरह? वे शासन-प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध सशस्त्रक्रांति की बात करते हैं किंतु स्थानीय व्यापारियों और सरकार से चौथ वसूलना अपना अधिकार मानते हैं।
चलो माना कि सागौन के जंगल सत्ता, प्रशासन और संगठित अपराधियों की भेंट चढ़ गये पर बस्तर के जंगलों से आँवला और चिरौंजी के वृक्ष किसने काट डाले ? आप किस जंगल को बचाने की बात करते हैं? वनवासी गांवों में सरकारी स्वास्थ्यकेंद्रों और विद्यालयों के नवनिर्मित भवन कौन तोड़कर ढहा देता है? अबूझमाड़ में सड़कें क्यों नहीं बनने दी जातीं? दल्लीराजहरा-जगदलपुर रेल लाइन निर्माण का विरोध करने के क्या उद्देश्य हैं?
कौन हैं जो आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का विरोध करते हैं और किस लिए? क्या यह विश्लेषण का विषय नहीं होना चाहिये कि क्यों शीर्ष माओवादियों के बच्चे विदेशों में पढ़ायी करते हैं, और वनवासी "जनताना सरकार" की स्थापना के लिए एक-दूसरे की निर्मम हत्या कर रहे हैं?
भ्रष्टाचार सत्ता में है, समाज में है... और संगठनों में भी है, फिर वह कोई भी संगठन क्यों न हो! इसीलिए कोई निर्दुष्ट शासन व्यवस्था कभी बन नहीं पाती। किसी अच्छी और लोकहितकारी शासन व्यवस्था के लिए सतत सजगता, संघर्ष और निरंतर परिमार्जन की आवश्यकता होती है। हमें माओवाद की प्रतिबद्धतायें समझनी होंगीं और उनके सामाजिक न्याय की व्यावहारिक सीमायें भी।
क्रमशः....
कौन हैं जो आधारभूत संरचनाओं के निर्माण का विरोध करते हैं और किस लिए? क्या यह विश्लेषण का विषय नहीं होना चाहिये कि क्यों शीर्ष माओवादियों के बच्चे विदेशों में पढ़ायी करते हैं, और वनवासी "जनताना सरकार" की स्थापना के लिए एक-दूसरे की निर्मम हत्या कर रहे हैं?
भ्रष्टाचार सत्ता में है, समाज में है... और संगठनों में भी है, फिर वह कोई भी संगठन क्यों न हो! इसीलिए कोई निर्दुष्ट शासन व्यवस्था कभी बन नहीं पाती। किसी अच्छी और लोकहितकारी शासन व्यवस्था के लिए सतत सजगता, संघर्ष और निरंतर परिमार्जन की आवश्यकता होती है। हमें माओवाद की प्रतिबद्धतायें समझनी होंगीं और उनके सामाजिक न्याय की व्यावहारिक सीमायें भी।
क्रमशः....
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