गुरुवार, 4 दिसंबर 2025

अबोधों का वैचारिक बालविवाह

(...पिछले अंक से निरंतर)

उग्रमाओवादियों की काल्पनिक "जनताना-सरकार" में वैचारिक बाल-विवाह को प्राथमिकता दी जाती रही है क्योंकि यह अपेक्षाकृत सुविधाजनक है, परिपक्व युवकों का वैचारिक प्रक्षालन सरल नहीं होता।
अबूझमाड़ के दुर्गम वनों में मांडवी हिड़मा जैसे कई किशोरों और किशोरियों का उग्र-माओवाद से वैचारिक बालविवाह किया जाता रहा है जिस पर न तो मानवाधिकारवादियों ने कभी कोई चिंता प्रकट की और न कभी कोई अतिबुद्धिजीवी व्यथित हुआ। पाँचवी कक्षा तक शिक्षित परवर्ती गाँव के हिड़मा को मात्र सत्रह की आयु में कार्लमार्क्स, हेगल, माओ, लेनिन और स्टालिन की विचारधारा समझ में आ गयी थी! साम्यवाद, पूँजीवाद और बुर्जुआ जैसे शब्दों के अर्थ भी समझ में आ गये थे ! यह भी समझ में आ गया था कि न्याय और अधिकार बंदूक की नली से ही उत्सर्जित होते हैं जिन्हें पाने के लिए गुरिल्ला युद्ध के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। यह भी समझ में आ गया था कि विकास के लिए आधारभूत संरचनाओं के निर्माण की कोई आवश्यकता नहीं इसलिए उन्हें तोड़ कर नष्ट कर दिया जाना चाहिए, ...और यह भी कि देश के विधान को अस्वीकार कर रक्तपात करना ही प्रगतिशीलता और न्याय की उपलब्धता है।
सत्रह वर्ष की आयु में हिड़मा अपना घर-परिवार त्यागकर माओवादी संगठन का सक्रिय सदस्य बन गया, फिर एक-एक चरण आगे बढ़ते हुये वह संगठन के उच्च पद तक भी पहुँच गया।
इसी तरह कक्षा चार तक शिक्षित राजे ने भी मात्र दस वर्ष की आयु में ही माओवादी संगठन को गले लगा लिया था जो बाद में हिड़मा की सहचरी भी बनी।
बस्तर की पृष्ठभूमि में पले-बढ़े किशोर देश के बारे में भले ही न जानते हों पर वे माओवाद की गूढ़ता को जान जाते हैं। यह अद्भुत है... और अविश्वसनीय भी, पर बुद्धि के वैचारिक प्रक्षालन से सब कुछ संभव है।
प्रिय हिड़मा प्रेमियो! एक बार तो अबूझमाड़ आइये, वनवासी जीवन को समीप से देखिये...और कर सको तो उसे अनुभव भी कीजिये।
क्या यह सत्य नहीं है कि शोषण और भ्रष्टाचार हमारे सबसे प्रिय शत्रु हैं जिनका परित्याग आप भी नहीं करना चाहते। जल-जंगल-जमीन पर वनवासियों का नैसर्गिक अधिकार था, है और रहेगा पर उसके लिए क्या कोई शासन व्यवस्था नहीं होनी चाहिए? तुम्हारे नारे वनवासियों को लुभाते हैं, उनका भला नहीं करते। आदिवासीसंस्कृति संरक्षण के नाम पर अभी तक कितना संरक्षण कर सके हैं आप?
वे प्रकृति के उपासक हैं, आपने उन्हें प्रकृति के विरुद्ध खड़ा कर दिया है, अपने ही लोगों की हत्या कर देने के लिए प्रेरित किया है, उन्हें शिक्षा से वंचित करने के लिए विद्यालयभवन तोड़ दिये हैं, वहीं आप अपने बच्चों को पढ़ने के लिए पश्चिमी देशों में भेज रहे हैं। यह कैसी क्रांति है जो केवल हिंसा और क्रूरता की दीर्घकालिक नींव पर खड़ी की गयी है, जबकि आदिवासियों को मिला कुछ भी नहीं!
श्रीमान् कामरेड जी! मई २०१३ का वह दिन भी स्मरण कीजिये, जब झीरम घाटी में आपने घात लगाकर महेंद्रकर्मा, नंदकुमार पटेल और विद्याचरण शुक्ल सहित कई नेताओं की नृशंस हत्या ही नहीं की प्रत्युत उनके शवों पर कूद-कूद कर नृत्य किया, शवों को जूतों से ठोकरें मारी और उन पर मूत्रत्याग भी किया। क्या यही आदिवासी संस्कृति है?
परिवर्तन जगत का नियम है, हम उसका स्वागत करते हैं पर हिंसा का नहीं कर सकते।

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