रविवार, 13 जुलाई 2025

दो कवितायें समसामयिक

 १. पहचान-क्रांति


सावन के महीने में
शिवमंदिर के सामने दमोह में
मांस की दुकान खोलने का विरोध करने पर
कार से कुचल कर मार डाला
अकील ने राकेश को ।

सावन के महीने में
दुकानदार ने
फलों के रस में थूका 
फिर ग्राहक को दे दिया ।

सावन के महीने में
हिंदू देवी-देवताओं के नाम पर खोले
उन्होंने अपने ढाबे
छिपाकर अपनी पहचान
बाँधकर हाथ में कलावा
लगाकर माथे पर तिलक
....यही तो अल-तकिया है
जो तुम्हें भोगना ही होगा ।

सावन के महीने में
योगी बाबा ने कहा
उजागर करनी होगी
अपनी सही पहचान
सुनकर
कूद पड़े धर्मनिरपेक्षवादी
कहने लगे
बाबा स्वतंत्रता का शत्रु है
समाज को बाँटता है
भाईचारे को समाप्त करता है
बाबा हटाओ, हमें मुख्यमंत्री वनाओ ! 

२.
छुआछूत-क्रांति

वरदान को अभिषाप मान बैठे
और अभिषाप को वरदान 
तुमने ब्राह्मणों को कोसा
मनुस्मृति को जलाया
सनातन धर्म को गालियाँ दीं
...कि इन्होंने बाँट दिया समाज ।
तुमने एक क्रांतिपथ बनाया
छुआछूत मिटाया ।
जो लोटा-डोर लेकर चला करते थे
सत्तू भी घर से ले जाया करते थे 
वे होटेल में भोजन करने लगे
जन्मदिन पर
एक-दूसरे का जूठा केक खाने लगे
एक साथ बैठने-सोने लगे
छुआछूत मिट गया
पर समाज में द्वेष बढ़ता ही रहा
संक्रामक रोग भी बढ़ते ही गये ।
लोग आधुनिक हो गये थे
इसलिये हर बात की उपेक्षा करते रहे 
फिर एक दिन आया कोरोना
उसने सिखाया
जीना है
तो एक-दूसरे से छह हाथ दूर रहो
होटेल से दूर रहो
बाजार के भोजन से दूर रहो
और
सबसे बड़ी सीख यह, कि
छुआछूत को सम्मान देते चलो ।

कोरोना की सीख सबने मानी
उन सामाजिक क्रांतिकारियों ने भी
जो नहीं मानते थे कुछ भी ।
फिर एक दिन कोरोना चला गया
हमने भी उसकी सीख को भुला दिया
अब एक बार फिर
आ गये कुछ लोग
देने हमें नयी सीख
बेचते हुये थूकभावित 
खाद्य-पेय पदार्थ ।
तुम उनका विरोध करते हो
कोरोना का विरोध क्यों नहीं किया ?
शल्यकक्ष में कभी
ओटी कल्चर का विरोध क्यों नहीं किया ?
हम जानते हैं
तुम नहीं सुधरोगे 
जब तक कोड़ा न पड़े कोरोना का
तुम आधुनिक बने रहोगे
पत्थर से सिर टकराते रहोगे  ।

आओ! पुरानी पगडंडियाँ खोजें
उन्हें फिर से व्यवहारयोग्य बनायें ।

शनिवार, 12 जुलाई 2025

प्रगतिशीलता

बौद्धिक मोलस्काओ !

आओ, पट खोलो, बाहर झाँको

धूप को अत्याचारी कहकर

कब तक छिपे रहोगे 

अँधेरों के गले

कब तक चिपके रहोगे

दुनिया मार्क्स से पहले भी थी

आज भी है, आगे भी रहेगी ।

आज कार्ल मार्क्स नहीं हैं,

उनके गुरु फ़्रेडरिक हेगेल नहीं हैं

लेनिन, स्टालिन और माओजेदांग भी नहीं हैं

पर तुम हो, हम हैं ...और हैं ऊबड़-खाबड़ पथ ।

दशरथ माँझी ने चीर कर पर्वत का वक्ष

बना दिया सुपथ

और मड़ियम हिड़मा ने

ले लिये प्राण

न जाने कितने निर्दोषों के

यह कैसी प्रगतिशीलता है!

यह कैसी क्रांति है!

जो पथ नहीं बनाती, बस प्राण लेती है । 

 

स्वतंत्रता कितनी स्वतंत्र

             स्वतंत्रता जब देश की शांति और सर्वहारा की प्रगति के लिये बाधक बन जाय तो ऐसी स्वतंत्रता पर कठोर अंकुश की आवश्यकता होती है अन्यथा उसके कारण होने वाले विप्लव और विध्वंस को रोका नहीं जा सकता । इसकी गम्भीरता को रेखांकित करता यह कथन विचारणीय है –

“अभिव्यक्ति को मर्यादित और अनुशासित होना ही चाहिये, स्वतंत्रता की रक्षा के लिये इन स्थितियों का होना अपरिहार्य है अन्यथा निरंकुश और स्वेच्छाचारी अभिव्यक्ति सुव्यवस्था और शांति के लिये अभिषाप हो जाती है । सत्ता और उसके तंत्र को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि नागरिकों की शांति भंग न हो और समाज बहुमुखी विकास की ओर निर्बाध अग्रसर होता रहे” । – मोतीहारी वाले मिसिर जी

प्रेम, छल और राक्षस

कुर्बानी के लिये लाये गये पशु से किये जाने वाले पारम्परिक प्रेम में कितना प्रेम है और कितना छल, यह जानना उस मानसिकता को समझने के लिये आवश्यक है जो उन्हें भारत से तो प्रेम करने के लिए प्रेरित करता है पर भारत माता की जय बोलने और भारतीय संस्कृति को धर्मविरुद्ध मानता है । यह वही मानसिकता है जो दुनिया भर में लूट-पाट, राज्यारोहण, अनधिकृत भूविस्तार और अतिक्रमण के लिये कुख्यात रही है । जिनके लिये संविधान से ऊपर अपने पंथिक विचार और भारत से ऊपर फ़िलिस्तीन एवं पाकिस्तान हैं, वे भारत के लिये कितना उत्सर्ग कर सकेंगे इसका अनुमान लगा सकना कठिन नहीं है ।

किसी के समीप आने के दो उद्देश्य हो सकते हैं – एक है भौतिक उपभोगिता का लक्ष्य और दूसरा है उत्सर्गमूलक प्रेम ।

शक, हूण, यवन से लेकर फिरंगियों और फिर तुर्कों, अरबों और मंगोलों तक हर कोई भारत के समीप आया, उनका लक्ष्य भारत से प्रेम करना नहीं प्रत्युत भारत की सम्पदा का उपभोग करना था । आज जो लोग प्रगतिवाद, धर्मनिरपेक्षता और आधुनिकता की आड़ में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों और सभ्यता पर निरंतर प्रहार पर प्रहार करते जा रहे हैं वे भारत से कितना प्रेम करते हैं इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है । वास्तव में ये लोग उन तुर्कों, मंगोलों और यूरोपियंस से भी अधिक घातक और छली हैं जिन्होंने हमें पराधीन किया । वे सब शत्रु के रूप में आये, मित्र के रूप में नहीं । उन्होंने छल से आक्रमण तो किये पर मित्रता और प्रेम के मिथ्या प्रदर्शन नहीं किये । 

माइक लेकर चीखने वाले जो अतिबुद्धिजीवी और नेता भारतीय संस्कृति और सभ्यता का विरोध करते नहीं थकते और अरबी सभ्यता एवं चीनी सत्ता के प्रशंसक हैं वे भारत से कितना प्रेम कर सकते हैं, विचार करके देखियेगा ।

राक्षस के लक्षण – बहुलता (संख्यावृद्धि में क्षिप्रता एवं दक्षता), क्षिप्र उपस्थिति, रक्त एवं मांसप्रियता, रूपपरिवर्तन की क्षमता (Mutation), आक्रामकता, अवसरवादिता, विखण्डन (Division), विघटन (Disintegration), अंधकार प्रियता और छिपने में दक्षता आदि लक्षणों से राक्षस को पहचाना जा सकता है । इनमें विषाणु, जीवाणु, फंगस और रावण से लेकर हर विध्वंसक जीव को सम्मिलित किया जा सकता है ...तदैव पहचान होते ही उनसे अपनी अपनी सुरक्षा का उपाय भी कर लेना चाहिये ।

शनिवार, 14 जून 2025

आज की चौपाल चर्चा

पहलगाम आतंकवाद के विरुद्ध भारत की सैन्यकार्यवाही सिंदूर के बाद तुर्किए का पाकिस्तान को खुला समर्थन, भारत सरकार द्वारा तुर्की की कंपनी को भारत में विमान रखरखाव के अनुबंध को समाप्त कर देना, तुर्की की कंपनी के पक्ष में सरकारी आदेश के विरुद्ध मुंबई उच्चन्यायालय के निर्णय, अहमदाबाद में विमान दुर्घटना से ठीक पूर्व उसी कंपनी के कर्मचारियों द्वारा षड्यंत्रपूर्वक विमान की ईंधन प्रणाली को बंद कर देने की आशंका, विमान के पायलट द्वारा भेज गए संदेश का कोई प्रत्युत्तर न देने के साथ ही मुंबई उच्चन्यायालय के न्यायमूर्ति का वामपंथी इतिहास इस दुर्घटना के बारे में बहुत कुछ कहता है । इन सारी कड़ियों को आपस में जोड़ देने से कुछ बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि

-           भारत के अंदर रहने वाले भारत के शत्रुओं की स्थिति बहुत प्रबल और प्रभावी है,

-           नेताओं, पत्रकारों, वकीलों और सेक्युलर चिंतकों को ही नहीं, न्यायमूर्तियों को भी भारत के विरुद्ध षड्यंत्रों में सम्मिलित करने में भारतविरोधियों को हर बार सफलता मिल जाना सरकार की पंगुता, विवशता, निर्बलता और कुव्यवस्था की ओर संकेत करता है,

-           भारत में सरकारों से अधिक शक्तिशाली, निरंकुश और स्वेच्छाचारी वह कोलेजियम व्यवस्था है जो सरकारों की असहमति और विरोध के बाद भी अयोग्य न्यायमूर्तियों की नियुक्तियाँ करने के लिये अपनी हठधर्मिता का पालन करती है,

-           तुर्किये की कम्पनी सेलेबी और एयर इंडिया के बीच हुये पूर्व अनुबंध को समाप्त करने के सरकार के निर्णय के विरुद्ध सेलेबी के पक्ष में निर्णय देने वाले न्यायमूर्ति सोमशेखर सुंदरसन की नियुक्ति का भी सरकार द्वारा विरोध किया गया था पर कोलेजियम प्रणाली की हठधर्मिता के आगे सरकार को झुकना पड़ा और सोमशेखर की नियुक्ति को स्वीकार करना पड़ा था ।

 

*भविष्यवाणी, पूर्वसूचना और धमकी* 

 

एक्स, इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक जैसे सामाजिक सूचना माध्यमों पर सक्रिय रहने वाले पटना निवासी वकील और पत्रकार *मोदस्सिर महमूद मुगल* के एक्स मंच पर अहमदावाद हवाई दुर्घटना से दो दिन पूर्व लोगों ने पढ़ा – *एक दो दिन में कुछ बड़ा हादसा होने वाला है जैसे कोई प्लेन हादसा, किसी राजनेता की हृदयविदारक मौत!*

हवाई दुर्घटना के बाद सूचना माध्यमों पर लोगों ने मोदस्सिर महमूद मुगल पर विधिक कार्यवाही करने की माँग की तो सेक्युलर चिंतक, फ़ैक्ट-चेकर्स और महमूद के समर्थक उसके बचाव में कूद पड़े । किसी ने कहा कि यह भविष्यवाणी तो किसी ज्योतिषी ने की थी इससे मुदस्सिर का नाम जोड़ना ठीक नहीं । किसी ने कहा कि मोदस्सिर ने “पाकिस्तान से आने वाली गर्म हवाओं में ग़ुरबत” की अनुभूति के बारे में टिप्पणी की थी जिसे किसी ने सम्पादित करके दुर्घटना की पूर्वसूचना में परिवर्तित कर दिया । कुल मिलाकर अपने नाम के साथ मुगल की पहचान जोड़ने वाला मोदस्सिर महमूद देशभक्त है इसलिये उस पर किसी विधिक कार्यवाही की कोई आवश्यकता नहीं है ।

ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी – “भारत सहित विश्व के कई देशों में हवाई दुर्घटनाओं की आशंकायें हैं”।

मुगल ने धमकी दी थी – “एक दो दिन में कुछ बड़ा हादसा होने वाला है जैसे कोई प्लेन हादसा, किसी राजनेता की हृदयविदारक मौत!”

 

वामपंथियो! भविष्यवाणी, पूर्वसूचना और धमकी की भाषा के अंतर को हम समझते हैं ।

 

मुस्लिमेतर समुदायों को अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये अपने आप से यह पूछना ही होगा कि –  

 

-       भारत की सनातन व्यवस्था के समर्थक हिंदुओं एवं मुसलमानों को एक मंच आने पर और इस्लामिक व्यवस्था के समर्थक हिंदुओं एवं मुसलमानों को एक दूसरे मंच पर जाने की आवश्यकता को स्वीकार करने में क्या अवरोध है?

-       यदि कोई अवरोध है तो क्या पाकिस्तान बनाने का औचित्य ही समाप्त नहीं हो जाता ?

-       भारत के इस अन्यायपूर्ण विभाजन को किसने और क्यों स्वीकार किया ?

-       वे कौन लोग थे जिन्होंने धार्मिक आधार पर हुये विभाजन के बाद भी पूर्ण विभाजन नहीं होने दिया और पाकिस्तान के समर्थन में मतदान करने वाले लोग विभाजन के बाद भी पाकिस्तान न जाकर भारत में ही बने रहे ?

-       पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे मुस्लिमबहुल देशों के मुस्लिम नागरिक अपना देश छोड़कर दूसरे अ-मुस्लिम देशों में शरण लेने के लिये क्यों लालायित रहते हैं ?

-       कोई मुस्लिम देश दूसरे देश से आये हुये मुसलमानों को शरण क्यों नहीं देना चाहता ?

-       किसी अ-मुस्लिम देश में शरण पाये मुसलमान कुछ समय बाद उस देश की व्यवस्था और विधि को बदलकर शरीया लागू करने के लिये हिंसा पर क्यों उतारू हो जाते हैं और क्यों यूरोपीय देशों की सरकारें भी शरणार्थियों के सामने पंगु हो जाया करती हैं?

 

*ब्रिटेन में ऐतिहासिक यौनशोषण*

ब्रिटेन में पाकिस्तान –

 

भारत में तो अजमेर-काँड जैसी घटनायें हो जाया करती हैं पर ब्रिटेन की चमक-दमक में सब कुछ चमकीला ही नहीं होता । रोचडेल का ग्रूमिंग-कांड वहाँ के उस ऐतिहासिक यौनशोषण को उजागर करता है जिसमें पाकिस्तानी मूल के ब्रिटिश नागरिकों द्वारा अवयस्क लड़कियों का वर्षों तक यौनशोषण किया जाता रहा । पीड़िताओं में वे किशोरियाँ ही अधिक हैं जो निर्धन या निर्बल पारिवारिक एवं सामाजिक पृष्ठभूमि से सम्बंधित हैं । पश्चिमी देशों में परिवार की संरचना भारत जैसी नहीं होती, सबकुछ शिथिल और बिखरा-बिखरा सा होता है । दुर्भाग्य से हम भारतीय भी अपनी समृद्ध और सुलझी हुयी विवाह एवं परिवार संरचना की परम्परा को छोड़कर आज पश्चिमी समाज की राह पर चल पड़े हैं, इसलिये हमें भी पश्चिमी देशों जैसी पारिवारिक शिथिलताओं, यौनशोषण और ड्रग्स की घटनाओं में फ़ँसते अपने नौनिहालों को देखने के लिये तैयार रहना चाहिये । 

नस्लीय तनाव से भय –

प्रशासनिक और सामाजिक दृष्टि से हताश करने वाली एक बहुत बुरी बात यह है कि ब्रिटेन की पुलिस और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा वर्षों तक इन अपराधों की अनदेखी की जाती रही, उन्हें डर था कि अपराधियों की पाकिस्तानी मूल की पहचान उजागर करने से स्थानीय लोगों में नस्लीय तनाव बढ़ सकता है । क्या किसी देश को विदेशीमूल के प्रवासियों से इतना भयभीत होने की आवश्यकता है कि वह न्याय-व्यवस्था की ही उपेक्षा करने लग जाय ? यही प्रश्न भारत के संदर्भ में भी खड़ा होता है जहाँ बांग्लादेशियों, रोहिंग्यायों और पाकिस्तानी मुसलमानों के आगे भारत की शासनिक-प्रशासनिक व्यवस्थायें पानी भरती दिखायी देती हैं । मनुष्यता और नैतिक मूल्यों के स्तर पर पूरी दुनिया के विचारकों को ऐसे भय के विरुद्ध एक मंच पर आने की आवश्यकता है । मानवसभ्यता को बचाने के लिये भौगोलिक एवं राजनीतिक सीमाओं से उठकर सत्य के साथ सामने आना ही होगा ।

रोचडेल की एक पूर्व पुलिस अधिकारी और सचेतक मैगी ओलिवर ने पुलिस की जाँच प्रक्रिया पर प्रश्न खड़े किये और दृढ़तापूर्वक कहा कि अधिकारियों ने पीड़ितों की अनदेखी की और अपराधियों को बचाने के प्रयास किये । भारत में भी यही होता है, जहाँ अपराधियों के पक्ष में अधिकारियों, मध्यस्थों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, विचारकों, राजनीतिज्ञों, सम्प्रदाय-विशेषज्ञों, वकीलों और न्यायमूर्तियों की एक विशाल सेना खड़ी दिखायी देती है । भारत में अवैध घुसपैठियों के कूट आधारपत्र, ड्राइविंग लाइसेंस और राशनकार्ड आदि अभिलेख तैयार करने वाले लोग कौन हैं ?

वर्ष २०२४ में रोथरहम के ग्रूमिंग कांड में १४०० किशोरियों का यौनशोषण हुआ । प्रोफ़ेसर एलेक्सिस ने बताया कि पुलिस और सामाजिक कार्यकर्ता पीड़ितों को “वेश्या” या “जीवनशैली की पसंद” के रूप में देखते थे, जिसके कारण उनकी शिकायतों को गम्भीरता से नहीं लिया गया ।

 

ऑपरेशन लिटन –

वर्ष २०१५ में ग्रेटर मैनचेस्टर पुलिस ने अवस्यस्क बच्चियों और किशोरियों के यौनशोषण की जाँच की और ३७ लोगों पर आरोप लगाये । आरोपियों की जातीयता (नस्ल) की बात सामने आते ही ब्रिटेन में जातीयता (नस्ल) और अपराध के बीच के सम्बंधों पर एक तीखा वाद-विवाद होने लगा है । राष्ट्रीय पुलिस प्रमुख परिषद (NPPC) के २०२४ के आँकड़ों के अनुसार ग्रूमिंग-गैंग के सदस्यों में ब्रिटिश पाकिस्तानी मूल के लोग अनुपात से अधिक पाये गये । यद्यपि संलिप्तता की दृष्टि से यौनशोषण के कुल अपराधों में ८८% अपराधी श्वेत-ब्रिटिश और मात्र २% ही पाकिस्तानमूल के नागरिक थे, किंतु रोचडेल, रोथरहम और एलफ़ोर्ड जैसे नगरों में हुये उच्च और कुलीन वर्ग में यौनशोषण की घटनाओं में पाकिस्तानीमूल के अपराधियों की अधिकता ने इसे राजनीतिक और सामाजिक रूप से संवेदनशील बना दिया है ।

कुछ राष्ट्रवादी राजनेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसे नस्लीय रंग देने के प्रयास किये हैं जिसे कई सेक्युलर और वामपंथी विचारक ख़तरनाक मानते हैं । जबकि कुछ लोग मानते हैं कि यह अपराध नस्ल से अधिक वर्ग और लैंगिक-भेदभाव से जुड़ा हुआ है क्योंकि पीड़ितायें निर्धन और निर्बल पृष्ठभूमि से थीं ।

यौनशोषण जैसे जघन्य अपराध के प्रति विचारकों के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से उनके उद्देश्यों और इस आपराधिक समस्या के समाधान के प्रति उनकी गम्भीरता का अनुमान लगाया जा सकता है, ठीक उसी तरह जैसे “लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाया करती है”।

मंगलवार, 10 जून 2025

दहेज का स्कूटर

सरकारी नौकरी मिलते ही संदीप के विवाह के लिये अचानक प्रस्ताव आने लगे तो पंडित रामदीन की प्रसन्नता का कोई पारावार न रहा । इसके ठीक विपरीत उनका बेटा संदीप प्रसन्न होने के स्थान पर उदास-उदास रहने लगा । जब भी वह अकेला होता तो एक ही बात सोचने लगता - सरकारी नौकरी के सामने मैं कितना बौना और तुच्छ हूँ । यह मेरा नहीं, मेरी नौकरी का मूल्यांकन है ।

जसवंतपुर के बी.एससी. पास संदीप एक निजी स्कूल में शिक्षक थे, जहाँ वेतन इतना कम मिला करता कि उतने में किसी न्यूनतम सदस्यों वाले परिवार का भरण-पोषण भी सम्भव नहीं था । इसी कारण उसके विवाह के लिये कभी कोई प्रस्ताव आया ही नहीं । हर किसी को सरकारी नौकरी वाला ही दुलहा चाहिये था ।

जब भरतपुर तहसील में चपरासी के लिये विज्ञापन निकला तो संदीप के घर का तापमान बढ़ गया । सब चाहते थे कि वह सरकारी नौकरी के लिये आवेदन करे । बड़े-बूढ़ों का मान रखने के लिये बी.एससी. पास युवक को चपरासी की नौकरी का आवेदन देने के लिये अपनी आत्मा को मार देना पड़ा । सच पूछो तो उस पर उदासी के घनघोर बादल तो उसी दिन से छाये हुये थे ।

तहसील में नौकरी लगते ही राजस्थान से लेकर उत्तरप्रदेश तक विवाहयोग्य कन्याओं के घरों में संदीप की चर्चायें होने लगीं । संदीप के घर वर-दिखुवा आने लगे और एक दिन आरा जिला की एक सुयोग्य कन्या के साथ संदीप कुमार तिवारी को टाँक दिया गया ।

पंडित रामदीन थोड़े सैद्धांतिक व्यक्ति थे, इसलिये दहेज माँगने के विरुद्ध थे, पर जब वधु के पिता ने स्वेच्छा से बजाज स्कूटर की चाबी वर के हाथ में थमा दी तो घर के बड़े-बूढ़ों ने इसे “हरि इच्छा” मानकर स्वीकार कर लिया । इस तरह तिवारी परिवार के लोगों ने पहली बार अपने दरवाजे पर एक स्कूटर को शोभायमान होते हुये देखा ।

दहेज का स्कूटर पाकर संदीप और भी उदास हो गया । उसके सामने दो गम्भीर समस्यायें थीं, पहली यह कि उसे स्कूटर चलाना नहीं आता था और इस आयु में वह ड्राइविंग सीखने के लिये तनिक भी उत्साहित नहीं था । दूसरी समस्या थी स्कूटर को जसवंतपुर से लेकर भरतपुर तक जाना ।

नई-नवेली पत्नी ने धीरे से प्रस्ताव रखा – “मुझे स्कूटर चलाना आता है, आपके साथ मैं लेकर चलूँ भरतपुर तक!”

संदीप ने ठीक कांग्रेस नेता उदित राज जैसा मुँह बनाकर पत्नी की ओर केवल देखा, कहा कुछ नहीं । पत्नी घबराकर चुप हो गयी । उदित राज के मुँह पर स्थायी भाव से रहने वाले घने बादलों में से किसी पत्रकार के लिये कुछ निकाल पाना दुष्कर होता है, यह तो अच्छा है कि नेताजी स्थायीभाव से अपने मस्तिष्क में बसा चुके आरोपों-प्रत्यारोपों और रोष को प्रकट करने के लिये सदा कटिबद्ध रहा करते हैं ।

अंत में हुआ यह कि संदीप चपरासी बिना स्कूटर के ही भरतपुर चले गये, नवेली पत्नी को उसका भाई विदा करवाकर आरा ले गया, और स्कूटर ने जसवंतपुर में “सार्वजनिक-वाहन” का पद प्राप्त किया ।

संदीप के चाचाओं और ताउओं के पुत्रगण स्कूटर का तीन साल तक तो जी भर उपभोग करते रहे पर सही देखभाल और सर्विसिंग के अभाव में स्कूटर ने एक दिन घुटने टेक दिये, ..ठीक वैसे ही जैसे ओवरलोडेड बैलगाड़ी को खींचने वाले बैल चढ़ाई आने पर घुटमों के बल बैठ जाया करते हैं ।

सालभर तक तो स्कूटर घर में खड़ा रहा फिर एक दिन पंडित रामदीन ने असमय ही वृद्ध हो चले स्कूटर को किसी तरह मैकेनिक के यहाँ पहुँचवा दिया । महीने भर बाद भी जब पंडित जी ने स्कूटर की सुध नहीं ली तो मैकेनिक ने संदेशा भिजवाया कि छह हजार देकर अपना स्कूटर ले जाओ ।

पंडित जी के पास इतने रुपये नहीं थे, बेटे से कैसे कहते! स्कूटर मैकेनिक के यहाँ ही खड़ा रहा । एक दिन जसवंतपुर के लोगों ने पंडित जी को बताया कि मैकेनिक ने उनका स्कूटर छह हजार में किसी को बेच दिया ।

आरा वाली बहुरिया ने सुना तो आकाश-पाताल एक कर दिया । दहेज का स्कूटर, न तो पाने वाले ने उपभोग किया और न उसकी पत्नी ने । किसी पत्नी के लिये इससे अधिक गहन दुःख की बात और क्या हो सकती थी! बात बड़े-बूढ़ों तक और फिर आरा तक पहुँची । आरा से उपाध्याय जी आये, घरेलू पंचायत बैठायी गयी । निर्णय हुआ कि तिवारी जी बहू को एक नया स्कूटर ख़रीदकर देंगे ।

सदा से विपन्न रहे तिवारी जी इतने पैसे कहाँ से लाते भला!

संदीप ने अपने दायित्व को समझा, पंचायत के निर्णय का सम्मान किया और खिन्न मन से एक नया स्कूटर खरीदने के लिये पिता जी को तुरंत पैसे थमा दिये । तिवारी जी ने भी नोटों की गड्डी तुरंत बहू के आगे बढ़ाकर स्त्रीधन के भार से मुक्ति पाते हुये कहा - अपनी रुचि का स्कूटर ले लेना”। बहू ने संतोष की साँस ली और रुपये लेकर रख लिये ।

आरा वाली बहू को पता था कि संदीप अपने पद को लेकर हीनभावना से ग्रस्त है और स्कूटर का उपभोग नहीं करेगा । व्यवहारकुशल बहू ने पूरे पैसे अपने पिता को थमा दिये ।

*  *  *  

मैकेनिक के यहाँ से छह हजार में स्कूटर ख़रीदकर शिवराम वाजपेयी प्रसन्न थे । पर यह प्रसन्नता अधिक समय तक नहीं रही । दहेज का स्कूटर यहाँ भी अपने रंग-ढंग दिखाने लगा । कुछ दिन जैसे-तैसे स्कूटर चलाने के बाद वाजपेयी जी ने भी उससे मुक्ति पाने में ही अपनी भलाई समझी । उन्हें ग्राहक खोजने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, पर अंततः दो हजार में एक ग्राहक पटा ही लिया ।

दहेज का स्कूटर काम वाली बाई की तरह एक घर से दूसरे-तीसरे-चौथे... घर में सुशोभित होता रहा । इस बीच रंग-रोगन कर उसके सौंदर्यीकरण का भी प्रयास किया गया पर स्कूटर को सद्गति नहीं मिल सकी ।

एक दिन वाजपेयी जी पास के एक गाँव में किसी काम से गये हुये थे । रास्ते में उन्होंने देखा, घुरऊ चौधरी एक जुगाड़ में गोबर की खाद लेकर खेतों की ओर जा रहे हैं । वाजपेयी जी को देखते ही चौधरी ने जुगाड़ रोक कर पायलागन किया । बात होने लगी तो होते-होते वाजपेयी ने पूछ दिया – “यह जुगाड़ कहाँ से लिया?”

चौधरी ने बताया – “लिया नहीं, बनवाया है । हरीराम कहीं से एक पुराना स्कूटर लाये थे । कुछ दिन पहले ही मैंने उनसे डेढ़ हजार में लेकर मैकेनिक के यहाँ से यह जुगाड़ बनवा लिया । इंजन पुराना है पर खेती-किसानी का काम चल जाता है”।

“पुराना स्कूटर” सुनते ही वाजपेयी के कान खड़े हुये । उन्होंने फ़्लेश-बैक में खँगालना प्रारम्भ किया तो पता चला कि यह तो वही दहेज वाला स्कूटर है, जसवंतपुर वाला । वाजपेयी मुस्कराये और आगे बढ़ लिये ।

!! हरि ॐ तत्सत् !!

शनिवार, 7 जून 2025

हत्यारे को न्यायाधीश का दायित्व

 “मानवीय सभ्यता के उत्कर्षकाल (?) में वैश्विक स्तर पर युद्ध और आतंकवाद को प्रश्रय देने जैसी गतिविधियों के प्रसंग में विवेकशून्यता और अनैतिकमूल्यों की पराकाष्ठा ने यह विचार करने के लिये विवश कर दिया है कि हम सभ्य होते जा रहे हैं या असभ्य ?” – मोतीहारी वाले मिसिर जी : ज्येष्ठ शुक्ल १२, विक्रम संवत् २०८२ (ईसवी दिनांक ०७.०६.२०२५)

अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा बनाये रखने के लिये उत्तरदायी “संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद्” में पाकिस्तान को एक माह के लिये “तालिबान प्रतिबंध समिति” का अध्यक्ष एवं “आतंकवादरोधी समिति” का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया है । ये नियुक्तियाँ वर्णमालाक्रमानुसार एक माह के लिये की जाती हैं और पदाधिकारी देशों के पास किसी को दंड देने या मनमाने तरीके से कोई नीतिगत निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता किंतु एक “वैश्विक आतंकवादी देश” को आतंक और तालिबान रोधी समिति का उत्तरदायित्व देना क्या मक्षिका स्थाने मक्षिका एवं नियम के नाम पर जड़ता का विवेकहीन अनुकरण जैसा नहीं लगता ! हमने कैसेबियांका की पितृभक्ति और धौम्य शिष्य आरुणि की गुरुभक्ति की कहानियाँ पढ़ी हैं पर वहाँ कुपात्रता जैसी कोई बात नहीं थी । पाकिस्तान तो पूरी तरह अपात्र ही नहीं कुपात्र भी है । कलियुग का यह वह समय है जब पाकिस्तान का वैश्विक बहिष्कार किये जाने के लिये पूरे विश्व को एकजुट होना चाहिये जबकि विश्वकोष से आर्थिक सहायता और अमेरिका से संहारक आयुध प्रदाय जैसे निर्णय पाकिस्तान को आतंकवाद के लिये प्रोत्साहित ही करते हैं । माना कि सुरक्षापरिषद् की दो समितियों में अध्यक्ष और उपाध्यक्ष होकर पाकिस्तान कोई तीर नहीं मार पायेगा पर उसका मनोबल तो बढ़ेगा ही । सभ्यता के इस शीर्षकाल में हम निरंतर असभ्यता और विवेकहीनता का प्रदर्शन करने की होड़ में क्यों हैं? यदि महाशक्तियाँ इतनी ही विवेकहीन बनी रहीं तो वह दिन भी दूर नहीं जब चीन, फ़्रांस, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका के बाद पाकिस्तान को भी संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बना दिया जायेगा ।

हत्या करते रहने के अभ्यस्त क्रूर हत्यारे को ही न्यायाधीश बना देने से उसके समक्ष न्याय के प्रति चिंतन की बाध्यताजैसी स्थिति उत्पन्न करना इसका एक दूसरा पक्ष हो सकता है किंतु पाकिस्तान के लिये इसकी सम्भावना अत्यंत क्षीण है । थप्पड़ खाकर अगले कई और थप्पड़ खाने के लिये बार-बार दूसरा गाल आगे कर देने वाला यूटोपियन सिद्धांत कितना व्यावहारिक हो सका है!   

रविवार, 25 मई 2025

समाज और सत्ता

             भारत के विपक्षी दलों ने सैन्यकार्यवाही सिंदूर से पूर्व और पश्चात् जिस तरह के आचरण का प्रदर्शन किया है वह कई प्रश्न तो खड़े करता ही है, हमें अपने राजनीतिक अतीत में झाँकने का अवसर भी प्रदान करता है ।

वे हिंदुत्व और भारतीय मूल्यों का सदा अमर्यादित एवं कठोर विरोध करते रहे हैं और प्रायः पाकिस्तान के साथ खड़े दिखायी देते हैं । वे वर्तमान सत्ता को अपदस्थ कर स्वयं सत्ता में आना चाहते हैं जिससे विदेशी सत्ताओं के लक्ष्यों को पूरा किया जा सके । वे भारत के हितैषी होने का छल करके भारत का सर्वनाश करना चाहते हैं क्योंकि वे भारत और भारत के मूल्यों को हीनतर और विदेशी मूल्यों को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं । उनके विदेशानुराग का कोई आदर्श कारण नहीं है, बस वे एक तरह की हीनभावना से ग्रस्त हैं इसीलिए उनके आचरणों में कई बार दुस्साहस, अमर्यादित प्रदर्शन और विरोधाभास निर्लज्जता की सीमा से पार भी प्रकट होता रहता है । पहलगाम नरसंहार से पूर्व और सैन्यकार्यवाही सिंदूर के पश्चात् की घटनाओं पर विपक्षियों का निरर्थक प्रलाप भारत की गरिमा को धूमिल करता है ।

पहले उन्होंने कहा कि मोदी अपने नागरिकों की सुरक्षा करने में सक्षम नहीं हैं, वे पाकिस्तान पर प्रत्याक्रमण करने में भी सक्षम नहीं हैं । फिर सैन्यकार्यवाही सिंदूर के समय हड़बड़ाया विपक्ष चुप हो गया और सत्ता के साथ खड़ा दिखाई देने लगा किंतु यह उनका आभासी आचरण ही सिद्ध हुआ । सिंदूरकार्यवाही के पश्चात उनका कुटिल आचरण स्पष्ट होने लगा – मोदी ने सैन्य कार्यवाही क्यों रोक दी, मोदी भीरु हैं, मोदी ट्रम्प के दबाव में क्यों आ गये, विदेश मंत्री ने प्रत्याक्रमण की सूचना पाकिस्तान को पहले से क्यों दी, विश्वमुद्राकोष से पाकिस्तान को मिलने वाले धन की स्वीकृति को रोकने में मोदी असफल क्यों हुये, विश्व भ्रमण पर विपक्षी सदस्यों को भेजने की क्या आवश्यकता थी, आवश्यकता थी तो रौलविंची से पूछकर सदस्यों का चयन क्यों नहीं किया, ड्रोन गिराने के लिये इतने मूल्यवान मिसाइल का प्रयोग क्यों किया, इतना धन व्यय करने के बाद भी लाहौर और इस्लामाबाद अपने अधिकार में क्यों नहीं किया, …। खल-श्रेणी के ऐसे आधारहीन प्रश्न असीमित हो सकते हैं और प्रश्नकर्ताओं की कुटिलता भी अंतहीन हो सकती है । हम इतिहास की उपेक्षा करने में गर्व का अनुभव करने लगे हैं! लगभग तेरह सौ वर्ष पूर्व जब सिंध के चचवंशी राजा दाहिर पर अरबी सेनाओं ने आक्रमण किया तो आर्यावर्त के अन्य राजागण निर्विकार रहे । इतना ही नहीं, स्वयं राजा दाहिर की प्रजा के कुछ बौद्धों ने विदेशी सेना का नगर में स्वागत किया जिसके परिणाम स्वरूप आर्यावर्त सदा के लिये इस्लामिक आक्रमणकारियों के अत्याचारों से पीड़ित बने रहने के दुर्दैव का भागी बना । आज की स्थिति भी वैसी ही है । विपक्षी दलों के प्रवक्ता सैन्य कार्यवाही स्थगन को लेकर ट्रम्प की विवादित भूमिका पर सेना और सत्तापक्ष द्वारा स्पष्टीकरण के बाद भी प्रधानमंत्री को जिस तरह दोषी ठहराये जाने के हठ पर अड़े हुये हैं वह उनकी कुटिल निर्लज्जता का द्योतक है ।

सत्ता की अज्ञात विवशता

मध्यप्रदेश के एक मंत्री ने सिंदूर कार्यवाही के पश्चात् एक समर्पित महिला सैन्यअधिकारी की प्रशंसा करने की अपेक्षा उन पर आपत्तिजनक और अमर्यादित टिप्पणी कर दी, प्रकरण न्यायालय में पहुँचा तो मीलॉर्ड ने मंत्री को क्षमा करने से मना करते हुये कारागार में भेजने से भी मना कर दिया । विद्वान मीलॉर्ड जी! सेना और महिला का अपमान करने वाले व्यक्ति को अपराधी क्यों नहीं माना जाना चाहिये? ऐसे अभद्र आचरण वाले मंत्री को सत्ता में बनाये रखने की ऐसी कौन सी विवशता है ? ? ?   

फातिमा बेगम अर्थात् राखी सावंत

सनातन से ईसा और अब अल्लाह तक की साम्प्रदायिक यात्राओं ने राखी सावंत की सामाजिक और राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं में जिस तरह की क्रांतियाँ की हैं वे इस बात को सिद्ध करती हैं कि मतांतरण ही राष्ट्रांतरण का पूर्वस्वरूप है । जब उसने फ़ातिमा बनकर मुस्लिम व्यक्ति से निकाह किया तो वह इस्लाम के प्रति समर्पित हो गयी किंतु पति से प्रताड़ित होने के बाद अब वह किसी अन्य पाकिस्तानी व्यक्ति से अपना अगला निकाह करना चाहती है । अगला निकाह अभी हुआ नहीं है क्योंकि होने वाले पति ने विवाह करने से मना कर दिया है किंतु फ़ातिमा बेगम के मन में पाकिस्तान बस चुका है, अपने दृढ़ निश्चय के साथ ही राखी (फ़ातिमा बेगम) की प्रतिबद्धता भारत से निकलकर पाकिस्तान के लिये हो गयी है, इसीलिये वह कैमरे के सामने मुट्ठी भींचकर कहती दिखायी देती है “पाकिस्तान ज़िंदाबाद”!

जब दो लोगों के मध्य विवाद या युद्ध हो रहा हो और हम किसी के लिये ज़िंदाबाद / जय हो का नारा लगाते हैं तो उसके विरोधी या शत्रु के लिये मुर्दाबाद / पराजय की स्पष्ट कामना करते हैं । अतः राखी सावंत/ फ़ातिमा भारत की पराजय की कामना करने लगी है ।

राखी जैसे लोग ही अपने देश के विरुद्ध विदेशी शक्तियों का स्वागत और सहयोग किया करते हैं । राखी सावंत को भारत ने वह सब कुछ दिया जो उसे चाहिये था, पर वह भारत को उसका उसका हजारवाँ अंश भी नहीं दे सकी । लोग चाहते हैं कि राखी जैसे लोगों का खुलकर विरोध प्रदर्शन किया जाना चाहिये और उनके विरुद्ध विधिक कार्यवाही की जानी चाहिये ।

सत्ता और व्यापार, सत्ता का व्यापार

सत्ता और व्यापार का संतुलन किसी भी देश की समृद्धि के लिये आवश्यक घटक माना जाता है किंतु तब क्या होगा जब राजनेता सत्ता का ही व्यापार करने लगें ?

ब्रिटिश इंडिया से लेकर इंडिया तक की यात्रा में दुर्भाग्य से सत्ता का व्यापार ही भारत का भाग्य बन गया । सत्ता के साथ ही शोषण का भी हस्तांतरण हुआ जिससे इंडिया कभी भारत बनकर अपना शीष उठा ही नहीं सका । वर्तमान सत्ताधीश इंडिया को भारत की ओर एवं वर्तमान विपक्षी दल इंडिया को जिन्ना के पाकिस्तान जैसे इस्लामिक देश या लेनिन-स्टालिन के तत्कालीन सोवियत संघ जैसे किसी कम्युनिस्ट देश की ओर ले जाने के लिये अपनी-अपनी प्रतिबद्धतायें दोहराते रहते हैं और हम प्रतीक्षा करने अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं ।

मोदी, ट्रम्प, पिंग और पुतिन

आयातित वस्तुओं पर कराधान और प्रतिकराधान के बीच लाभकारी नये सम्बंध बनाने के प्रयासों ने विश्व को व्यापारिक कराधान के एक अप्रिय शीतयुद्ध में धकेल दिया है । ट्रम्प बुल्लिश होकर आक्रमण कर रहे हैं तो पिंग, मोदी और पुतिन अपने-अपने व्यापारिक ढाँचों को सुरक्षित बनाये रखने के उपाय खोजते दिखायी दे रहे हैं । ट्रम्प का छेड़ा यह युद्ध अपने प्रतिद्वंदी की व्यापारव्यवस्था को पराभूत करते-करते अब औद्योगिक ढाँचे को ही चरमरा देने की ओर बढ़ता दिखायी देने लगा है । ट्रम्प का तो पता नहीं पर पिंग और पुतिन अपनी सुरक्षा कर पाने में सक्षम हैं जबकि भारत की स्थिति संशयपूर्ण है, उसे बहुत सावधानी से अपनी कार्ययोजनायें बनानी होंगी । किसी भी उद्योग की श्रेष्ठता और सफलता तकनीकी शोधों और कुशल कर्मियों की गुणवत्ता पर आधारित होती है, जबकि भारत में गुणवत्ता की अपेक्षा जातीय आरक्षण को ही प्राथमिकता दी जाने की कुटिल राजनीतिक परम्परा पड़ चुकी है । जातीय जनगणना की घोषणा और संख्याबल के अनुसार सत्ता में भागीदारी के स्वप्न ने संख्या को प्रोत्साहित किया है, गुणवत्ता को नहीं ।

पारस्परिक कराधान के युद्ध में एक स्पष्ट ध्रुवीकरण होता दिखायी देने लगा है, जिसके परिणामस्वरूप अमेरिका और चीन का तात्कालिक गठजोड़ सम्भावित है । भारत को अपने लिये विश्वसनीय साथी खोजने होंगे, कौन हो सकता है विश्वसनीय! नैतिक मूल्यों में विश्वास न रखने वाले अमेरिका की स्वार्थपरता सर्वविदित है । चीन मौन रहकर घात-प्रतिघात में दक्ष है । रूस भी परिस्थितियों के अनुरूप अपनी नीतियों में परिवर्तन को प्राथमिकता देता रहा है । हम इज़्रेल पर विश्वास कर सकते हैं पर वह बहुत छोटा देश है, व्यापार संतुलन में उसकी भूमिका अभी इतनी पहत्वपूर्ण दिखायी नहीं देती । इधर हम अपने पड़ोसियों के आतंकी व्यवहार से पीड़ित हैं अन्यथा भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश एक साथ खड़े होकर औद्योगिक जगत और व्यापार व्यवस्था पर एकछत्र राज्य कर सकने में समर्थ हैं । कदाचित यह स्वप्न भविष्य में कभी सच हो सके । निश्चित ही हम अमेरिका पर लेश भी विश्वास नहीं कर सकते, इसलिये अभी तो हमें रूस और चीन के बारे में ही सोचना होगा । अमेरिका की अपेक्षा चीन पर विश्वास करना कम संकटपूर्ण हो सकता है । काश! भारत और चीन निर्जन हो चुके अपने पुराने रेशमपथों पर लौट पाते !