लगातार इन्फ़्लेशन और रीसेशन के बीच आर.बी.आई. के पूर्व गवर्नर रघुराजन ने फिर चेतावनी दी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह भूलुण्ठित होने की दिशा में आगे बढ़ चुकी है। उनके अनुसार यदि आर्थिक और औद्योगिक-तकनीकी सुधारों की ओर तत्काल गम्भीरतापूर्वक ध्यान न दिया गया तो भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह धराशायी हो जायेगी।
इन सुधारों
का दायित्व किस पर है?
क्या भारत
में लोकतंत्र की अवधारणा एक असफल प्रयोग हो कर रह गयी है?
भारत की जनता ने पिछले कुछ दशकों से केवल सत्ता की छीना-झपटी को ही देखा है। सरकार गिराने, बनाने और बचाने में पाँच साल तक कलाबाजियाँ करने वाले कुछ लोगों की जेब में समा चुके भारत को अब आंतरिक संघर्षों की आग में जलते हुये देखा जा रहा है जिसकी लपटें अराजकता, गृहयुद्ध और विखण्डन के स्पष्ट संकेत दे रही हैं। कृषि, आर्थिक, औद्योगिक और तकनीकी सुधारों की ओर ध्यान देने का समय ही किसके पास है! सरकारी औद्योगिक प्रतिष्ठान निरंतर घाटे में ही डूबे रहने की कसम खाये बैठे हैं और लालफीताशाही अपने एक अलग ही साम्राज्य में आत्ममुग्ध है।
आज से लगभग
चौबीस शताब्दी पूर्व सोलह महाजनपदों वाले विश्व के प्रथम गणतांत्रिक वृज्जिसंघ की व्यवस्था
को लिच्छवियों की राजधानी वैशाली में धूल-धूसरित होते हुये यह देश देख चुका है। पिछले
वर्ष हमने एक काल्पनिक देश खालिस्तान के ध्वज को लाल किले पर लहराते हुये देखा है।
सत्ता और सत्य का अब आपस में दूर-दूर तक कोई नाता नहीं रहा। कोई भी सत्ता जब सत्य, विद्वान
और चिंतकों को धता बताने लगे तो समझ लेना चाहिए कि वह सत्ता तो बिखरेगी ही,
देश भी बिखरेगा – अट्टकुल के वृज्जिसंघ की तरह, ओट्टोमन साम्राज्य की तरह, सन् 1947 के भारत की तरह और
यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ़ सोवियत रूस की तरह।
स्पष्ट कर दूँ कि सैद्धांतिकरूप से मैं वर्तमान
कम्युनिज़्म का समर्थन नहीं करता। हमें पीछे मुड़कर देखने की अनुमति नहीं है इसलिए मौर्यकालीन
भारत के प्रादर्श पर चर्चा के बारे में तो सोचना भी अपराध है। हमें किसी अन्य विकल्प
पर ही विचार करना होगा। निस्संदेह चीन हमारा शत्रु है किंतु यदि भारत के विकास में
उधार का लोकतंत्र सफल नहीं हो पा रहा है तो क्यों नहीं हमें भारत में सत्ता और
शासन के लिए चीनी प्रादर्श पर चिंतन करना चाहिए? जब उधार ही लेना है तो
पश्चिम से क्यों, पूर्व से क्यों नहीं!
जिस साम्यवाद
की हम आलोचना करते नहीं थकते उसी साम्यवाद ने चीन को आज विश्व की महाशक्ति बना दिया
है, जबकि अतिप्रशंसनीय लोकतंत्र ने भारत को अराजकता, निरंकुशता
और गृहयुद्ध में झोंक दिया है। लोकतंत्र की सफलता की चाबी एक आदर्श और साफ-सुथरे समाज
के पास होती है, बिखरे हुये और दास मानसिकता वाले समाज के पास
नहीं। भारत जैसे अराजक और स्वेच्छाचारी समाज के लिए या तो कबीला तंत्र अच्छा है या
फिर कुछ सुधार के बाद चीनी साम्यवाद!
आधुनिक भारत
में खुलेआम हत्या, सामूहिक नरसंहार और यौनदुष्कर्म की धमकियों को चीख-चीख कर न्यायसंगत ठहराने
वाले अतिबुद्धिजीवियों की फौज़ के होते हुये किसी औद्योगिक या तकनीकी सुधार के बारे
में सोचा भी कैसे जा सकता है!
क्या आपको
नहीं लगता कि भारत अफीम की पिन्नक में डूब चुका है!
लोकतंत्र की ऐसी-तैसी का अधिकार
टीवी चैनल्स
पर रावण से विष्णु के बारे राय पूछी जाती है, किसान से ब्रेन सर्जरी का
तरीका पूछा जाता है, इंजीनियर से ध्रुपद गायन के लिए कहा
जाता है और तस्लीम रहमानी एवं वारिस पठान से सिगरेट पीती हुयी काली पर टिप्पणी
करने के लिए कहा जाता है क्योंकि यह लोकतंत्र है और हर किसी को किसी भी विषय पर
अपनी राय बनाने और उसे सार्वजनिक करने का लोकतांत्रिक अधिकार है। जेबी पारदीवाला
के सुर में बोलूँ तो वाकई बहुत सारे विवादों को समाप्त करने के लिए टीवी चैनल्स पर
पूर्ण प्रतिबंध लगाये जाने की आवश्यकता है।
इस्लामिक
आराध्यों पर टिप्पणी करने का लोकतांत्रिक अधिकार किसी सनातनी को नहीं है पर महान
टीवी चैनल्स वाले सनातनी आस्थाओं पर टिप्पणी करने के लिए किसी संत या दार्शनिक को
नहीं बल्कि तस्लीम रहमानी और वारिस पठान को आमंत्रित करते हैं। सीएनबीसी आवाज की
जय हो!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणियाँ हैं तो विमर्श है ...विमर्श है तो परिमार्जन का मार्ग प्रशस्त है .........परिमार्जन है तो उत्कृष्टता है .....और इसी में तो लेखन की सार्थकता है.